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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
15 – 31 अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्याविश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च ।
गंधर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घावीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥11.22।।
रुद्र-शिव का रूप; आदित्याः-आदित्यगण के पुत्रों; वसवः-समस्त वसुः ये-जो; च – तथा; साध्या:-साध्य; विश्वे-विश्वदेव; अश्विनौ-अश्विनीकुमार; मरुतः-मरुत; च-तथा; उष्मपा:-पितर; च-तथा; गन्धर्व-गन्धर्वः यक्ष-यक्ष; असुर-असुर; सिद्ध-सिद्धों को; सड्घा:-समूह; वीक्षन्ते-देख रहे हैं; त्वाम्-आपको; विस्मिता:-आश्चर्यचकित होकर; च-भी; एव–वास्तव में; सर्वे-सब।
जो ग्यारह रुद्र और बारह आदित्य तथा आठ वसु, बारह साध्यगण, दस विश्वेदेव और दो अश्विनीकुमार , उनचास मरुद्गण , सात पितृगण या पितरों का समुदाय तथा गंधर्व, यक्ष, असुर और सिद्धों के समुदाय हैं- वे सब भी आश्चर्यचकित होकर आपको देखते हैं॥11.22॥
( ‘रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च ‘ – ग्यारह रुद्र , बारह आदित्य , आठ वसु , दो अश्विनीकुमार और उनचास मरुद्गण – इन सबके नाम इसी अध्याय के छठे श्लोक की व्याख्या में दिये गये हैं इसलिये वहाँ देख लेना चाहिये। मन , अनुमन्ता , प्राण , नर , यान , चित्ति , हय , नय , हंस , नारायण , प्रभव और विभु – ये बारह साध्य हैं (वायुपुराण 66। 15 16)। क्रतु , दक्ष ,श्रव , सत्य , काल , काम , धुनि , कुरुवान् , प्रभवान् और रोचमान – ये दस विश्वेदेव हैं (वायुपुराण 66। 31 32)। कव्यवाह , अनल , सोम , यम, अर्यमा , अग्निष्वात्त और बर्हिषत् – ये सात पितर हैं (शिवपुराण? धर्म0 63। 2)। ऊष्म अर्थात् गरम अन्न खाने के कारण पितरों का नाम ऊष्मपा है। ‘गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घाः’ – कश्यपजी की पत्नी मुनि और प्राधा से तथा अरिष्टा से गन्धर्वों की उत्पत्ति हुई है। गन्धर्वलोग राग-रागिनियों की विद्या में बड़े चतुर हैं। ये स्वर्गलोक के गायक हैं। कश्यपजी की पत्नी खसा से यक्षों की उत्पत्ति हुई है। देवताओं के विरोधी (टिप्पणी प0 588) दैत्यों , दानवों और राक्षसों को असुर कहते हैं। कपिल आदि को सिद्ध कहते हैं। ‘वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ‘ – उपर्युक्त सभी देवता , पितर , गन्धर्व , यक्ष आदि चकित होकर आपको देख रहे हैं। ये सभी देवता आदि विराट रूप के ही अङ्ग हैं। अब अर्जुन आगे के तीन श्लोकों में विश्वरूप के महान विकराल रूप का वर्णन करके उसका परिणाम बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )