कर्मयोग ~ अध्याय तीन
25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥3 .30॥
मयि–मुझमें; सर्वाणि-सब प्रकार के ; कर्माणि-कर्म को; सन्यस्य-पूर्ण त्याग करके; अध्यात्मचेतसा-भगवान में स्थित होने की भावना; निराशी:-कर्म फल की लालसा से रहित, निर्ममः-स्वामित्व की भावना से रहित; भूत्वा-होकर; युध्यस्व-लड़ो; विगत-ज्वरः-मानसिक ताप के बिना।
अपने समस्त कर्मों को मुझको अर्पित करके और परमात्मा के रूप में निरन्तर मेरा ध्यान करते हुए अर्थात मुझमें स्थित होकर कामना, ममता , संताप, स्वार्थ , स्वामित्व की भावना और कर्म फल की लालसा से रहित होकर अपने मानसिक दुखों को त्याग कर युद्ध करो।।3 .30।।
‘मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा’ प्रायः साधक का यह विचार रहता है कि कर्मों से बन्धन होता है और कर्म किये बिना कोई रह सकता नहीं इसलिये कर्म करने से तो मैं बँध जाऊँगा अतः कर्म किस प्रकार करने चाहिये जिससे कर्म बन्धनकारक न हों बल्कि मुक्तिदायक हो जायँ इसके लिये भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तू अध्यात्मचित्त (विवेकविचारयुक्त अन्तःकरण) से सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को मेरे अर्पण कर दे अर्थात् इनसे अपना कोई सम्बन्ध मत मान। कारण कि वास्तव में संसारमात्र की सम्पूर्ण क्रियाओं में केवल मेरी शक्ति ही काम कर रही है। शरीर , इन्द्रियाँ , पदार्थ आदि भी मेरे हैं और शक्ति भी मेरी है। इसलिये सब कुछ भगवान का है और भगवान अपने हैं गम्भीरतापूर्वक ऐसा विचार करके जब तू कर्वव्यकर्म करेगा तब वे कर्म तेरे को बाँधने वाले नहीं होंगे बल्कि उद्धार करने वाले हो जायँगे। शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ आदि पर अपना कोई अधिकार नहीं चलता यह मनुष्यमात्र का अनुभव है। ये सब प्रकृति के हैं । प्रकृति , स्थानि और स्वयं परमात्मा का है ‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता 15। 7)। अतः शरीरादि पदार्थों में भूल से माने हुए , अपनेपन को हटाकर इनको भगवान का ही मानना (जो कि वास्तव में है) अर्पण कहलाता है। अतः अपने विवेक को महत्त्व देकर पदार्थों और कर्मों से मूर्खतावश माने हुए सम्बन्ध का त्याग करना ही अर्पण करने का तात्पर्य है। ‘अध्यात्मचेतसा’ पद से भगवान का यह तात्पर्य है कि किसी भी मार्ग का साधक हो उसका उद्देश्य आध्यात्मिक होना चाहिये लौकिक नहीं। वास्तवमें उद्देश्य या आवश्यकता सदैव नित्यतत्त्व की (आध्यात्मिक) होती है और कामना सदैव अनित्यतत्त्व (उत्पत्ति विनाशशील वस्तु) की होती है। साधक में उद्देश्य होना चाहिये कामना नहीं। उद्देश्यवाला अन्तःकरण विवेक-विचार युक्त ही रहता है। दार्शनिक अथवा वैज्ञानिक किसी भी दृष्टि से यह सिद्ध नहीं हो सकता कि शरीरादि भौतिक पदार्थ अपने हैं। वास्तव में ये पदार्थ अपने और अपने लिये हैं ही नहीं प्रत्युत केवल सदुपयोग करने के लिये मिले हुए हैं। अपने न होनेके कारण ही इनपर किसीका आधिपत्य नहीं चलता।संसारमात्र परमात्माका है परन्तु जीव भूलसे परमात्माकी वस्तुको अपनी मान लेता है और इसीलिये बन्धन में पड़ जाता है। अतः विवेकविचार के द्वारा इस भूल को मिटाकर सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मों को अध्यात्मतत्त्व (परमात्मा) का स्वीकार कर लेना ही अध्यात्मचित्त के द्वारा उनका अर्पण करना है। इस श्लोक में अध्यात्मचेतसा पद मुख्यरूपसे आया है। तात्पर्य यह है कि अविवेकसे ही उत्पत्तिविनाशशील शरीर (संसार) अपना दीखता है। यदि विवेकविचारपूर्वक देखा जाय तो शरीर या संसार अपना नहीं दिखेगा बल्कि एक अविनाशी परमात्मतत्त्व ही अपना दिखेगा। संसार को अपना देखना ही पतन है और अपना न देखना ही उत्थान ‘हैद्वयक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्।ममेति च भवेन्मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम्।।’ (महा0 शान्ति0 13। 4 आश्वमेधिक0 51। 29) दो अक्षरों का मम (यह मेरा है ऐसा भाव) मृत्यु है और तीन अक्षरों का न मम (यह मेरा नहीं है ऐसा भाव) अमृत सनातन ब्रह्म है। अर्पण सम्बन्धी विशेष बात भगवान ने ‘मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य’ पदों से सम्पूर्ण कर्मों को अर्पण करने की बात इसलिये कही है कि मनुष्य ने करण (शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण) , उपकरण (कर्म करने में उपयोगी सामग्री) तथा क्रियाओं को भूलसे अपनी और अपने लिये मान लिया जो कभी इसके थे नहीं , हैं नहीं , होंगे नहीं और हो सकते भी नहीं। उत्पत्तिविनाशवाली वस्तुओं से अविनाशी का क्या सम्बन्ध अतः कर्मों को चाहे संसार के अर्पण कर दे चाहे प्रकृति के अर्पण कर दे और चाहे भगवान के अर्पण कर दे तीनों का एक ही नतीजा होगा क्योंकि संसार प्रकृति का कार्य है और भगवान प्रकृति के स्वामी हैं। इस दृष्टि से संसार और प्रकृति दोनों भगवान्के हैं। अतः मैं भगवान का हूँ और मेरी कहलाने वाली मात्र वस्तुएँ भगवान की हैं । इस प्रकार सब कुछ भगवान के अर्पण कर देना चाहिये अर्थात् अपनी ममता उठा देनी चाहिये। ऐसा करने के बाद फिर साधक को संसार या भगवान से कुछ भी चाहना नहीं पड़ता क्योंकि जो उसे चाहिये उसकी व्यवस्था भगवान स्वतः करते हैं। अपर्ण करने के बाद फिर शरीरादि पदार्थ अपने प्रतीत नहीं होने चाहिये। यदि अपने प्रतीत होते हैं तो वास्तव में अर्पण हुआ ही नहीं। इसीलिये भगवान ने विवेकविचारयुक्त चित्त से अर्पण करने के लिये कहा है जिससे यह वास्तविकता ठीक तरह से समझ में आ जाय कि ये पदार्थ भगवान के ही हैं अपने हैं ही नहीं।भगवान के अर्पण की बात ऐसी विलक्षण है कि किसी तरहसे (उकताकर भी) अर्पण किया जाय तो भी लाभ ही लाभ है। कारण कि कर्म और वस्तुएँ अपनी हैं ही नहीं। कर्मों को करने के बाद भी उनका अर्पण किया जा सकता है पर वास्तविक अर्पण पदार्थों और कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ही होता है। पदार्थों और कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद तभी होता है जब यह बात ठीक-ठीक अनुभव में आ जाय कि करण , (शरीरादि) उपकरण (सांसारिक पदार्थ) , कर्म और स्वयं ये सब भगवान के ही हैं। साधक से प्रायः यह भूल होती है कि वह उपकरणों को तो भगवान का मानने की चेष्टा करता है पर करण तथा स्वयं भी भगवान के हैं इस पर ध्यान नहीं देता। इसीलिये उसका अर्पण अधूरा रह जाता है। अतः साधक को करण उपकरण , क्रिया और स्वयं सभी को एकमात्र भगवान का ही मान लेना चाहिये जो वास्तव में उन्हीं के हैं। कर्मों और पदार्थों का स्वरूप से त्याग करना अर्पण नहीं है। भगवान की वस्तु को भगवान की ही मानना वास्तविक अर्पण है। जो मनुष्य वस्तुओं को अपनी मानते हुए भगवान के अर्पण करता है उसके बदले में भगवान बहुत वस्तुएँ देते हैं जैसे पृथ्वी में जितने बीज बोये जायँ उससे कई गुणा अधिक अन्न पृथ्वी देती है पर कई गुणा मिलने पर भी वह सीमित ही मिलता है परन्तु जो वस्तु को अपनी न मानकर (भगवान की ही मानते हुए) भगवान के अर्पण करता है भगवान उसे अपने आप को देते हैं और ऋणी भी हो जाते हैं। तात्पर्य है कि वस्तु को अपनी मानकर देने से (अन्तःकरण में वस्तु का महत्त्व होनेसे) उस वस्तु का मूल्य वस्तु में ही मिलता है और अपनी न मानकर देने से स्वयं भगवान मिलते हैं। वास्तविक अर्पण से भगवान अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि अर्पण करने से भगवान को कोई सहायता मिलती है परन्तु अर्पण करने वाला कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है और इसी में भगवान की प्रसन्नता है। जैसे छोटा बालक आँगन में पड़ी हुई चाबी पिताजी को सौंप देता है तो पिताजी प्रसन्न हो जाते हैं जबकि छोटा बालक भी पिताजी का है , आँगन भी पिताजी का है और चाबी भी पिताजी की है पर वास्तव में पिताजी चाबी के मिलने से नहीं बल्कि बालक का (देने का) भाव देखकर प्रसन्न होते हैं और हाथ ऊँचा करके बालक से कहते हैं कि तू इतना बड़ा हो जा अर्थात् उसे अपने से भी ऊँचा (बड़ा) बना लेते हैं। इसी प्रकार सम्पूर्ण पदार्थ शरीर तथा शरीरी (स्वयं) भगवान के ही हैं अतः उन पर से अपनापन हटाने और उन्हें भगवान के अर्पण करने का भाव देखकर ही वे (भगवान्) प्रसन्न हो जाते हैं और उसके ऋणी हो जाते हैं। कामना सम्बन्धी विशेष बात – परमात्मा ने मनुष्यशरीर की रचना बड़े विचित्र ढंग से की है। मनुष्य के जीवननिर्वाह और साधन के लिये जो-जो आवश्यक सामग्री है वह उसे प्रचुर मात्रा में प्राप्त है। उसमें भगवत्प्रदत्त विवेक भी विद्यमान है। उस विवेक को महत्त्व न देकर जब मनुष्य प्राप्त वस्तुओं का ठीक-ठीक सदुपयोग नहीं करता प्रत्युत उन्हें अपना मानकर अपने लिये उनका उपयोग करता है एवं प्राप्त वस्तुओं में ममता तथा अप्राप्त वस्तुओं की कामना करने लगता है तब वह जन्म-मरण के बन्धन में बँध जाता है। वर्तमान में जो वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति , घटना , योग्यता , शक्ति , शरीर , इन्द्रियाँ , मन , प्राण , बुद्धि आदि मिले हुए दिखते हैं वे पहले भी हमारे पास नहीं थे और बाद में भी सदा हमारे पास नहीं रहेंगे क्योंकि वे कभी एकरूप नहीं रहते प्रतिक्षण बदलते रहते हैं इस वास्तविकता को मनुष्य जानता है। यदि मनुष्य जैसा जानता है वैसा ही मान ले और वैसा ही आचरण में ले आये तो उसका उद्धार होनेमें किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं है। जैसा जानता है वैसा मान लेने का तात्पर्य यह है कि शरीरादि पदार्थोंको अपना और अपने लिये न माने उनके आश्रित न रहे और उन्हें महत्त्व देकर उनकी पराधीनता स्वीकार न करे। पदार्थोंको महत्त्व देना महान् भूल है। उनकी प्राप्ति से अपने को कृतार्थ मानना महान बन्धन है। नाशवान पदार्थों को महत्त्व देने से ही उनकी नयी-नयी कामनाएँ उत्पन्न होती हैं। कामना सम्पूर्ण पापों , तापों , दुःखों , अनर्थों , नरकों आदि की जड़ है। कामना से पदार्थ मिलते नहीं और प्रारब्धवशात् मिल भी जायँ तो टिकते नहीं। कारण कि पदार्थ आने-जाने वाले हैं और स्वयं सदा रहनेवाला है। अतः कामनाका त्याग करके मनुष्य को कर्तव्यकर्म का पालन करना चाहिये। यहाँ शङ्का हो सकती है कि कामना के बिना कर्मों में प्रवृत्ति कैसे होगी इसका समाधान यह है कि कामना की पूर्ति और निवृत्ति दोनों के लिये कर्मों में प्रवृत्ति होती है। साधारण मनुष्य कामना की पूर्ति के लिये कर्मों में प्रवृत्त होते हैं और साधक आत्मशुद्धि हेतु कामना की निवृत्ति के लिये (गीता 5। 11)। वास्तव में कर्मों में प्रवृत्ति और कामना की निवृत्ति के लिये ही है कामना की पूर्ति के लिये नहीं। मनुष्यशरीर उद्देश्य की पूर्ति के लिये ही मिला है। उद्देश्य की पूर्ति होने पर कुछ भी करना शेष नहीं रहता। कामनापूर्ति के लिये कर्मों में प्रवृत्ति उन्हीं मनुष्यों की होती है जो अपने वास्तविक उद्देश्य (नित्यतत्त्व परमात्मा की प्राप्ति) को भूले हुए हैं। ऐसे मनुष्यों को भगवान ने कृपण (दीन या दया का पात्र) कहा है – कृपणाः फलहेतवः (गीता 2। 49)। इसके विपरीत जो मनुष्य उद्देश्य को सामने रखकर (कामना की निवृत्ति के लिये) कर्मों में प्रवृत्त होते हैं उन्हें भगवान ने मनीषी (बुद्धिमान् या ज्ञानी) कहा है – फलं त्यक्त्वा मनीषिणः (गीता 2।51)। सेवा स्वरूपबोध और भगवत्प्राप्ति का भाव उद्देश्य है कामना नहीं। नाशवान् पदार्थों की प्राप्ति का भाव ही कामना है। अतः कामना के बिना कर्मों में प्रवृत्ति नहीं होती ऐसा मानना भूल है। उद्देश्य की पूर्ति के लिये भी कर्म सुचारुरूप से होते हैं। अपने अंशी परमात्मा से विमुख होकर संसार (जडता) से अपना सम्बन्ध मान लेने से ही आवश्यकता और कामना दोनों के उत्पत्ति होती है। संसार से माने हुए सम्बन्ध का सर्वथा त्याग होने पर आवश्यकता की पूर्ति और कामना की निवृत्ति हो जाती है। “निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः” सम्पूर्ण कर्मों और पदार्थों (कर्मसामग्री) को भगवद-अर्पण करने के बाद भी कामना , ममता और सन्ताप का कुछ अंश शेष रह सकता है। उदाहरणार्थ हमने किसी को पुस्तक दी। उसे वह पुस्तक पढ़ते हुए देखकर हमारे मन में ऐसा भाव आ जाता है कि वह मेरी पुस्तक पढ़ रहा है। यही आंशिक ममता है जो पुस्तक अर्पण करने के बाद भी शेष है। इस अंश का त्याग करने के लिये भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तू नयी वस्तु की कामना मत कर , प्राप्त वस्तु में ममता मत कर और नष्ट वस्तु का संताप मत कर। सब कुछ मेरे अर्पण करने की कसौटी यह है कि कामना , ममता और संताप का अंश भी न रहे। जिन साधकों को सब कुछ भगवद-अर्पण करने के बाद भी पूर्वसंस्कारवश शरीरादि पदार्थों की कामना , ममता तथा संताप दिखते हैं उन्हें कभी निराश नहीं होना चाहिये। कारण कि जिसमें कामना दिखती है वही कामनारहित होता है जिसमें ममता दिखती है वही ममतारहित होता है और जिसमें संताप दिखता है वही संतापरहित होता है। इसी प्रकार जो देह को अहम् (मैं) मानता है वही विदेह (अहंतारहित) होता है। अतः मनुष्यमात्र कामना , ममता और संतापरहित होने का पूरा अधिकारी है। गीता में ज्वर शब्द केवल यहीं आया है। युद्ध में कौटुम्बिक स्नेह आदि से संताप होने की सम्भावना रहती है। अतः युद्धरूप कर्तव्यकर्म करते समय विशेष सावधान रहने के लिये भगवान् विगतज्वरः पद देकर अर्जुन से कहते हैं कि तू सन्तापरहित होकर युद्धरूप कर्तव्यकर्म को कर। अर्जुन के सामने युद्ध के रूप में कर्तव्यकर्म था इसलिये भगवान् युध्यस्व पद से उन्हें युद्ध करने की आज्ञा देते हैं। इसमें भगवान का तात्पर्य युद्ध करने से नहीं बल्कि कर्तव्यकर्म करने से है। इसलिये समय-समय पर जो कर्तव्यकर्म सामने आ जाय उसे साधक को निष्काम , निर्मम तथा निःसंताप होकर भगवद-अर्पण-बुद्धि से करना चाहिये। उसके परिणाम (सिद्ध या असिद्धि) की तरफ नहीं देखना चाहिये। सिद्धि-असिद्धि , अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि में सम रहना विगतज्वर होना है क्योंकि अनुकूलता से होने वाली प्रसन्नता और प्रतिकूलता से होने वाली उद्विग्नता दोनों ही ज्वर (संताप) हैं। राग-द्वेष , हर्ष-शोक , काम-क्रोध आदि विकार भी ज्वर हैं। संक्षेप में राग-द्वेष , चिन्ता , उद्वेग , हलचल आदि जितनी भी मानसिक विकृतियाँ (विकार) हैं वे सब ज्वर हैं और उनसे रहित होना ही ‘विगतज्वरः’ पदका तात्पर्य है। विशेष बात- जब साधक का एकमात्र उद्देश्य परमात्मप्राप्ति का हो जाता है तब उसके पास जो भी सामग्री (वस्तु ,परिस्थिति आदि) होती है वह सब साधनरूप (साधनसामग्री) हो जाती है। फिर उस सामग्री में बढ़िया और घटिया ये दो विभाग नहीं होते। इसीलिये सामग्री जो है और जैसी है वही और वैसी ही भगवान के अर्पण करनी है। भगवान ने जैसा दिया है वैसा ही उन्हें वापस करना है। सम्पूर्ण कर्मों को भगवान के अर्पण करने के बाद भी अपने में जो कामना , ममता और संताप प्रतीत होते हैं उन्हें भी भगवान के अर्पण कर देना है। भगवान के अर्पण करने से वह भगवन्निष्ठ हो जाता है। योगारूढ़ होने में कर्म करना ही हेतु कहा जाता है ‘आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते’ (गीता 6। 3)। कारण कि कर्तव्यकर्म करने से ही साधक को पता लगता है कि मुझमें क्या और कहाँ कमी (कामना ममता आदि) है (टिप्पणी प0 170) इसीलिये 12वें अध्याय के 12वें श्लोक में ध्यान की अपेक्षा कर्मफलत्याग (कर्मयोग) को श्रेष्ठ कहा गया है क्योंकि ध्यान में साधक की दृष्टि विशेष रूप से मन की चञ्चलता पर ही रहती है और वह ध्येय में मन लगने मात्र से ध्यान की सफलता मान लेता है। परन्तु मन की चञ्चलता के अतिरिक्त दूसरी कमियों (कामना , ममता आदि) की ओर उसकी दृष्टि तभी जाती है तब वह कर्म करता है। इसलिये भगवान प्रस्तुत श्लोक में “युध्यस्व” पद से कर्तव्यकर्म करने की आज्ञा देते हैं। जैसे दूसरे अध्याय के 48वें श्लोक में भगवान्ने सिद्धिअसिद्धिमें सम होकर कर्तव्यकर्म करने की आज्ञा दी थी ऐसे ही यहाँ (30वें श्लोक में) निष्काम , निर्मम और निःसंताप होकर युद्ध अर्थात् कर्तव्यकर्म करने की आज्ञा देते हैं। जब युद्ध जैसा घोर (क्रूर) कर्म भी समभाव से किया जा सकता है तब ऐसा कौनसा दूसरा कर्म है जो समभाव से न किया जा सकता हो समभाव तभी होता है जब शरीर मैं नहीं , मेरा नहीं और मेरे लिये नहीं ऐसा भाव हो जाय जो कि वास्तव में है। कर्तव्यकर्मका पालन तभी सम्भव है जब साधक का उद्देश्य संसार का न होकर एकमात्र परमात्माका हो जाय। परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य से साधक ज्यों-ज्यों कर्तव्यपरायण होता है त्यों ही त्यों कामना , ममता , आसक्ति आदि दोष स्वतः मिटते चले जाते हैं और समतामें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होता जाता है। समता में अपनी स्थिति का पूर्ण अनुभव होते ही कर्तापन सर्वथा मिट जाता है और उद्देश्य के साथ एकता हो जाती है। यह नियम है कि अपने लिये कुछ भी पाने या करने की इच्छा न रहने पर अहम् (व्यक्तित्व) स्वतः नष्ट हो जाता है। अर्जुन श्रेय (कल्याण) तो चाहते हैं पर युद्धरूप कर्तव्यकर्म से हटकर। इसलिये अर्जुन के द्वारा अपना श्रेय पूछने पर भगवान् उन्हें युद्धरूप कर्तव्यकर्म करने की आज्ञा देते हैं क्योंकि भगवान के मतानुसार कर्तव्यकर्म करने से अर्थात् कर्मयोग से भी श्रेय की प्राप्ति होती है और ज्ञानयोग एवं भक्तियोग से भी होती है। पूर्वश्लोक में अपना मत (सिद्धान्त) बताकर अब भगवान आगे के दो श्लोकों में अपने मत की पुष्टि करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )