Bhagavad Gita Chapter 11

 

 

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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

 

51 – 55  बिना अनन्य भक्ति के चतुर्भुज रूप के दर्शन की दुर्लभता का और फलसहित अनन्य भक्ति का कथन

 

 

Bhagavad Gita Chapter 11नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।

शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ॥11.53।।

 

न – कभी नहीं; अहम्-मैं; वेदैः-वेदाध्ययन से; न – कभी नहीं; तपसा-कठिन तपस्या द्वारा; न – कभी नहीं; दानेन-दान से; न – कभी नहीं; च-भी; इज्यया-पूजा से; शक्यः-यह सम्भव है; एवं विधः-इस प्रकार से; द्रष्टुम् – देख पाना; दृष्टवान्- देख रहे; असि-तुम हो; माम्-मुझको; यथा-जिस प्रकार।

 

भावार्थ : जिस प्रकार तुमने मुझको देखा है अर्थात जिस चतुर्भुज रूप में तुम मुझे देख पा रहे हो – इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ अर्थात मेरे इस चतुर्भुज  रूप को न तो वेदों के अध्ययन, न ही तपस्या, न दान और न यज्ञों जैसे साधनों द्वारा देखा जा सकता है जैसा कि तुमने देखा है। यहाँ तक कि स्वर्ग के देवताओं को भी सदैव इसका दर्शन करने की उत्कंठा होती है॥11.53॥

 

(‘दृष्टवानसि मां यथा’ – तुमने मेरा चतुर्भुज रूप मेरी कृपा से ही देखा है। तात्पर्य है कि मेरे दर्शन मेरी कृपा से ही हो सकते हैं , किसी योग्यता से नहीं। ‘नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया शक्य एवंविधो द्रष्टुम्’ – यह एक सिद्धान्त की बात है कि जो चीज किसी मूल्य से खरीदी जाती है वह चीज उस मूल्य से कम मूल्य की ही होती है। जैसे कोई दूकानदार एक घड़ी सौ रुपये में बेचता है तो उसने वह घड़ी कम मूल्य में ली है तभी तो वह सौ रुपये में देता है। इसी तरह अनेक वेदों का अध्ययन करने पर , बहुत बड़ी तपस्या करने पर , बहुत बड़ा दान देने पर तथा बहुत बड़ा यज्ञ-अनुष्ठान करने पर भगवान मिल जायँगे – ऐसी बात नहीं है। कितनी ही महान क्रिया क्यों न हो? कितनी ही योग्यता सम्पन्न क्यों न की जाय? उसके द्वारा भगवान खरीदे नहीं जा सकते। वे सब के सब मिलकर भी भगवत्प्राप्ति का मूल्य नहीं हो सकते। उनके द्वारा भगवान पर अधिकार नहीं जमाया जा सकता। अर्जुन ने इसी अध्याय के 43वें श्लोक में साफ कहा है कि त्रिलोकी में आपके समान भी कोई नहीं है फिर आपसे अधिक हो ही कैसे सकता है ? तात्पर्य है कि आपसे अधिक हुए बिना आप पर अधिकार नहीं किया जा सकता। सांसारिक चीजों में तो अधिक योग्यता वाला कम योग्यतावाले पर आधिपत्य कर सकता है ? अधिक बुद्धिमान , कम बुद्धिवालों पर अपना रोब जमा सकता है , अधिक धनवान निर्धनों पर अपनी अधिकता प्रकट कर सकता है परन्तु भगवान किसी बल , बुद्धि , योग्यता , व्यक्ति , वस्तु आदि से खरीदे नहीं जा सकते। कारण कि जिस भगवान के संकल्पमात्र से तत्काल अनन्त ब्रह्माण्डों की रचना हो जाती है उसे एक ब्रह्माण्ड के भी किसी अंश में रहने वाले किसी वस्तु , व्यक्ति आदि से कैसे खरीदा जा सकता है ? तात्पर्य यह है कि भगवान की प्राप्ति केवल भगवान की कृपा से ही होती है। वह कृपा तब प्राप्त होती है जब मनुष्य अपनी सामर्थ्य , समय , समझ , सामग्री आदि को भगवान के सर्वथा अर्पण करके अपने में सर्वथा निर्बलता , अयोग्यता का अनुभव करता है अर्थात् अपने बल , योग्यता आदि का किञ्चिन्मात्र भी अभिमान नहीं करता। इस प्रकार जब वह सर्वथा निर्बल होकर अपने आपको भगवान के सर्वथा समर्पित करके अनन्यभाव से भगवान को पुकारता है तब भगवान तत्काल प्रकट हो जाते हैं। कारण कि जब तक मनुष्य के अन्तःकरण में प्राकृत वस्तु , योग्यता , बल , बुद्धि आदि का महत्त्व और सहारा रहता है तब तक भगवान अत्यन्त नजदीक होने पर भी दूर दिखते हैं। इस श्लोक में जो दुर्लभता बतायी गयी है वह चतुर्भुज रूप के लिये ही बतायी गयी है , विश्वरूपके लिये नहीं। अगर इसको विश्वरूप के लिये ही मान लिया जाय तो पुनरुक्तिदोष आ जायगा क्योंकि पहले 48वें श्लोक में विश्वरूप की दुर्लभता बतायी जा चुकी है। दूसरी बात – आगे के श्लोक में भगवान ने अनन्यभक्ति से अपने को देखा जाना शक्य बताया है। विश्वरूप में अनन्यभक्ति हो ही नहीं सकती क्योंकि अर्जुन जैसे शूरवीर पुरुष भगवान से दिव्यदृष्टि प्राप्त करके भी विश्वरूप को देखकर भयभीत हो गये तो उस रूप में अनन्यभक्ति , अनन्यप्रेम , आकर्षण कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। जब कोई किसी साधन से , किसी योग्यता से , किसी सामग्री से आपको प्राप्त नहीं कर सकता तो फिर आप कैसे प्राप्त किये जाते हैं ? इसका उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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