कर्मयोग ~ अध्याय तीन
17-24 ज्ञानवानऔर भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥3 .18॥
न-कभी नहीं; एव-वास्तव में; तस्य-उसका; कृतेन – कर्त्तव्य का पालन; अर्थ:-प्राप्त करना; न-न तो; अकृतेन- कर्त्तव्य का पालन न करने से; इह-यहाँ; कश्चन-जो कुछ भी; न – कभी नहीं; च-तथा; अस्य-उसका; सर्वभूतेषु-सभी जीवों में; कश्चित्-कोई; अर्थ-आवश्यकता; व्यपाश्रयः-निर्भर होना।
ऐसी आत्मलीन आत्माओं को अपने कर्तव्य का पालन करने या उनसे विमुख होने से कुछ पाना या खोना नहीं होता और न ही उन्हें अपनी निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य जीवों पर निर्भर रहने की आवश्यकता होती है। अर्थात उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए) महापुरुष का इस संसार में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता।।3.18।।
( “नैव तस्य कृतेनार्थः “प्रत्येक मनुष्य की कुछ न कुछ करने की प्रवृत्ति होती है। जब तक यह करने की प्रवृत्ति किसी सांसारिक वस्तु की प्राप्ति के लिये होती है तब तक उसका अपने लिये करना शेष रहता ही है। अपने लिये कुछ न कुछ पाने की इच्छा से ही मनुष्य बँधता है। उस इच्छा की निवृत्ति के लिये कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता है। कर्म दो प्रकार से किये जाते हैं। कामनापूर्ति के लिये और कामनानिवृत्ति के लिये। साधारण मनुष्य तो कामनापूर्ति के लिये कर्म करते हैं पर कर्मयोगी कामना निवृत्ति के लिये कर्म करता है। इसलिये कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष में कोई भी कामना न रहने के कारण उसका किसी भी कर्तव्य से किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता। उसके द्वारा निःस्वार्थभाव से समस्त सृष्टि के हित के लिये स्वतः कर्तव्यकर्म होते हैं। कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष का कर्मों से अपने लिये (व्यक्तिगत सुख आराम के लिये) कोई सम्बन्ध नहीं रहता। इस महापुरुष का यह अनुभव होता है कि पदार्थ , शरीर , इन्द्रियाँ , अन्तःकरण आदि केवल संसा रके हैं और संसार से मिले हैं , व्यक्तिगत नहीं हैं। अतः इनके द्वारा केवल संसार के लिये ही कर्म करना है अपने लिये नहीं। कारण यह है कि संसार की सहायता के बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता। इसके अलावा मिली हुई कर्मसामग्री का सम्बन्ध भी समष्टि संसार के साथ ही है अपने साथ नहीं। इसलिये अपना कुछ नहीं है। व्यष्टि के लिये समष्टि हो ही नहीं सकती। मनुष्य की यही गलती होती है कि वह अपने लिये समष्टि का उपयोग करना चाहता है इसी से उसे अशान्ति होती है। अगर वह शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ आदि का समष्टि के लिये उपयोग करे तो उसे महान शान्ति प्राप्त हो सकती है। कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष में यही विशेषता रहती है कि उसके कहलाने वाले शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ आदि का उपयोग मात्र संसार के लिये ही होता है। अतः उसका शरीरादि की क्रियाओं से अपना कोई प्रयोजन नहीं रहता। प्रयोजन न रहने पर भी उस महापुरुष से स्वाभाविक ही लोगों के लिये आदर्शरूप उत्तम कर्म होते हैं। जिसका कर्म करने से प्रयोजन रहता है उससे आदर्श कर्म नहीं होते यह सिद्धान्त है। “नाकृतेनेह कश्चन” जो मनुष्य , शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि से अपना सम्बन्ध मानता है और आलस्य , प्रमाद आदि में रुचि रखता है वह कर्मों को नहीं करना चाहता क्योंकि उसका प्रयोजन प्रमाद , आलस्य , आराम आदि से उत्पन्न तामस सुख रहता है (गीता 18।39) परन्तु यह महापुरुष जो सात्त्विक सुख से भी ऊँचा उठ चुका है तामस सुख में प्रवृत्त हो ही कैसे सकता है क्योंकि इसका शरीरादि से किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता फिर आलस्य , आराम आदि में रुचि रहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। मार्मिक बात – प्रायः साधक कर्मों के न करने को ही महत्त्व देते हैं। वे कर्मों से उपरत होकर समाधि में स्थित होना चाहते हैं जिससे कोई भी चिन्तन बाकी न रहे। यह बात श्रेष्ठ और लाभप्रद तो है पर सिद्धान्त नहीं है। यद्यपि प्रवृत्ति (करना) की अपेक्षा निवृत्ति (न करना) श्रेष्ठ है तथापि यह तत्त्व नहीं है। प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना) दोनों ही प्रकृति के राज्य में हैं। निर्विकल्प समाधि तक सब प्रकृति का राज्य है क्योंकि निर्विकल्प समाधि से भी व्युत्थान होता है। क्रियामात्र प्रकृति में ही होती है ” प्रकर्षेण करणं इति प्रकृतिः ” और क्रिया हुए बिना व्युत्थान का होना सम्भव ही नहीं। इसलिये चलने , बोलने , देखने , सुनने आदि की तरह सोना , बैठना , खड़ा होना , मौन होना , मूर्च्छित होना और समाधिस्थ होना भी क्रिया है (टिप्पणी प0 142)। वास्तविक तत्त्व (चेतन स्वरूप) में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही नहीं हैं। वह प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का निर्लिप्त प्रकाशक है।शरीर से तादात्म्य होने पर ही (शरीर को लेकर) करना और न करना ये दो विभाग (द्वन्द्व) होते हैं। वास्तव में करना और न करना दोनों की एक ही जाति है। शरीर से सम्बन्ध रखकर न करना भी वास्तव में करना ही है। जैसे गच्छति (जाता है) क्रिया है ऐसे ही तिष्ठति (खड़ा है) भी क्रिया ही है। यद्यपि स्थूल दृष्टि से गच्छति में क्रिया स्पष्ट दिखायी देती है और तिष्ठति में क्रिया नहीं दिखायी देती है तथापि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो जिस शरीर में जाने की क्रिया थी उसी में अब खड़े रहने की क्रिया है। इसी प्रकार किसी काम को करना और न करना इन दोनों में ही क्रिया है। अतः जिस प्रकार क्रियाओं का स्थूल रूप से दिखायी देना (प्रवृत्ति) प्रकृति में ही है उसी प्रकार स्थूल दृष्टि से क्रियाओं का दिखायी न देना (निवृत्ति) भी प्रकृति में ही है। जिसका प्रकृति एवं उसके कार्य से भौतिक तथा आध्यात्मिक और लौकिक तथा पारलौकिक कोई प्रयोजन नहीं रहता उस महापुरुष का करने एवं न करने से कोई स्वार्थ नहीं रहता। जडता के साथ सम्बन्ध रहने पर ही करने और न करने का प्रश्न होता है क्योंकि जडता के सम्बन्ध के बिना कोई क्रिया होती ही नहीं। इस महापुरुष का जडता से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों से अतीत सहज निवृत्त तत्त्व में अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव हो जाता है। अतः साधक को जडता (शरीर में अहंता और ममता ) से सम्बन्ध-विच्छेद करने की ही आवश्यकता है। तत्त्व तो सदा ज्यों का त्यों विद्यमान है ही। “न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः” शरीर तथा संसार से किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध न रहने के कारण उस महापुरुष की समस्त क्रियाएँ स्वतः दूसरों के हित के लिये होती हैं। जैसे शरीर के सभी अङ्ग स्वतः शरीर के हित में लगे रहते हैं ऐसे ही उस महापुरुष का अपना कहलाने वाला शरीर (जो संसार का एक छोटा सा अङ्ग है ) स्वतः संसार के हित में लगा रहता है। उसका भाव और उसकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ संसार के हित के लिये ही होती हैं। जैसे अपने हाथों से अपना ही मुख धोने पर अपने में स्वार्थ , प्रत्युपकार अथवा अभिमान का भाव नहीं आता ऐसे ही अपने कहलाने वाले शरीर के द्वारा संसार का हित होने पर उस महापुरुष में किञ्चित् भी स्वार्थ , प्रत्युपकार अथवा अभिमान का भाव नहीं आता। पूर्वश्लोक में भगवान ने सिद्ध महापुरुष के लिये कहा कि उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है – “तस्य कार्यं न विद्यते”। उसका कारण बताते हुए भगवान ने इस श्लोक में उस महापुरुष के लिये तीन बातें कही हैं (1) कर्म करने से उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता (2) कर्म न करने से भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता और (3) किसी भी प्राणी और पदार्थ से उसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् कुछ पाने से भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता। वस्तुतः स्वरूप में करने अथवा न करने का कोई प्रयोजन नहीं है और किसी व्यक्ति तथा वस्तु के साथ कोई सम्बन्ध भी नहीं है। कारण कि शुद्ध स्वरूप के द्वारा कोई क्रिया होती ही नहीं। जो भी क्रिया होती है वह प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थों के सम्बन्ध से ही होती है। इसलिये अपने लिये कुछ करने का विधान ही नहीं है। जब तक मनुष्य में करने का राग , पाने की इच्छा , जीने की आशा और मरने का भय रहता है तब तक उस पर कर्तव्य का दायित्व रहता है परन्तु जिसमें किसी भी क्रिया को करने अथवा न करने का कोई राग नहीं है , संसार की किसी भी वस्तु आदि को प्राप्त करने की इच्छा नहीं है , जीवित रहने की कोई आशा नहीं है और मृत्यु से कोई भय नहीं है उसे कर्तव्य करना नहीं पड़ता बल्कि उससे स्वतः कर्तव्यकर्म होते रहते हैं। जहाँ अकर्तव्य होने की सम्भावना हो वहीं कर्तव्य पालन की प्रेरणा रहती है। गीता में भगवान की ऐसी शैली रही है कि वे भिन्न-भिन्न साधनों से परमात्मा की ओर चलने वाले साधकों के भिन्न-भिन्न लक्षणों के अनुसार ही परमात्मा को प्राप्त सिद्ध महापुरुषों के लक्षणों का वर्णन करते हैं। यहाँ 17वें और 18वें श्लोकों में भी इसी शैली का प्रयोग किया गया है। जो साधन जहाँ से प्रारम्भ होता है अन्त में वहीं उसकी समाप्ति होती है। गीता में कर्मयोग का प्रकरण यद्यपि दूसरे अध्याय के 39वें श्लोक से प्रारम्भ होता है तथापि कर्मयोग के मूल साधन का विवेचन दूसरे अध्याय के 47वें श्लोक में किया गया है। उस श्लोक (2। 47) के चार चरणों में बताया गया है (1) “कर्मण्येवाधिकारस्ते” (तेरा कर्म करने में ही अधिकार है) (2) “मा फलेषु कदाचन ” (कर्मफलों में तेरा कभी भी अधिकार नहीं है )। (3) ” मा कर्मफलहेतुर्भूः ” (तू कर्मफल का हेतु मत बन)। (4) “मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि” (तेरी कर्म न करने में आसक्ति न हो)। प्रस्तुत श्लोक (3। 18) में ठीक उपर्युक्त साधना की सिद्धि की बात है। वहाँ (2। 47) में दूसरे और तीसरे चरण में साधक के लिये जो बात कही गयी है वह प्रस्तुत श्लोक के उत्तरार्ध में सिद्ध महापुरुष के लिये कही गयी है कि उसका किसी प्राणी और पदार्थ से कोई स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता। वहाँ पहले और चौथे चरण में साधक के लिये जो बात कही गयी है वह प्रस्तुत श्लोकके पूर्वार्धमें सिद्ध महापुरुषके लिये कही गयी है कि उसका कर्म करने अथवा न करने दोनोंसे ही कोई प्रयोजन नहीं रहता। इस प्रकार 17वें और 18वें श्लोकों में कर्मयोग से सिद्ध हुए महापुरुष के लक्षणों का ही वर्णन किया गया है। कर्मयोग के साधन की दृष्टि से वास्तव में 18वाँ श्लोक पहले तथा 17वाँ श्लोक बाद में आना चाहिये। कारण कि जब कर्मयोग से सिद्ध हुए महापुरुष का कर्म करने अथवा न करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा उसका किसी भी प्राणी पदार्थ से किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता। तब उसकी रति , तृप्ति और संतुष्टि अपने आप में ही हो जाती है। परन्तु 16वें श्लोक में भगवान ने “मोघं पार्थ स जीवति ” पदों से कर्तव्यपालन न करने वाले मनुष्य के जीने को निरर्थक बतलाया था अतः 17वें श्लोक में “यः तु ” पद देकर यह बतलाते हैं कि यदि सिद्ध महापुरुष कर्तव्यकर्म नहीं करता तो उसका जीना निरर्थक नहीं है प्रत्युत महान् सार्थक है। कारण कि उसने मनुष्य जन्म के उद्देश्य को पूरा कर लिया है। अतः उसके लिये अब कुछ भी करना शेष नहीं रहा। जिस स्थिति में कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता उस स्थिति को साधारण से साधारण मनुष्य भी प्रत्येक अवस्थामें तत्परता एवं लगनपूर्वक निष्कामभाव से कर्तव्यकर्म करने पर प्राप्त कर सकता है क्योंकि उसकी प्राप्ति में सभी स्वतन्त्र और अधिकारी हैं। कर्तव्य का सम्बन्ध प्रत्येक परिस्थिति से जुड़ा हुआ है। इसलिये प्रत्येक परिस्थिति में कर्तव्य निहित रहता है। केवल सुख लोलुपता से ही मनुष्य कर्तव्य को भूलता है। यदि वह निःस्वार्थभाव से दूसरों की सेवा करके अपनी सुख लोलुपता मिटा डाले तो जीवन के सभी दुःखों से छुटकारा पाकर परम शान्ति को प्राप्ति हो सकता है। इस परम शान्ति की प्राप्ति में सबका समान अधिकार है। संसार के “सर्वोपरि” पदार्थ पद आदि सबको समान रूपसे मिलने सम्भव नहीं हैं किन्तु परम शान्ति सबको समान रूप से ही मिलती है। सम्बन्ध पीछे के दो श्लोकों में वर्णित महापुरुष की स्थिति को प्राप्त करने के लिये साधक को क्या करना चाहिये इस पर भगवान् आगे के श्लोक में साधन बताते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )