Chapter 3 Bhagavad Gita Karm Yog

 

 

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कर्मयोग ~ अध्याय तीन

25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा

 

 

The Bhagavad Gita Chapter 3

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।3.25।।

 

सक्ताः-आसक्त; कर्मणि-नियत कर्तव्य; अविद्वांसः-अज्ञानी; यथा-जिस प्रकार से; कुर्वन्ति-करते है; भारत-भरतवंशी, अर्जुन ; कुर्यात्-करना चाहिए ; विद्वान-बुद्धिमान; तथा – उसी प्रकार से; असक्तः-अनासक्त; चिकीर्षुः-इच्छुक; लोकसंग्रहम्-लोक कल्याण के लिए।

 

हे भरतवंशी! जैसे अज्ञानी लोग फल की आसक्ति की कामना से कर्म करते हैं अर्थात कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं , उसी प्रकार बुद्धिमान मनुष्यों को लोगों को उचित मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करने हेतु अर्थात लोक कल्याण के लिए अनासक्त रहकर या आसक्तिरहित कर्म करना चाहिए॥3 .25॥

 

” सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो तथा कुर्वन्ति भारत जिन मनुष्यों की शास्त्र शास्त्रपद्धति और शास्त्रविहित शुभकर्मों पर पूरी श्रद्धा है एवं शास्त्रविहित कर्मों का फल अवश्य मिलता है इस बात पर पूरा विश्वास है जो न तो तत्त्वज्ञ हैं और न दुराचारी हैं किन्तु कर्मों भोगों एवं पदार्थों में आसक्त हैं , ऐसे मनुष्यों के लिये यहाँ ” सक्ताः अविद्वांसः ” पद आये हैं। शास्त्रों के ज्ञाता होने पर भी केवल कामना के कारण ऐसे मनुष्य अविद्वान् (अज्ञानी) कहे गये हैं। ऐसे पुरुष शास्त्रज्ञ तो हैं पर तत्त्वज्ञ नहीं। ये केवल अपने लिये कर्म करते हैं इसीलिये अज्ञानी कहलाते हैं। ऐसे अविद्वान् मनुष्य कर्मों में कभी प्रमाद , आलस्य आदि न रखकर सावधानी और तत्परतापूर्वक साङ्गोपाङ्ग विधि से कर्म करते हैं क्योंकि उनकी ऐसी मान्यता रहती है कि कर्मों को करने में कोई कमी आ जाने से उनके फल में भी कमी आ जायगी। भगवान उनके इस प्रकार कर्म करने की रीति को आदर्श मानकर सर्वथा आसक्तिरहित विद्वान के लिये भी इसी विधि से लोकसंग्रह के लिये कर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं। “कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्” जिसमें कामना , ममता , आसक्ति , वासना , पक्षपात , स्वार्थ आदि का सर्वथा अभाव हो गया है और शरीरादि पदार्थों के साथ किञ्चिन्मात्र भी लगाव नहीं रहा ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुष के लिये यहाँ “असक्तः विद्वान्” पद आये हैं (टिप्पणी प0 158)। बीसवें श्लोक में “लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन् ” कहकर फिर 21वें श्लोक में जिसकी व्याख्या की गयी उसी को यहाँ लोकसंग्रहं “चिकीर्षुः ” पदों से कहा गया है। श्रेष्ठ मनुष्य (आसक्तिरहित विद्वान्) के सभी आचरण स्वाभाविक ही यज्ञ के लिये मर्यादा सुरक्षित रखने के लिये होते हैं। जैसे भोगी मनुष्य की भोगों में मोही मनुष्य की कुटुम्ब में और लोभी मनुष्य की धन में रति होती है ऐसे ही श्रेष्ठ मनुष्य की प्राणिमात्र के हित में रति होती है। उसके अन्तःकरण में मैं लोकहित करता हूँ ऐसा भाव भी नहीं होता  उसके द्वारा स्वतःस्वाभाविक लोकहित होता है। प्राकृत पदार्थमात्रसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जानेके कारण उस ज्ञानी महापुरुषके कहलानेवाले शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि भी लोकसंग्रह पदमें आये लोक शब्दके अन्तर्गत आते हैं।दूसरे लोगोंको ऐसे ज्ञानी महापुरुष लोकसंग्रहकी इच्छावाले दीखते हैं पर वास्तवमें उनमें लोकसंग्रहकी भी इच्छा नहीं होती। कारण कि वे संसारसे प्राप्त शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि पदार्थ पद अधिकार धनयोग्यता सामर्थ्य आदिको साधनावस्थासे ही कभी किञ्चिन्मात्र भी अपने और अपने लिये नहीं मानते बल्कि  संसार के और संसार की सेवा के लिये ही मानते हैं जो कि वास्तवमें है। वही प्रवाह रहने के कारण सिद्धावस्था में भी उनके कहलाने वाले शरीरादि पदार्थ स्वतःस्वाभाविक किसी प्रकार की इच्छा के बिना संसार की सेवा में लगे रहते हैं। इस श्लोक में यथा और तथा पद कर्म करने के प्रकार के अर्थ में आये हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार अज्ञानी (सकाम) पुरुष अपने स्वार्थ के लिये सावधानी और तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी लोकसंग्रह अर्थात् दूसरों के हित के लिये कर्म करे। ज्ञानी पुरुष को प्राणिमात्र के हितका भाव रखकर सम्पूर्ण लौकिक और वैदिक कर्तव्यकर्मों का आचरण करते रहना चाहिये। सबका कल्याण कैसे हो इस भावसे कर्तव्यकर्म करने पर लोकमें अच्छे भावोंका प्रचार स्वतः होता है।अज्ञानी पुरुष तो फलकी प्राप्तिके लिये सावधानी और तत्परतासे विधिपूर्वक कर्तव्यकर्म करता है पर ज्ञानी पुरुष की फल में आसक्ति नहीं होती और उसके लिये कोई कर्तव्य भी नहीं होता। अतः उसके द्वारा कर्मकी उपेक्षा होना सम्भव है। इसीलिये भगवान् कर्म करने के विषय में ज्ञानी पुरुष को भी अज्ञानी (सकाम) पुरुष की ही तरह कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं। 21वें श्लोक में तो विद्वान को आदर्श बताया गया था पर यहाँ उसे अनुयायी बताया है। तात्पर्य यह है कि विद्वान् चाहे आदर्श हो अथवा अनुयायी उसके द्वारा स्वतः लोगसंग्रह होता है। जैसे भगवान श्रीराम प्रजा को उपदेश भी देते हैं और पिताजी की आज्ञा का पालन करके वनवास भी जाते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में उनके द्वारा लोकसंग्रह होता है क्योंकि उनका कर्मों के करने अथवा न करनेसे अपना कोई प्रयोजन नहीं था। जब विद्वान् आसक्तिरहित होकर कर्तव्यकर्म करता है तब आसक्तियुक्त चित्तवाले पुरुषों के अन्तःकरण पर भी विद्वान के कर्मों का स्वतः प्रभाव पड़ता है चाहे उन पुरुषों को यह महापुरुष निष्कामभाव से कर्म कर रहा है ऐसा प्रत्यक्ष दिखे या न दिखे । मनुष्य के निष्कामभावों का दूसरों पर स्वाभाविक प्रभाव पड़ता है यह सिद्धान्त है। इसलिये आसक्तिरहित विद्वान के भावों आचरणों का प्रभाव मनुष्यों पर ही नहीं अपितु पशु-पक्षी आदि पर भी पड़ता है। मनुष्य जब तक निष्कामभावपूर्वक विहितकर्म नहीं करता तब तक उसका जन्म-मरण नहीं मिट सकता। वह जब तक अपने लिये कर्म करता है तब तक वह कृतकृत्य नहीं होता अर्थात् उसका करना समाप्त नहीं होता। कारण कि स्वयं नित्य रहने वाला है और कर्म एवं उसका फल नष्ट होने वाला है। अतः प्रत्येक मनुष्य के लिये स्वार्थत्यागपूर्वक (अपने लिये न करके केवल दूसरों के हित के लिये) कर्तव्यकर्म करने की बड़ी भारी आवश्यकता है। सांसारिक पदार्थों को मूल्यवान समझने के कारण ही कर्मयोग (निष्कामभावपूर्वक कर्तव्यकर्म ) के पालन में कठिनाई प्रतीत होती है। हमें दूसरों से कुछ न चाहकर केवल दूसरों के हित के लिये सब कर्म करने हैं , इस बात को यदि स्वीकार कर लें तो आज ही कर्मयोग का पालन सुगम हो जाय। वास्तव में महत्ता पदार्थ की नहीं बल्कि आचरण (उसके उपयोग) की ही होती है। आचरण की महत्ता भी तब है जब अन्तःकरण में पदार्थ की महत्ता न हो। कोई भी पदार्थ व्यक्तिगत नहीं है केवल उपयोग के लिये ही व्यक्तिगत है। पदार्थ को व्यक्तिगत मानने से ही परहित के लिये उसका त्याग कठिन प्रतीत होता है। कोई भी पदार्थ या क्रिया बन्धनकारक नहीं उनका सम्बन्ध ही बन्धनकारक है। विद्वान् पुरुषों से भी लोकसंग्रह के लिये सब कर्म होते हैं परन्तु ऐसा होते हुए भी उनमें मैं लोगसंग्रह कर रहा हूँ यह अभिमान नहीं रहता। कारण यह है कि शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , विद्या , योग्यता , पद आदि सब संसार के हैं और संसार से मिले हैं। संसार से मिली सामग्री को संसार की ही सेवा में लगा देना ईमानदारी है। उस सामग्री को बहुत सच्चाई से ईमानदारी से संसार के अर्पण कर देना है। यह अर्पण करना कोई बड़ा काम नहीं है। जैसे किसी ने हमारे पास धरोहर रूप से रुपये रखे और कुछ समय बाद उसके माँगने पर हमने उसके रुपये उसे वापस कर दिये तो कौन सा बड़ा काम किया , हाँ हमारा दायित्व समाप्त हो गया हम ऋणमुक्त हो गये। इसी प्रकार संसार की वस्तु संसार के अर्पण कर देने से हमारा दायित्व समाप्त हो जाता है , हम ऋणमुक्त हो जाते हैं , जन्म-मरण के बन्धन से सदा के लिये छूट जाते हैं। इसलिये सांसारिक पदार्थों को संसार की सेवा में लगाकर कोई दान-पुण्य नहीं करना है बल्कि उन पदार्थों से अपना पिण्ड छुड़ाना है- स्वामी रामसुखदास जी 

   

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