Bhagavad Gita Chapter 11

 

 

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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

 

32 – 34  भगवान द्वारा अपने प्रभाव का वर्णन और अर्जुन को युद्ध के लिए उत्साहित करना

 

 

Bhagwad gita Chapter 11 in hindiतस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्‍क्ष्व राज्यं समृद्धम्‌ ।

मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्‌ ॥11.33।।

 

तस्मात्-अतएव; त्वम्-तुम; उत्तिष्ठ-उठो; यशः लभस्व- यश प्राप्त करो; जित्वा-विजयी होकर; शत्रून्-शत्रुओं को; भुड़क्ष्व-भोग करो; राज्यम्-राज्य का; समृद्ध-धन धान्य से सम्पन्न; मया – मेरे द्वारा; एव-निश्चय ही; एते-ये सब; निहता:-मारे गये; पूर्वम् एव-पहले ही; निमित्तमात्रम्-केवल कारण मात्र; भव–बनो; सव्यसाचिन्–दोनों हाथों से बाण चलाने वाला अर्जुन, बाएँ हाथ से भी बाण चलाने का अभ्यास होने से अर्जुन का नाम ‘सव्यसाची’ हुआ था

 

इसलिये तुम युद्ध करने के लिये उठो और यश प्राप्त करो तथा शत्रुओं को जीतकर धन-धान्य से सम्पन्न राज्य को भोगो। ये सभी मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन् !  तुम तो केवल मेरे कार्य को संपन्न करने के निमित्तमात्र बन जाओ॥11.33॥

 

‘तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व ‘ – हे अर्जुन ! जब तुमने यह देख ही लिया कि तुम्हारे मारे बिना भी ये प्रतिपक्षी बचेंगे नहीं तो तुम कमर कसकर युद्ध के लिये खड़े हो जाओ और मुफ्त में ही यश को प्राप्त कर लो। इसका तात्पर्य है कि यह सब होनहार है जो होकर ही रहेगी और इसको मैंने तुम्हें प्रत्यक्ष दिखा भी दिया है। अतः तुम युद्ध करोगे तो तुम्हें मुफ्त में ही यश मिलेगा और लोग भी कहेंगे कि अर्जुन ने विजय कर ली । ‘यशो लभस्व ‘ कहने का यह अर्थ नहीं है कि यश की प्राप्ति होने पर तुम फूल जाओ कि वाह ! मैंने विजय प्राप्त कर ली बल्कि तुम ऐसा समझो कि जैसे ये प्रतिपक्षी मेरे द्वारा मारे हुए ही मरेंगे – ऐसे ही यश भी जो होने वाला है वही होगा। अगर तुम यश को अपने पुरुषार्थ से प्राप्त मानकर राजी होओगे तो तुम फल में बँध जाओगे – ‘फले सक्तो निबध्यते ‘ (गीता 5। 12)। तात्पर्य यह हुआ कि लाभ-हानि , यश-अपयश सब प्रभु के हाथ में है। अतः मनुष्य इनके साथ अपना सम्बन्ध न जो़ड़े क्योंकि ये तो होनहार हैं। ‘जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ‘ – समृद्ध राज्य में दो बातें होती हैं – (1) राज्य निष्कण्टक हो अर्थात् उसमें बाधा देने वाला कोई भी शत्रु या प्रतिपक्षी न रहे और (2) राज्य धन-धान्य से सम्पन्न हो अर्थात् प्रजा के पास खूब धन-सम्पत्ति हो । हाथी , घोड़े , गाय , जमीन , मकान , जलाशय आदि आवश्यक वस्तुएँ भरपूर हों । प्रजा के खाने के लिये भरपूर अन्न हो। इन दोनों बातों से ही राज्य की समृद्धता पूर्णता होती है। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि शत्रुओं को जीतकर तुम ऐसे निष्कण्टक और धनधान्य से सम्पन्न राज्य को भोगो। यहाँ राज्य को भोगने का अर्थ अनुकूलता का सुख भोगने में नहीं है बल्कि यह अर्थ है कि साधारण लोग जिसे भोग मानते हैं उस राज्य को भी तुम अनायास प्राप्त कर लो। ‘मयैवैते निहताः पूर्वमेव ‘ – तुम मुफ्त में यश और राज्य को कैसे प्राप्त कर लोगे ? इसका हेतु बताते हैं कि यहाँ जितने भी आये हुए हैं उन सबकी आयु समाप्त हो चुकी है अर्थात् कालरूप मेरे द्वारा ये पहले से ही मारे जा चुके हैं। ‘निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ‘- बायें हाथ से बाण चलाने के कारण अर्थात् दायें और बायें – दोनों हाथों से बाण चलाने के कारण अर्जुन का नाम सव्यसाची था (टिप्पणी प0 596)। इस नाम से सम्बोधित करके भगवान अर्जुन से यह कहते हैं कि तुम दोनों हाथों से बाण चलाओ अर्थात् युद्ध में अपनी पूरी शक्ति लगाओ पर बनना है निमित्तमात्र। निमित्तमात्र बनने का तात्पर्य अपने बल , बुद्धि , पराक्रम आदि को कम लगाना नहीं है बल्कि इनको सावधानीपूर्वक पूरा का पूरा लगाना है परन्तु मैंने मार दिया , मैंने विजय प्राप्त कर ली – यह अभिमान नहीं करना है क्योंकि ये सब मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए हैं। इसलिये तुम्हें केवल निमित्तमात्र बनना है , कोई नया काम नहीं करना है। निमित्तमात्र बनकर कार्य करने में अपनी ओर से किसी भी अंश में कोई कमी नहीं रहनी चाहिये बल्कि पूरी की पूरी शक्ति लगाकर सावधानीपूर्वक कार्य करना चाहिये। कार्य की सिद्धि में अपने अभिमान का किञ्चिन्मात्र भी अंश नहीं रखना चाहिये। जैसे भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाया तो उन्होंने ग्वालबालों से कहा कि तुम लोग भी पर्वत के नीचे अपनी-अपनी लाठियाँ लगाओ। सभी ग्वालबालों ने अपनी-अपनी लाठियाँ लगायीं और वे ऐसा समझने लगे कि हम सबकी लाठियाँ लगने से ही पर्वत ऊपर ठहरा हुआ है। वास्तव में पर्वत ठहरा हुआ था । भगवान के बायें हाथ की छोटी अंगुली के नख पर ग्वाल-बालों में जब इस तरह का अभिमान हुआ तब भगवान ने अपनी अंगुली थोड़ी सी नीचे कर ली। अंगुली नीचे करते ही पर्वत नीचे आने लगा तो ग्वालबालों ने पुकार कर भगवान से कहा – अरे दादा ! मरे !मरे !मरे ! भगवान ने कहा कि जोर से शक्ति लगाओ। पर वे सब के सब एक साथ अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी पर्वत को ऊँचा नहीं कर सके। तब भगवान ने पुनः अपनी अंगुली से पर्वत को ऊँचा कर दिया। ऐसे ही साधक को परमात्मप्राप्ति के लिये अपने बल , बुद्धि , योग्यता आदि को तो पूरा का पूरा लगाना चाहिये । उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं रखनी चाहिये पर परमात्मा का अनुभव होने में बल , उद्योग , योग्यता , तत्परता , जितेन्द्रियता , परिश्रम आदि को कारण मानकर अभिमान नहीं करना चाहिये। उसमें तो केवल भगवान की कृपा को ही कारण मानना चाहिये। भगवान ने भी गीता में कहा है कि शाश्वत अविनाशी पद की प्राप्ति मेरी कृपा से होगी – ‘मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ‘ (18। 56) और सम्पूर्ण विघ्नों को मेरी कृपा से तर जायगा – ‘म़च्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ‘(18। 58)। इससे यह सिद्ध हुआ कि केवल निमित्तमात्र बनने से साधक को परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। जब साधक अपना बल मानते हुए साधन करता है तब अपना बल मानने के कारण उसको बार-बार विफलता का अनुभव होता रहता है और तत्त्व की प्राप्ति में देरी लगती है। अगर साधक अपने बल का किञ्चिन्मात्र भी अभिमान न करे तो सिद्धि तत्काल हो जाती है। कारण कि परमात्मा तो नित्यप्राप्त हैं ही केवल अपने पुरुषार्थ के अभिमान के कारण ही उनका अनुभव नहीं हो रहा था। इस पुरुषार्थ के अभिमान को दूर करने में ही ‘निमित्तिमात्रं भव’ पदों का तात्पर्य है कि कर्मों में जो अपने करने का अभिमान है कि मैं करता हूँ तो होता है अगर मैं नहीं करूँ तो नहीं होगा , यह केवल अज्ञता के कारण ही अपने में आरोपित कर रखा है। अगर मनुष्य अभिमान और फलेच्छा का त्याग करके प्राप्त परिस्थिति के अनुसार कर्तव्यकर्म करने में निमित्तमात्र बन जाय तो उसका उद्धार स्वतःसिद्ध है। कारण कि जो होने वाला है वह तो होगा ही उसको कोई अपनी शक्ति से रोक नहीं सकता और जो नहीं होने वाला है वह नहीं होगा उसको कोई अपने बलबुद्धि से कर नहीं सकता। अतः सिद्धि-असिद्धि में सम रहते हुए कर्तव्यकर्मों का पालन किया जाय तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है। बन्धन , नरकों की प्राप्ति , चौरासी लाख योनियों की प्राप्ति – ये सभी कृतिसाध्य हैं और मुक्ति , कल्याण , भगवत्प्राप्ति , भगवत्प्रेम आदि सभी स्वतःसिद्ध हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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