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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
35 – 46 भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायंप्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्॥11.44।।
तस्मात् – इसलिए; प्रणम्य–नतमस्तक होकर प्रणाम करना; प्राणिधाय-साष्टांग प्रणाम करके; कायम्-शरीर को ; प्रसादये-कृपा करने की प्रार्थना करता हूँ; त्वाम्-आपसे; अहम्-मैं; ईशम्-परमेश्वर; ईड्यम्-पूजनीय; पिता–पिता; पुत्रस्य-पुत्र का; इव-जैसे; सख्युः-मित्र के साथ; प्रियः-प्रेमी; प्रियायाः-प्रिया का; अर्हसि-आपको चाहिए; देव-मेरे प्रभु; सोढुम्-क्षमा करना।
इसलिए हे पूजनीय परमेश्वर ! मैं आपके समक्ष नतमस्तक होकर , इस शरीर को भलीभाँति चरणों में निवेदित कर और साष्टांग प्रणाम करते हुए स्तुति करने योग्य आपको प्रसन्न करने के लिए प्रार्थना करता हूँ और आपकी कृपा प्राप्त करने की याचना करता हूँ। हे देव !जिस प्रकार पिता अपने पुत्र के हठ को सहन करता है, मित्र अपने मित्र की धृष्टता को और प्रियतम अपनी प्रेयसी के अपराध को क्षमा कर देता है , उसी प्रकार से कृपा करके आप मुझे मेरे अपराधों के लिए क्षमा कर दो॥11.44॥
( ‘तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीषमीड्यम् ‘ – आप अनन्त ब्रह्माण्डों के ईश्वर हैं। इसलिये सबके द्वारा स्तुति करने योग्य आप ही हैं। आपके गुण , प्रभाव , महत्त्व आदि अनन्त हैं । अतः ऋषि , महर्षि , देवता , महापुरुष आपकी नित्य-निरन्तर स्तुति करते रहें तो भी पार नहीं पा सकते। ऐसे स्तुति करने योग्य आपकी मैं क्या स्तुति कर सकता हूँ ? मेरे में आपकी स्तुति करने का बल नहीं है , सामर्थ्य नहीं है। इसलिये मैं तो केवल आपके चरणों में लम्बा पड़कर दण्डवत प्रणाम ही कर सकता हूँ और इसी से आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। ‘पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ‘ – किसी का अपमान होता है तो उसमें मुख्य तीन कारण होते हैं – (1) प्रमाद (असावधानी ) से (2) हँसी , दिल्लगी , विनोद में खयाल न रहने से और (3) अपनेपन की घनिष्ठता होने पर अपने साथ रहने वाले का महत्त्व न जानने से। जैसे गोदी में बैठा हुआ छोटा बच्चा अज्ञानवश पिता की दाढ़ी-मूँछ खींचता है , मुँह पर थप्पड़ लगाता है , कभी कहीं लात मार देता है तो बच्चे की ऐसी चेष्टा देखकर पिता राजी ही होते हैं , प्रसन्न ही होते हैं। वे अपने में यह भाव लाते ही नहीं कि पुत्र मेरा अपमान कर रहा है। मित्र मित्र के साथ चलते-फिरते , उठते-बैठते आदि समय चाहे जैसा व्यवहार करता है , चाहे जैसा बोल देता है जैसे – तुम बड़ा सत्य बोलते हो जी । तुम तो बड़े सत्यप्रतिज्ञ हो । अब तो तुम बड़े आदमी हो गये हो । तुम तो खूब अभिमान करने लग गये हो । आज मानो तुम राजा ही बन गये हो आदि पर उसका मित्र उसकी इन बातों का खयाल नहीं करता। वह तो यही समझता है कि हम बराबरी के मित्र हैं । ऐसी हँसी-दिल्लगी तो होती ही रहती है। पत्नी के द्वारा आपस के प्रेम के कारण उठने-बैठने , बातचीत करने आदि में पति की जो कुछ अवहेलना होती है उसे पति सह लेता है। जैसे पति नीचे बैठा है तो वह ऊँचे आसन पर बैठ जाती है , कभी किसी बात को लेकर अवहेलना भी कर देती है पर पति उसे स्वाभाविक ही सह लेता है। अर्जुन कहते हैं कि जैसे पिता पुत्र के , मित्र मित्र के और पति पत्नी के अपमान को सह लेता है अर्थात् क्षमा कर देता है – ऐसे ही हे भगवन् ! आप मेरे अपमान को सहने में समर्थ हैं अर्थात् इसके लिये मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। 41वें – 42वें श्लोकों में अर्जुन ने तीन बातें कही थीं – प्रमादात् (प्रमाद से) , अवहासार्थम् (हँसी-दिल्लगी से) और प्रणयेन (प्रेम से)। उन्हीं तीन बातों का संकेत अर्जुन ने यहाँ तीन दृष्टान्त देकर किया है अर्थात् प्रमाद के लिये पिता-पुत्र का , हँसी – दिल्लगी के लिये मित्र मित्र का और प्रेम के लिये पति-पत्नी का दृष्टान्त दिया है। अब आगे के दो श्लोकों में अर्जुन चतुर्भुज रूप दिखाने के लिये प्रार्थना करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )