कर्मयोग ~ अध्याय तीन
09-16 यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥3 .11॥
देवान्–स्वर्ग के देवताओं को; भावयता–प्रसन्न होंगे; अनेन–इन यज्ञों से; ते–वे; देवाः-स्वर्ग के देवता; भावयन्तु-प्रसन्न होंगे; वः-तुमको; परस्परम–एक दूसरे को; भावयन्तः-एक दूसरे को प्रसन्न करते हुए; श्रेयः-समृद्ध; परम-सर्वोच्च; अवाप्स्यथ–प्राप्त करोगे।
अपने कर्तव्य-कर्म के द्वारा तुम्हारे द्वारा सम्पन्न किए गए यज्ञों से देवता प्रसन्न होंगे अर्थात उन्नत होंगे और ( फलस्वरूप ) वे देवता लोग अपने कर्तव्य के द्वारा तुम लोगों को उन्नत करें अर्थात प्रसन्न करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत और प्रसन्न करते हुए मनष्यों और देवताओं के मध्य सहयोग के परिणामस्वरूप तुम लोग परम ( सर्वोच्च ) कल्याण को प्राप्त हो जाओगे और सभी को सुख समृद्धि प्राप्त होगी।।3.11।।
( “देवान् भावयतानेन ” यहाँ देव शब्द उपलक्षक है अतः इस पद के अन्तर्गत मनुष्य , देवता , ऋषि , पितर आदि समस्त प्राणियों को समझना चाहिये। कारण कि कर्मयोगी का उद्देश्य अपने कर्तव्य-कर्मों से प्राणिमात्र को सुख पहँचाना रहता है। इसलिये यहाँ ब्रह्माजी सम्पूर्ण प्राणियों की उन्नति के लिये मनुष्यों को अपने कर्तव्यकर्मरूप यज्ञ के पालन का आदेश देते हैं। अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने से मनुष्य का स्वतः कल्याण हो जाता है (गीता 18। 45)। कर्तव्यकर्म का पालन करने के उपदेश के पूर्ण अधिकारी मनुष्य ही हैं। मनुष्यों को ही कर्म करने की स्वतन्त्रता मिली हुई है अतः उन्हें इस स्वतन्त्रता का सदुपयोग करना चाहिये। “ते देवा भावयन्तु वः ” जैसे वृक्ष , लता आदि में स्वाभाविक ही फूल-फल लगते हैं परन्तु यदि उन्हें खाद और पानी दिया जाय तो उनमें फूल-फल विशेषता से लगते हैं। ऐसे ही यजन – पूजन से देवताओं की पुष्टि होती है जिससे देवताओं के काम विशेष न्यायप्रद होते हैं परन्तु जब मनुष्य अपने कर्तव्यकर्मों के द्वारा देवाताओं का यजन-पूजन नहीं करते तब देवताओं को पुष्टि नहीं मिलती जिससे उनमें अपने कर्तव्य का पालन करने में कमी आ जाती है। उनके कर्तव्यपालन में कमी आने से ही संसार में विप्लव अर्थात् अनावृष्टि-अतिवृष्टि आदि होते हैं। “परस्परं भावयन्तः” इन पदों का अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि दूसरा हमारी सेवा करे तो हम उसकी सेवा करें बल्कि यह समझना चाहिये कि दूसरा हमारी सेवा करे या न करे हमें तो अपने कर्तव्य के द्वारा उसकी सेवा करनी ही है। दूसरा क्या करता है क्या नहीं करता , हमें सुख देता है या दुःख इन बातों से हमें कोई मतलब नहीं रखना चाहिये क्योंकि दूसरों के कर्तव्य को देखने वाला अपने कर्तव्य से च्युत हो जाता है, हट जाता या भटक जाता है । परिणामस्वरूप उसका पतन हो जाता है। दूसरों से कर्तव्य का पालन करवाना अपने अधिकार की बात भी नहीं है। हमें सबका हित करने के लिये केवल अपने कर्तव्य का पालन करना है और उसके द्वारा सबको सुख पहुँचाना है। सेवा करने में अपनी समझ ,सामर्थ्य , समय और सामग्री को अपने लिये थोड़ी सी भी बचाकर नहीं रखनी है। तभी जडता से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होगा। हमारे जितने भी सांसारिक सम्बन्धी माता-पिता , स्त्री-पुत्र , भाई-भौजाई आदि हैं उन सबकी हमें सेवा करनी है। अपना सुख लेने के लिये ये सम्बन्ध नहीं हैं। हमारा जिनसे जैसा सम्बन्ध है उसी के अनुसार उनकी सेवा करना, मर्यादा के अनुसार उन्हें सुख पहुँचाना हमारा कर्तव्य है। उनसे कोई आशा रखना और उन पर अपना अधिकार मानना बहुत बड़ी भूल है। हम उनके ऋणी हैं और ऋण उतारने के लिये उनके यहाँ हमारा जन्म हुआ है। अतः निःस्वार्थभाव से उन सम्बन्धियों की सेवा करके हम अपना ऋण चुका दें यह हमारा सर्वप्रथम आवश्यक कर्तव्य है। सेवा तो हमें सभी की करनी है परन्तु जिनकी हमारे पर जिम्मेवारी है उन सम्बन्धियों की सेवा सबसे पहले करनी चाहिये। शरीर , इन्द्रयाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ आदि अपने नहीं हैं और अपने लिये भी नहीं हैं यह सिद्धान्त है। अतः अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने से स्वतः एक दूसरे की उन्नति होती है। कर्तव्य और अधिकार सम्बन्धी मार्मिक बात – कर्मयोग तभी होता है जब मनुष्य अपने कर्तव्य के पालनपूर्वक दूसरे के अधिकार की रक्षा करता है। जैसे माता-पिता की सेवा करना पुत्र का कर्तव्य है और माता-पिता का अधिकार है। जो दूसरे का अधिकार होता है वही हमारा कर्तव्य होता है। अतः प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्तव्यपालन के द्वारा दूसरे के अधिकार की रक्षा करनी है तथा दूसरे का कर्तव्य नहीं देखना है। दूसरे का कर्तव्य देखने से मनुष्य स्वयं कर्तव्यच्युत हो जाता है क्योंकि दूसरे का कर्तव्य देखना हमारा कर्तव्य नहीं है। तात्पर्य है कि दूसरे का हित करना है यह हमारा कर्तव्य है और दूसरेका अधिकार है। यद्यपि अधिकार कर्तव्य के ही अधीन है तथापि मनुष्य को अपना अधिकार देखना ही नहीं हैं बल्कि अपने अधिकार का त्याग करना है। केवल दूसरे के अधिकार की रक्षा के लिये अपने कर्तव्य का पालन करना है। दूसरे का कर्तव्य देखना तथा अपना अधिकार जमाना लोक और परलोक में महान पतन करने वाला है। वर्तमान समय में घरों में , समाज में जो अशान्ति ,कलह , संघर्ष देखने में आ रहा है उसमें मूल कारण यही है कि लोग अपने अधिकार की माँग तो करते हैं पर अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते इसलिये ब्रह्माजी देवताओं और मनुष्यों को उपदेश देते हैं कि एक दूसरे का हित करना तुम लोगों का कर्तव्य है। “श्रेयः परमवाप्स्यथ ” प्रायः ऐसी धारणा बनी हुई है कि यहाँ परम कल्याण की प्राप्ति का कथन अतिशयोक्ति है पर वास्तव में ऐसा नहीं है। अगर इसमें किसी को सन्देह हो तो वह ऐसा करके खुद देख सकता है। जैसे धरोहर रखने वाले की धरोहर उसे वापस कर देने से धरोहर रखने वाले से तथा उस धरोहर से हमारा किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहता ऐसे ही संसार की वस्तु संसार की सेवा में लगा देने से संसार और संसार की वस्तु से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं रहता। संसार से माने हुए सम्बन्ध का विच्छेद होते ही चिन्मयता का अनुभव हो जाता है। अतः प्रजापति ब्रह्माजी के वचनों में अतिशयोक्ति की कल्पना करना अनुचित है। यह सिद्धान्त है कि जब तक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है तब तक उसके कर्म की समाप्ति नहीं होती और वह कर्मों से बँधता ही जाता है। कृतकृत्य वही होता है जो अपने लिये कभी कुछ नहीं करता। अपने लिये कुछ भी नहीं करने से पाप का आचरण भी नहीं होता क्योंकि पाप का आचरण कामना के कारण ही होता है (3। 37)। अतः अपना कल्याण चाहने वाले साधक को चाहिये कि वह शास्त्रों की आज्ञा के अनुसार फल की इच्छा और आसक्ति का त्याग करके कर्तव्यकर्म करने में तत्पर हो जाय फिर कल्याण तो स्वतःसिद्ध है। अपनी कामना का त्याग करने से संसारमात्रका हित होता है। जो अपनी कामनापूर्ति के लिये आसक्तिपूर्वक भोग भोगता है वह स्वयं तो अपनी हिंसा (पतन) करता ही है साथ ही जिनके पास भोगसामग्रीका अभाव है उनकी भी हिंसा करता है अर्थात् दुःख देता है। कारण कि भोगसामग्री वाले मनुष्य को देखकर अभावग्रस्त मनुष्य को उस भोगसामग्री के अभाव का दुःख होना स्वाभाविक है। इस प्रकार स्वयं सुख भोगने वाला व्यक्ति हिंसा से कभी बच नहीं सकता। ठीक इसके विपरीत पारमार्थिक मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को देखकर दूसरों को स्वतः शान्ति मिलती है क्योंकि पारमार्थिक सम्पत्ति पर सबका समान अधिकार है। निष्कर्ष यह निकला कि मनुष्य कामना, आसक्ति का त्याग करके अपने कर्तव्यकर्म का पालन करता रहे तो ब्रह्माजी के कथनानुसार वह परम कल्याण को अवश्य ही प्राप्त हो जायग। इसमें कोई सन्देह नहीं है।यहाँ परम कल्याण की प्राप्ति मुख्यता से मनुष्यों के लिये ही बतायी है देवताओं के लिये नहीं। कारण कि देवयोनि अपना कल्याण करने के लिये नहीं बनायी गयी है। मनुष्य जो कर्म करता है उन कर्मों के अनुसार फल देने , कर्म करने की सामग्री देने तथा अपने-अपने शुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये देवता बनाये गये हैं। वे निष्कामभाव से कर्म करने की सामग्री देते हों ऐसी बात नहीं है परन्तु उन देवताओं में भी अगर किसी में अपने कल्याण की इच्छा हो जाय तो उसका कल्याण होने में मना नहीं है अर्थात् अगर कोई अपना कल्याण करना चाहे तो कर सकता है। जब पापी से पापी मनुष्य के लिये भी उद्धार करने की मनाही नहीं है तो फिर देवताओं के लिये (जो कि पुण्ययोनि है) अपना उद्धार करने की मनाही कैसे हो सकती है ? ऐसा होने पर भी देवताओं का उद्देश्य भोग भोगने का ही रहता है इसलिये उनमें प्रायः अपने कल्याण की इच्छा नहीं होती- स्वामी रामसुखदासजी )