माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि माहि परन्त।
कोई एक गुरू ज्ञानते, उबरे साधु सन्त।।
माया, दीपक की लौ के समान है और मनुष्य उन पतंगों के समान है जो माया के वशीभूत होकर उन पर मंडराते हैं। इस प्रकार के भ्रम से, अज्ञान रूपी अंधकार से कोई विरला ही उबरता है जिसे गुरू का ज्ञान प्राप्त होने से उद्धार हो जाता है।