Bhagavad Gita Chapter 11

 

 

Next        Menu        Previous 

 

Contents

VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

47 – 50  भगवान द्वारा अपने विश्वरूप के दर्शन की महिमा का कथन तथा चतुर्भुज और सौम्य रूप का दिखाया जाना

 

 

Bhagwat Gita Chapter 11न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।

एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥11.48।।

 

न-नहीं; वेदयज्ञ-यज्ञ के अनुष्ठान द्वारा; अध्ययनैः-वेदों के अध्ययन से; न-नहीं; दानैः-दान के द्वारा; न – कभी नहीं; च-भी; क्रियाभिः-कर्मकाण्डों से ; न – कभी नहीं; तपोभिः-तपस्या द्वारा; उग्रैः-कठोर; एवम् रूप:-इस रूप में; शक्यः -समर्थ; अहम्–मैं; नृलोके-इस नश्वर संसार में; द्रष्टुम्-देखे जाने में; त्वत्-तुम्हारे अलावा; अन्येन–अन्य के द्वारा; कुरुप्रवीर-कौरव पक्ष के योद्धाओं में श्रेष्ठ।

 

हे कुरुप्रवीर! तुम्हारे अतिरिक्त इस मनुष्य लोक में किसी अन्य के द्वारा मैं इस विश्वरूप में, न तो वेदाध्ययन , न यज्ञ, न दान , न पुण्य , न धार्मिक कर्मकांडों के द्वारा और न उग्र तपों के द्वारा ही देखा जा सकता हूँ अर्थात मनुष्य लोक में किसी भी जीवित प्राणी ने मेरे इस विराटरूप को कभी नहीं देखा है जिसे तुम देख चुके हो । मुझे इस विश्व रूप में देख पाना किसी के भी लिए संभव नहीं है चाहे वो कितना ही वेदों का अध्ययन कर ले , दान पुण्य कर ले , यज्ञों का अनुष्ठान कर ले , कठोर से कठोर तप कर ले , चाहे कितने ही कर्म काण्ड कर ले तेरे जैसे कृपापात्र भक्त के सिवाय यह रूप देखना किसी और के द्वारा देखा जाना संभव नहीं है ।।

 

(कुरुप्रवीर – यहाँ अर्जुन के लिये कुरुप्रवीर सम्बोधन देने का अभिप्राय है कि सम्पूर्ण कुरुवंशियों में मेरे से उपदेश सुनने की , मेरे रूप को देखने की और जानने की तेरी जिज्ञासा हुई तो यह कुरुवंशियों में तुम्हारी श्रेष्ठता है। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान को देखने की , जानने की इच्छा होना ही वास्तव में मनुष्य की श्रेष्ठता है। ‘न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ‘ – वेदों का अध्ययन किया जाये , यज्ञों का विधि-विधान से अनुष्ठान किया जाये , बड़े-बड़े दान किये , बड़ी उग्र (कठिन से कठिन) तपस्याएँ की जाएं और तीर्थ , व्रत आदि शुभ कर्म किये जाएं – ये सब के सब कर्म विश्वरूप दर्शन में हेतु नहीं बन सकते। कारण कि जितने भी कर्म किये जाते हैं उन सबका आरम्भ और समाप्ति होती है। अतः उन कर्मों से मिलने वाला फल भी आदि और अन्त वाला ही होता है। अतः ऐसे कर्मों से भगवान के अनन्त , असीम , अव्यय , दिव्य विश्वरूप के दर्शन कैसे हो सकते हैं ? उसके दर्शन तो केवल भगवान की कृपा से ही होते हैं। कारण कि भगवान नित्य हैं और उनकी कृपा भी नित्य है। अतः नित्य कृपा से ही अर्जुन को भगवान के नित्य , अव्यय , दिव्य विश्वरूप के दर्शन हुए हैं। तात्पर्य यह हुआ कि उनमें से एक-एक में अथवा सभी साधनोंमें यह सामर्थ्य नहीं है कि वे विराट रूप के दर्शन करा सकें। विराट रूप  के दर्शन तो केवल भगवान की कृपा से , प्रसन्नता से ही हो सकते हैं। गीता में प्रायः यज्ञ , दान और तप – इन तीनों का ही वर्णन आता है। 8वें अध्याय के 28वें श्लोक में और इसी अध्याय के 53वें श्लोक में वेद , यज्ञ , दान और तप – इन चारों का वर्णन आया है और यहाँ वेद , यज्ञ , दान , तप और क्रिया – इन पाँचों का वर्णन आया है। 8वें अध्याय के 28वें श्लोक में सप्तमी विभक्ति और बहुवचन तथा यहाँ के श्लोक में तृतीया विभक्ति और बहुवचन का प्रयोग हुआ है जब कि दूसरी जगहः प्रायः प्रथमा विभक्ति और एकवचनका प्रयोग आता है।यहाँ तृतीया विभक्ति और बहुवचन देने का तात्पर्य यह है कि इन वेद , यज्ञ , दान आदि साधनों में से एक-एक साधन विशेषता से बहुत बार किया जाय अथवा सभी साधन विशेषता से बहुत बार किये जाएं तो भी वे सब के सब साधन विश्वरूप दर्शन के कारण नहीं बन सकते अर्थात् इनके द्वारा विश्वरूप नहीं देखा जा सकता। कारण कि विश्वरूप का दर्शन करना किसी कर्म का फल नहीं है। जैसे यहाँ वेद , यज्ञ आदि साधनों से विश्वरूप नहीं देखा जा सकता – ऐसा कहकर विश्वरूप दर्शन की दुर्लभता बतायी है – ऐसे ही आगे 53वें श्लोक में वेद , यज्ञ आदि साधनों से चतुर्भुज रूप नहीं देखा जा सकता – ऐसा कहकर चतुर्भुज रूप – दर्शन की दुर्लभता बतायी है। चतुर्भुज रूप को देखने में अनन्य भक्ति को साधन बताया है। (11। 54) क्योंकि वह रूप ऐसा विलक्षण है कि उसका दर्शन देवता भी चाहते हैं। इसलिये उस रूप में भक्ति हो सकती है परन्तु विश्वरूप को देखकर तो भय लगता है । अतः ऐसे रूप में भक्ति कैसे होगी ? प्रेम कैसे होगा ? इसके दर्शन में भक्ति को साधन नहीं बताया है। यह तो केवल भगवान की प्रसन्नता से , कृपा से ही देखा जा सकता है। ‘एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन ‘ – मनुष्य लोक में इन साधनों से तुम्हारे सिवाय मेरा विश्वरूप कोई देख नहीं सकता – इसका अर्थ यह नहीं है कि इन साधनों से तू देख सकता है। तुम्हारे को तो मैंने अपनी प्रसन्नता से ही यह रूप दिखाया है। सञ्जय को भी जो विश्वरूप के दर्शन हो रहे थे , वह भी व्यासजी की कृपा से प्राप्त दिव्यदृष्टि से ही हो रहे थे , किसी दूसरे साधन से नहीं। तात्पर्य है कि भगवान और उनके भक्तों और सन्तों की कृपा से जो काम होता है वह काम साधनों से नहीं होता। इनकी कृपा भी अहैतु की होती है। कई लोग ठीक न समझने के कारण ऐसा कहते हैं कि भगवान ने अर्जुन को विश्वरूप दिखाया नहीं था बल्कि यह समझा दिया था कि मेरे शरीर के किसी एक अंश में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं पर वास्तव में यह बात है ही नहीं। स्वयं भगवान ने कहा है कि मेरे इस शरीर में एक जगह चराचरसहित सम्पूर्ण जगत को अभी देख ले ( 11 । 7)। जब अर्जुन को दिखायी नहीं दिया तब भगवान ने कहा कि तू अपने इन चर्मचक्षुओं से मेरे विश्वरूप को नहीं देख सकता , इसलिये मैं तुझे दिव्यचक्षु देता हूँ (11। 8)। फिर भगवान ने अर्जुन को दिव्यचक्षु देकर साक्षात् अपना विश्वरूप दिखाया। सञ्जय ने भी कहा है कि भगवान के शरीर में एक जगह स्थित विश्वरूप को अर्जुन ने देखा (11। 13)। अर्जुन ने भी विश्वरूप का दर्शन करते हुए कहा कि मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण प्राणियों के समुदायों को तथा ब्रह्मा , विष्णु , महेश आदि सबको देख रहा हूँ (11। 15) आदि आदि। इससे सिद्ध होता है कि भगवान ने अर्जुन को प्रत्यक्ष में अपने विश्वरूप के दर्शन कराये थे। दूसरी बात -समझाने के लिये तो ज्ञानचक्षु होते हैं (गीता 13। 34 15। 11) पर दिव्यचक्षु से साक्षात् दर्शन ही होते हैं। अतः भगवान ने केवल कहकर समझा दिया हो – ऐसी बात नहीं है। अर्जुन का भय दूर करने के लिये भगवान आगे के श्लोक में उनको देवरूप में देखने की आज्ञा देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी  )

 

Next  

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!