Chapter 3 Bhagavad Gita Karm Yog

 

 

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कर्मयोग ~ अध्याय तीन

01-08 ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता

 

 

Chapter 3 Bhagavad Gita Karma Yog

 

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।3.7।।

 

यः-जो; तु–लेकिन; इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ; मनसा-मन से; नियम्य–नियन्त्रित करना; आरम्भते-प्रारम्भ करता है; अर्जुन-अर्जुन; कर्म इन्द्रियैः-कर्म इन्द्रियों द्वारा; कर्म-कर्मयोग; असक्तः-आसक्ति रहित; सः-विशिष्यते-वे श्रेष्ठ हैं।

 

हे अर्जुन! लेकिन वे मनुष्य जो मन से अपनी ज्ञानेन्द्रियों को नियंत्रित करते हैं और कर्मेन्द्रियों से आसक्ति रहित होकर (निष्काम भाव से) अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है अर्थात कर्म में संलग्न रहते हैं, वे ही वास्तव में श्रेष्ठ हैं ।।3.7।।

 

( “तु” यहाँ अनासक्त होकर कर्म करने वाले को मिथ्याचारी की अपेक्षा ही नहीं बल्कि सांख्य योगी की अपेक्षा भी श्रेष्ठ बताने की दृष्टि से तु पद दिया गया है। “अर्जुन ” अर्जुन शब्द का अर्थ होता है स्वच्छ। यहाँ भगवान ने अर्जुन सम्बोधन का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया है कि तुम निर्मल अन्तःकरण से युक्त हो अतः तुम्हारे अन्तःकरण में कर्तव्य-कर्म-विषयक यह सन्देह कैसे आ गया अर्थात् यह सन्देह तुम्हारे में स्थिर नहीं रह सकता। “यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्य ” यहाँ मनसा पद सम्पूर्ण अन्तःकरण (मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार ) का वाचक है और इन्द्रियाणि पद छठे श्लोक में आये कर्मेन्द्रियाणि पद की तरह ही दसों इन्द्रियों का वाचक है। मन से इन्द्रियों को वश में करने का तात्पर्य है कि विवेकवती बुद्धि के द्वारा मन और इन्द्रियों से स्वयं का कोई सम्बन्ध नहीं है ऐसा अनुभव करना। मन से इन्द्रियों का नियमन करने पर इन्द्रियों का अपना स्वतन्त्र आग्रह नहीं रहता अर्थात् उनको जहाँ लगाना चाहें वहीं वे लग जाती हैं और जहाँसे उनको हटाना चाहें वहाँ से वे हट जाती हैं। इन्द्रियाँ वश में तभी होती हैं जब इनके साथ ममता (मेरापन) का सर्वथा अभाव हो जाता है। 12वें अध्याय के 11वें श्लोक में भी कर्मयोगी के लिये इन्द्रियों को वश में करने की बात आयी है । “सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।” तात्पर्य यह है कि वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा ही कर्मयोग का आचरण होता है। पीछे के (छठे) श्लोक में भगवान ने “संयम्य “पद से मिथ्याचार के विषय में इन्द्रियों को हठपूर्वक रोकने की बात कही थी किन्तु यहाँ “नियम्य” पद से शास्त्रमर्यादा के अनुसार इन्द्रियों का नियमन करने ( निषिद्ध से हटाकर उन्हें शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म में लगाने ) की बात कही है। नियमन करने पर इन्द्रियों का संयम स्वतः हो जाता है। “असक्तः” आसक्ति दो जगह होती है (1) कर्मों में और (2) उनके फलों में। समस्त दोष आसक्ति में ही रहते हैं , कर्मों तथा उनके फलोंमें नहीं। आसक्ति रहते हुए योग सिद्ध नहीं हो सकता। आसक्ति का त्याग करने पर ही योग सिद्ध होता है। अतः साधक को कर्मों का त्याग न करके उनमें आसक्ति का ही त्याग करना चाहिये। आसक्तिरहित होकर सावधानी एवं तत्परतापूर्वक कर्तव्यकर्म का आचरण किये बिना कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं हो सकता। साधक आसक्तिरहित तभी हो सकता है जब वह शरीर, इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि को मेरी अथवा मेरे लिये न मानकर केवल संसार का और संसार के लिये ही मानकर संसार के हित के लिये तत्परतापूर्वक कर्तव्यकर्म का आचरण करने में लग जाय। जब वह अपने लिये कोई कर्म न करके केवल दूसरों के हित के लिये सम्पूर्ण कर्म करता है तब उसकी अपनी फलासक्ति स्वतः मिट जाती है। कर्मेन्द्रियों से होने वाली साधारण क्रियाओं से लेकर चिन्तन तथा समाधि तक की समस्त क्रियाओं का हमारे स्वरूप के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है (गीता 5। 11) परन्तु स्वरूप से अनासक्त होते हुए भी यह जीवात्मा स्वयं आसक्ति करके संसार से अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है। कर्मयोगी की वास्तविक महिमा आसक्तिरहित होने में ही है। कर्मों से प्राप्त होने वाले किसी भी फल को न चाहना अर्थात् उससे सर्वथा असङ्ग हो जाना ही आसक्तिरहित होना है। साधारण मनुष्य तो अपनी कामना की सिद्धि के लिये ही किसी कार्य में प्रवृत्त होता है परन्तु साधक आसक्ति के त्याग का उद्देश्य लेकर ही किसी कार्य में प्रवृत्त होता है। ऐसे साधक को ही यहाँ “असक्तः” कहा गया है। जब ज्ञानयोगी और कर्मयोगी दोनों ही फलेच्छा और आसक्ति का त्याग करते हैं तब ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग अधिक सुगम सिद्ध होता है। कारण कि कर्मयोगी को फिर किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं रहती जबकि ज्ञानयोगी को देहाभिमान और क्रियापदार्थ की आसक्ति मिटाने के लिये कर्मयोग (निष्कामभाव से कर्म करने ) की आवश्यकता रहती है (5। 6 15। 11)। कर्मयोग में आसक्ति का त्याग मुख्य है जिससे कर्मयोगी को समबुद्धि की प्राप्ति हो जाती है। इसलिये भगवान् कहते हैं कि कर्मों का त्याग करने की आवश्यकता नहीं है बल्कि आसक्तिरहित होकर कर्म करने की ही आवश्यकता है। कर्मों का त्याग करना चाहिये या नहीं यह देखना वस्तुतः गीता का सिद्धान्त ही नहीं है। गीता के अनुसार कर्मों में आसक्ति ही (दोष होने के कारण) त्याज्य है। कर्मयोग में कर्म सदा दूसरों के हितके लिये होता है और योग अपने लिये होता है। अर्जुन कर्म को अपने लिये मानते हैं इसीलिये उन्हें युद्धरूप कर्तव्यकर्म घोर दिख रहा है। इस पर भगवान् यह स्पष्ट करते हैं कि आसक्ति ही घोर होती है , कर्म नहीं। “कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगम् आरभते ” जैसे इसी श्लोक के प्रथम चरण में इन्द्रियाणि पद का तात्पर्य दसों इन्द्रियों से है ऐसे ही यहाँ “कर्मेन्द्रियैः” पद को दसों इन्द्रियों का वाचक समझना चाहिये। अगर कर्मेन्द्रियैः पद से हाथ , पैर , वाणी आदि को ही लिया जाय तो देखे-सुने तथा मन से विचार किये बिना कर्म कैसे होंगे ? अतः यहाँ सभी करणों अर्थात् अन्तःकरण और बहिःकरण को भी कर्मेन्द्रियाँ माना गया है क्योंकि इन सबसे कर्म होते हैं। जब कर्म अपने लिये न करके दूसरों के हित के लिये किया जाता है तब वह कर्मयोग कहलाता है। अपने लिये कर्म करने से अपना सम्बन्ध कर्म तथा कर्मफल के साथ हो जाता है और अपने लिये कर्म न करके दूसरों के लिये कर्म करने से कर्म तथा कर्मफल का सम्बन्ध दूसरों के साथ तथा परमात्मा का सम्बन्ध अपने साथ हो जाता है जो कि सदा से है। इस प्रकार देश काल परिस्थिति आदि के अनुसार प्राप्त कर्तव्यकर्म को निःस्वार्थभाव से करना कर्मयोग का आरम्भ है। कर्मयोगी साधक दो तरह के होते हैं (1) जिसके भीतर कर्म करने का वेग , आसक्ति , रुचि तो है पर अपना कल्याण करने की इच्छा मुख्य है ऐसे साधक के लिये नये-नये कर्म आरम्भ करने की जरूरत नहीं है। उसके लिये केवल प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करने की ही जरूरत है। (2) जिसके भीतर अपना कल्याण करने की इच्छा मुख्य नहीं है और संसार की सेवा करने में , उसे सुख पहुँचाने में तथा समाज  का सुधार करनेमें अधिक रुचि है,  जिससे उसके मन में आता है कि अमुक-अमुक काम किये जायँ तो बहुतों की सेवा हो सकती है , समाज का सुधार हो सकता है आदि। ऐसा साधक अगर नये-नये कर्मों का आरम्भ कर भी दे तो कोई हर्ज नहीं है। हाँ , नये कर्मों का आरम्भ केवल कर्म करने की आसक्ति मिटाने के लिये ही किया जाना चाहिये। गीता में भगवान ने अर्जुन के लिये प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करने के लिये ही कहा है क्योंकि अर्जुन में अपने कल्याण की इच्छा मुख्य थी (गीता 2। 7 3। 2 5। 1)। “स विशिष्यते ” जो अपने स्वार्थ का , फल की आसक्ति का त्याग कर के मात्र प्राणियों के हित के लिये कर्म करता है वह श्रेष्ठ है। कारण कि उसकी मात्र क्रियाओं का प्रवाह संसार की तरफ हो जाने से उसमें स्वतः असङ्गता आ जाती है। साधक का जब अपना कल्याण करने का विचार होता है तब वह कर्मों को साधन में विघ्न समझकर उनसे उपराम होना चाहता है परन्तु वास्तव में कर्म करना दोषी नहीं है बल्कि कर्मों में सकामभाव ही दोषी है। अतः भगवान् कहते हैं कि बाहर से इन्द्रियों का संयम करके भीतर से विषयों का चिन्तन करने वाले मिथ्याचारी पुरुष की अपेक्षा आसक्तिरहित होकर दूसरों के हित के लिये कर्म करने वाला श्रेष्ठ है। वास्तव में मिथ्याचारी पुरुष की अपेक्षा स्वर्गादि की प्राप्ति के लिये सकामभावपूर्वक कर्म करने वाला भी श्रेष्ठ है फिर दूसरों के कल्याण के लिये निष्कामभावपूर्वक कर्म करनेवाला कर्मयोगी श्रेष्ठ है , इसमें तो कहना ही क्या है । पाँचवें अध्याय में जब अर्जुन ने प्रश्न किया कि संन्यास और योग दोनों में कौन श्रेष्ठ है तब भगवान ने उत्तर में दोनों को ही कल्याण करने वाला बताकर कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ कहा। यहाँ भी इसी आशय से स्वार्थभाव का त्याग करके दूसरों के हिते के लिये कर्म करने वाले कर्मयोगी को श्रेष्ठ बताया गया है। गीता अपनी शैली के अनुसार पहले प्रस्तुत विषय का विवेचन करती है। फिर करने से लाभ और न करने से हानि बताती है। इसके बाद उसका अनुष्ठान करने की आज्ञा देती है। यहाँ भी भगवान् अर्जुन के प्रश्न (मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं) का उत्तर देते हुए पहले कर्मों के सर्वथा त्याग को असम्भव बताते हैं। फिर कर्मों का स्वरूप  से त्याग करके मन से विषयचिन्तन करने को मिथ्याचार बताते हुए निष्कामभाव से कर्म करने वाले मनुष्य को श्रेष्ठ बताते हैं। अब आगे के श्लोक में भगवान् अर्जुन को उसी के अनुसार कर्तव्यकर्म करने की आज्ञा देते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )

 

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