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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
09 – 14 संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप का वर्णन
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥11.12।।
दिवि-आकाश में; सूर्य-सूर्य; सहस्त्रस्य – हजारों; भवेत्-थे; युगपत् – एक साथ; उत्थिता-उदय; यदि-यदि; भाः-प्रकाश; सदृशी-के तुल्य; सा-वह; स्यात्-हो; भासः-तेज; तस्य-उनका; महात्म्नः -परम पुरुष का।
यदि आकाश में हजारों सूर्य एक साथ उदय होते हैं तो भी उन सबका प्रकाश भगवान के दिव्य तेजस्वी रूप की समानता नहीं कर सकता अर्थात उन सबका प्रकाश मिलकर भी उस विश्वरूप ( (विराट् रूप ) परमात्मा के प्रकाश के सदृश कदाचित् ही हो॥11.12॥
(‘दिवि सूर्यसहस्रस्य ৷৷. तस्य महात्मनः’ – जैसे आकाश में हजारों तारे एक साथ उदित होने पर भी उन सबका मिला हुआ प्रकाश एक चन्द्रमा के प्रकाश के सदृश नहीं हो सकता और हजारों चन्द्रमाओं का मिला हुआ प्रकाश एक सूर्य के प्रकाश के सदृश नहीं हो सकता । ऐसे ही आकाश में हजारों सूर्य एक साथ उदित होने पर भी उन सबका मिला हुआ प्रकाश विराट भगवान के प्रकाश के सदृश नहीं हो सकता। तात्पर्य यह हुआ कि हजारों सूर्यों का प्रकाश भी विराट भगवान के प्रकाश का उपमेय नहीं हो सकता। इस प्रकर जब हजारों सूर्यों के प्रकाश को उपमेय बनाने में भी दिव्यदृष्टि वाले सञ्जय को संकोच होता है तब वह प्रकाश विराट रूप भगवान के प्रकाश का उपमान हो ही कैसे सकता है ? कारण कि सूर्य का प्रकाश भौतिक है? जब कि विराट भगवान का प्रकाश दिव्य है। भौतिक प्रकाश कितना ही बड़ा क्यों न हो , दिव्य प्रकाश के सामने वह तुच्छ ही है। भौतिक प्रकाश और दिव्य प्रकाश की जाति अलग-अलग होने से उनकी आपस में तुलना नहीं की जा सकती। हाँ , अंगुली निर्देश की तरह भौतिक प्रकाश से दिव्य प्रकाश का संकेत किया जा सकता है। यहाँ सञ्जय भी हजारों सूर्यों के भौतिक प्रकाश की कल्पना करके विराट रूप भगवान के प्रकाश (तेज ) का लक्ष्य कराते हैं। पीछे के श्लोकों में विश्वरूप भगवान के दिव्यरूप अवयव और तेज का वर्णन करके अब सञ्जय अर्जुन द्वारा विश्वरूप का दर्शन करने की बात कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )