कर्मयोग ~ अध्याय तीन
25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥3 .28॥
तत्ववित्-सत्य को जानने वाला; तु–लेकिन; महाबाहो-विशाल भुजाओं वाला; गुण-कर्म-गुणों और कर्मों से; विभागयोः-भेद; गुणा:-मन और इन्द्रियों आदि के रूप में प्रकृति के तीन गुण; गुणेषु–इन्द्रिय विषयों के बोध के रूप में प्रकृति के गुण; वर्तन्ते-लगे रहते हैं; इति–इस प्रकार; मत्वा-जानकर; न-कभी नहीं; सज्जते-आसक्त होते हैं।
हे महाबाहु अर्जुन! तत्त्वज्ञानी ( सत्य को जानने वाले महापुरुष ) आत्मा को गुणों ( गुण विभाग ) और कर्मों ( कर्म विभाग ) से भिन्न समझते हैं। वे जानते हैं कि ‘ मन और इन्द्रियों आदि के रूप में केवल प्रकृति के तीन गुण ही हैं जो इन्द्रिय विषयों में संचालित होते हैं अर्थात वे यह जानते हैं की गुण ही गुणों में बरत रहे हैं और ऐसा जान कर वे उनमें नहीं फंसते।।3 .28।।
[गुण विभाग और कर्म विभाग (त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन सबके समुदाय का नाम ‘गुण विभाग’ है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम ‘कर्म विभाग’ है।) के तत्व (उपर्युक्त ‘गुण विभाग’ और ‘कर्म विभाग’ से आत्मा को पृथक अर्थात् निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ॥28॥]
( ” तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ” पूर्वश्लोक में वर्णित ‘अहंकारविमूढात्मा ‘ (अहंकार से मोहित अन्तःकरण वाले पुरुष ) से ‘तत्त्वज्ञ महापुरुष’ को सर्वथा भिन्न और विलक्षण बताने के लिये यहाँ ‘तु’ पद का प्रयोग हुआ है। सत्त्व , रज और तम ये तीनों गुण प्रकृतिजन्य हैं। इन तीनों गुणों का कार्य होने से सम्पूर्ण सृष्टि त्रिगुणात्मिका है। अतः शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राणी , पदार्थ आदि सब गुणमय ही हैं। यही गुणविभाग कहलाता है। इन (शरीरादि) से होने वाली क्रिया ‘कर्मविभाग’ कहलाती है। गुण और कर्म अर्थात् पदार्थ और क्रियाएँ निरन्तर परिवर्तनशील हैं। पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं तथा क्रियाएँ आरम्भ और समाप्त होने वाली हैं। ऐसा ठीक-ठीक अनुभव करना ही गुण और कर्मविभाग को तत्त्व से जानना है। चेतन (स्वरूप) में कभी क्रिया नहीं होती। वह सदा निर्लिप्त निर्विकार रहता है अर्थात् उसका किसी भी प्राकृत पदार्थ और क्रिया से सम्बन्ध नहीं होता। ऐसा ठीक-ठीक अनुभव करना ही चेतन को तत्त्व से जानना है। अज्ञानी पुरुष जब इन गुणविभाग और कर्मविभाग से अपना सम्बन्ध मान लेता है तब वह बँध जाता है। शास्त्रीय दृष्टि से तो इस बन्धन का मुख्य कारण अज्ञान है पर साधक की दृष्टि से राग ही मुख्य कारण है। राग अविवेक से होता है। विवेक जाग्रत् होने पर राग नष्ट हो जाता है। यह विवेक मनुष्य में विशेषरूप से है। आवश्यकता केवल इस विवेक को महत्त्व देकर जाग्रत् करने की है। अतः साधक को (विवेक जाग्रत् करके) विशेष रूप से राग को ही मिटाना चाहिये। तत्त्व को जानने की इच्छा रखने वाला साधक भी अगर गुण (पदार्थ) और कर्म (क्रिया) से अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता तो वह भी गुणविभाग और कर्मविभाग को तत्त्व से जान लेता है। चाहे गुणविभाग और कर्मविभाग को तत्त्व से जाने चाहे स्वयं (चेतनस्वरूप) को तत्त्व से जाने दोनों का परिणाम एक ही होगा।गुणकर्मविभाग को तत्त्व से जानने का उपाय — 1) शरीर में रहते हुए भी चेतनतत्त्व (स्वरूप) सर्वथा अक्रिय और निर्लिप्त रहता है (गीता 13। 31)। प्रकृति का कार्य (शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि ) इदम् (यह) कहा जाता है। इदम् (यह) कभी अहम् (मैं) नहीं होता। जब यह (शरीरादि) मैं नहीं है तब यह में होने वाली क्रिया मेरी कैसे हुई ? तात्पर्य है कि शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि सब प्रकृति के कार्य हैं और स्वयं इनसे सर्वथा असम्बद्ध और निर्लिप्त है। अतः इनमें होने वाली क्रियाओं का कर्ता स्वयं कैसे हो सकता है ? इस प्रकार अपने को पदार्थ एवं क्रियाओं से अलग अनुभव करने वाला बन्धन में नहीं पड़ता। सब अवस्थाओं में “नैव किञ्चित्करोमीति ” (गीता 5। 8) मैं कुछ भी नहीं करता हूँ , ऐसा अनुभव करना ही अपने को क्रियाओं से अलग जानना अर्थात् अनुभव करना है। 2) देखना-सुनना , खाना-पीना आदि सब क्रियाएँ हैं और देखने-सुनने आदि के विषय खाने-पीने की सामग्री आदि सब पदार्थ हैं। इन क्रियाओं और पदार्थों को हम इन्द्रियों (आँख , कान , मुँह आदि से ) जानते हैं। इन्द्रियों को मन से मन को बुद्धि से और बुद्धि को माने हुए अहम् (मैंपन) से जानते हैं। यह अहम् भी एक सामान्य प्रकाश (चेतन) से प्रकाशित होता है। वह सामान्य प्रकाश ही सबका ज्ञाता सबका प्रकाशक और सबका आधार है। अहम् से परे अपने स्वरूप (चेतन) को कैसे जानें ? गाढ़ निद्रा में यद्यपि बुद्धि अविद्या में लीन हो जाती है फिर भी मनुष्य जागने पर कहता है कि मैं बहुत सुख से सोया। इस प्रकार जागने के बाद मैं हूँ का अनुभव सबको होता है। इससे सिद्ध होता है कि सुषुप्तिकाल में भी अपनी सत्ता थी। यदि ऐसा न होता तो मैं बहुत सुख से सोया मुझे कुछ भी पता नहीं था ऐसी स्मृति या ज्ञान नहीं होता। स्मृति अनुभवजन्य होती है (टिप्पणी प0 163.1)। अतएव सबको प्रत्येक अवस्था में अपनी सत्ता का अखण्ड अनुभव होता है। किसी भी अवस्था में अपने अभाव का ( मैं नहीं हूँ इसका ) अनुभव नहीं होता। जिन्होंने माने हुए अहम् (मैंपन) से भी सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूप (है ) का बोध कर लिया है वे तत्त्ववित् कहलाते हैं।अपरिवर्तनशील परमात्मतत्त्व के साथ हमारा स्वतःसिद्ध नित्य सम्बन्ध है। परिवर्तनशील प्रकृति के साथ हमारा सम्बन्ध वस्तुतः है नहीं केवल माना हुआ है। प्रकृति से माने हुए सम्बन्ध को यदि विचार के द्वारा मिटाते हैं तो उसे ज्ञानयोग कहते हैं और यदि वही सम्बन्ध परहितार्थ कर्म करते हुए मिटाते हैं तो उसे कर्मयोग कहते हैं। प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ही योग (परमात्मा से नित्यसम्बन्ध का अनुभव ) होता है अन्यथा केवल ज्ञान और कर्म ही होता है। अतः प्रकृति से सम्बन्धविच्छेदपूर्वक परमात्मा से अपने नित्यसम्बन्ध को पहचानने वाला ही तत्त्ववित् है। “गुणा गुणेषु वर्तन्ते ” प्रकृतिजन्य गुणों से उत्पन्न होने के कारण शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि भी गुण ही कहलाते हैं और इन्हीं से सम्पूर्ण कर्म होते हैं। अविवेक के कारण अज्ञानी पुरुष इन गुणों के साथ अपना सम्बन्ध मानकर इनसे होने वाली क्रियाओं का कर्ता अपने को मान लेता है (टिप्पणी प0 163.2)। परन्तु स्वयं (सामान्य प्रकाश चेतन) में अपनी स्वतःसिद्ध स्थिति का अनुभव होने पर ‘मैं कर्ता हूँ ‘ ऐसा भाव आ ही नहीं सकता।रेलगाड़ी का इंजन चलता है अर्थात् उसमें क्रिया होती है परन्तु खींचने की शक्ति इंजन और चालक के मिलने से आती है। वास्तव में खींचने की शक्ति तो इंजन की ही है पर चालक के द्वारा संचालन करने पर ही वह गन्तव्य स्थान पर पहुँच पाता है। कारण कि इंजन में इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि नहीं हैं इसलिये उसे इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि वाले चालक (मनुष्य ) की जरूरत पड़ती है परन्तु मनुष्य के पास शरीररूप इंजन भी है और संचालन के लिये इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि भी। शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि ये चारों एक सामान्य प्रकाश (चेतन) से सत्तास्फूर्ति पाकर भी कार्य करने में समर्थ होते हैं। सामान्य प्रकाश (ज्ञान) का प्रतिबिम्ब बुद्धि में आता है , बुद्धि के ज्ञान को मन ग्रहण करता है , मन के ज्ञान को इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं और फिर शरीररूप इंजन का संचालन होता है। बुद्धि , मन , इन्द्रियाँ , शरीर ये सब के सब गुण हैं और इन्हें प्रकाशित करने वाला अर्थात् इन्हें सत्तास्फूर्ति देने वाला स्वयं इन गुणों से असम्बद्ध निर्लिप्त रहता है। अतः वास्तव में सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं। श्रेष्ठ पुरुष के आचरणों का सब लोग अनुसरण करते हैं। इसीलिये भगवान् ज्ञानी महापुरुष के द्वारा लोकसंग्रह कैसे होता है इसका वर्णन करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार वह महापुरुष सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं ऐसा अनुभव करके उनमें आसक्त नहीं होता उसी प्रकार साधक को भी वैसा ही मानकर उनमें आसक्त नहीं होना चाहिये। प्रकृतिपुरुषसम्बन्धी मार्मिक बात-आकर्षण सदा सजातीयता में ही होता है जैसे कानों का शब्द में , त्वचा का स्पर्श में , नेत्रों का रूप में , जिह्वा का रस में और नासिका का गन्ध में आकर्षण होता है। इस प्रकार पाँचों इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों में ही आकर्षण होता है। एक इन्द्रिय का दूसरी इन्द्रिय के विषय में कभी आकर्षण नहीं होता। तात्पर्य यह है कि एक वस्तु का दूसरी वस्तु के प्रति आकर्षण होने में मूल कारण उन दोनों की सजातीयता ही है। आकर्षण , प्रवृत्ति एवं प्रवृत्ति की सिद्धि सजातीयता में ही होती है। विजातीय वस्तुओं में न तो आकर्षण होता है , न प्रवृत्ति होती है , न प्रवृत्ति की सिद्धि ही होती है इसलिये आकर्षण , प्रवृत्ति और प्रवृत्ति की सिद्धि सजातीयता के कारण प्रकृति में ही होती है परन्तु पुरुष (चेतन) में विजातीय प्रकृति (जड) का जो आकर्षण प्रतीत होता है उसमें भी वास्तव में प्रकृति का अंश ही प्रकृति की ओर आकर्षित होता है। करने और भोगने की क्रिया प्रकृति में ही है पुरुष में नहीं। पुरुष तो सदा निर्विकार , नित्य , अचल तथा एकरस रहता है। 13वें अध्याय के 31वें श्लोक में भगवान ने बताया है कि शरीर में स्थित होने पर भी पुरुष वस्तुतः न तो कुछ करता है और न लिप्त होता है “शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते “। पुरुष तो केवल प्रकृतिस्थ होने अर्थात् प्रकृति से तादात्म्य मानने के कारण सुख-दुःखों के “भोक्तृत्व ” में हेतु कहा जाता है – “पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ” (गीता 13। 20) और “पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्” (गीता 13। 21)। तात्पर्य यह है कि यद्यपि सम्पूर्ण क्रियाएँ , क्रियाओं की सिद्धि और आकर्षण प्रकृति में ही होता है तथापि प्रकृति से तादात्म्य के कारण पुरुष मैं सुखी हूँ , मैं दुःखी हूँ ऐसा मानकर भोक्तृत्व में हेतु बन जाता है। कारण कि सुखी-दुःखी होने का अनुभव प्रकृति (जड) में हो ही नहीं सकता। प्रकृति (जड) के बिना केवल पुरुष (चेतन) सुख-दुःख का भोक्ता बन ही नहीं सकता। पुरुष में प्रकृति की परिवर्तनरूप क्रिया या विकार नहीं है परन्तु उसमें सम्बन्ध मानने अथवा न मानने की योग्यता तो है ही। वह पत्थर की तरह जड नहीं बल्कि ज्ञानस्वरूप है। यदि पुरुष में सम्बन्ध मानने अथवा न मानने की योग्यता नहीं होती तो वह प्रकृति से अपना सम्बन्ध कैसे मानता ? प्रकृति से सम्बन्ध मानकर उसकी क्रिया को अपने में कैसे मानता ? और अपने में कर्तृत्व-भोक्तृत्व कैसे स्वीकार करता ? सम्बन्ध को मानना अथवा न मानना भाव है क्रिया नहीं। पुरुष में सम्बन्ध जोड़ने अथवा न जोड़ने की योग्यता तो है पर क्रिया करने की योग्यता उसमें नहीं है। क्रिया करने की योग्यता उसी में होती है जिसमें परिवर्तन (विकार) होता है। पुरुष में परिवर्तन का स्वभाव नहीं है जबकि प्रकृति में परिवर्तन का स्वभाव है अर्थात् प्रकृति में क्रियाशीलता स्वाभाविक है। इसलिये प्रकृति से सम्बन्ध जोड़ने पर ही पुरुष अपने में क्रिया मान लेता है “कर्ताहमिति मन्यते” (गीता 3। 27)। पुरुष में कोई परिवर्तन नहीं होता यह (परिवर्तन का न होना) उसकी कोई अशक्तता या कमी नहीं है बल्कि उसकी महत्ता है। वह निरन्तर एकरस एकरूप रहने वाला है। परिवर्तन होना उसका स्वभाव ही नहीं है जैसे बर्फ में गरम होने का स्वभाव या योग्यता नहीं है। परिवर्तनरूप क्रिया होना प्रकृति का स्वाभाव है पुरुष का नहीं परन्तु प्रकृति से अपना सम्बन्ध न मानने की इसमें पूरी योग्यता , सामर्थ्य , स्वतन्त्रता है क्योंकि वास्तव में प्रकृति से सम्बन्ध मूल में नहीं है। प्रकृति के अंश शरीर को पुरुष जब अपना स्वरूप मान लेता है तब प्रकृति के उस अंश में (सजातीय प्रकृति का) आकर्षण क्रियाएँ और उनके फल की प्राप्ति होती रहती है। इसीका संकेत यहाँ “गुणाः गुणेषु वर्तन्ते” पदों से किया गया है। गुणों में अपनी स्थिति मानकर पुरुष (चेतन) सुखी-दुःखी होता रहता है। वास्तव में सुख-दुःख की पृथक् सत्ता नहीं है। इसलिये भगवान् गुणों से माने हुए सम्बन्ध का विच्छेद करने के लिये विशेष जोर देते हैं। तात्त्विक दृष्टि से देखा जाय तो सम्बन्ध-विच्छेद पहले से (सदा से ) ही है। केवल भूल से सम्बन्ध माना हुआ है। अतः माने हुए सम्बन्ध को अस्वीकार करके केवल गुण ही गुणों में बरत रहे हैं इस वास्तविकता को पहचानना है। “इति मत्वा न सज्जते” यहाँ “मत्वा ” पद जानने के अर्थ में आया है। तत्त्वज्ञ महापुरुष प्रकृति (जड) और पुरुष (चेतन) को स्वाभाविक ही अलग-अलग जानता है। इसलिये वह प्रकृतिजन्य गुणों में आसक्त नहीं होता। भगवान् ‘मत्वा ‘ पद का प्रयोग करके मानो साधकों को यह आज्ञा देते हैं कि वे भी प्रकृतिजन्य गुणों को अलग मानकर उनमें आसक्त न हों। विशेष बात- कर्मयोगी और सांख्ययोगी दोनों की साधना प्रणाली में एकता नहीं होती। कर्मयोगी गुणों (शरीरादि) से मानी हुई एकता को मिटाने की चेष्टा करता है इसलिये श्रीमद्भागवत में “कर्मयोगस्तु कामिनाम्” (11। 20। 7) कहा गया है। भगवान ने भी इसीलिये कर्मयोगी के लिये कर्म करने की आवश्यकता पर विशेष जोर दिया है जैसे कर्मों का आरम्भ किये बिना मनुष्य निष्कर्मता को प्राप्त नहीं होता (गीता 3। 4) योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिये कर्म करना ही हेतु कहा जाता है (गीता 6। 3)। कर्मयोगी कर्मों को तो करता है पर उनको अपने लिये नहीं प्रत्युत दूसरों के हित के लिये ही करता है इसलिये वह उन कर्मों का भोक्ता नहीं बनता। भोक्ता न बनने से अर्थात् भोक्तृत्व का नाश होने से कर्तव्य का नाश स्वतः हो जाता है। तात्पर्य यह है कर्तृत्व में जो कर्तापन है वह फल के लिये ही है। फल का उद्देश्य न रहने पर कर्तृत्व नहीं रहता। इसलिये वास्तव में कर्मयोगी भी कर्ता नहीं बनता। सांख्ययोगी में विवेक विचार की प्रधानता रहती है। वह प्रकृतिजन्य गुण ही गुणों में बरत रहे हैं । ऐसा जानकर अपने को उन क्रियाओं का कर्ता नहीं मानता। इसी बात को भगवान् आगे 13वें अध्याय के 29वें श्लोक में कहेंगे कि जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और स्वयं (आत्मा) को अकर्ता देखता है वही यथार्थ देखता है। इस प्रकार सांख्य योगी कर्तृत्व का नाश करता है। कर्तृत्व का नाश होने पर भोक्तृत्व का नाश स्वतः हो जाता है।तीसरे अध्याय के आरम्भ से ही भगवान ने कई उदाहरणों एवं दृष्टिकोणों से कर्म करने पर ही जोर दिया है जैसे जनकादि महापुरुष भी निष्कामभाव से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं (3। 20) मैं भी कर्म करता हूँ (3।22) ज्ञानी महापुरुष भी अज्ञानी पुरुषों के समान लोकसंग्रहार्थ कर्म करता है (3। 2526)। इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक दृष्टि से कर्म करना ही श्रेयस्कर है – स्वामी रामसुखदास जी )