Bhagavad Gita Chapter 11

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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

 

15 – 31  अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना

 

 

Bhagavad Gita Chapter 11दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानिदृष्टैव कालानलसन्निभानि ।

दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥11.25।।

 

दंष्ट्रा-दाँत; करालानि-भयंकर; च-भी; ते-आपके; मुखानि-मुखों को; दंष्ट्रा-देखकर; एव-इस प्रकार; काल अनल-प्रलय की अग्नि; सन्नि-भानि-इक्कट्ठी होना; दिश:-दिशाएँ; न-नहीं; जाने-जानता हूँ; न-नहीं; लभे-प्राप्त की; च-तथा; शर्म-शांति; प्रसीद-करुणा; देवेश-हे देवताओं के स्वामी; जगत् निवास-समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी।।

 

आपके भयानक दांतों वाले और प्रलय काल की अग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर, मुझे न तो दिशाओं का ज्ञान हो रहा है और न शान्ति ही मिल रही है। इसलिए हे देवेश!  हे जगन्निवास! हे ब्रह्माण्ड के आश्रयदाता ! आप प्रसन्न हो जाइए और मुझ पर करुणा करिये॥11.25॥

 

(‘दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि ‘ – महाप्रलय के समय सम्पूर्ण त्रिलोकी को भस्म करने वाली जो अग्नि प्रकट होती है उसे संवर्तक अथवा कालाग्नि कहते हैं। उस कालाग्नि के समान आपके मुख है जो भयंकर-भयंकर दाढ़ों के कारण बहुत विकराल हो रहे हैं। उनको देखनेमात्र से ही बड़ा भय लग रहा है। अगर उनका कार्य देखा जाय तो उसके सामने किसी का टिकना ही मुश्किल है। ‘दिशो न जाने न लभे च शर्म ‘ – ऐसे विकराल मुखों को देखकर मुझे दिशाओं का भी ज्ञान नहीं हो रहा है। इसका तात्पर्य है कि दिशाओं का ज्ञान होता है सूर्य के उदय और अस्त होने से। पर वह सूर्य तो आपके नेत्रों की जगह है अर्थात् वह तो आपके विराट रूप के अन्तर्गत आ गया है। इसके सिवाय आपके चारों ओर महान प्रज्वलित प्रकाश ही प्रकाश दिख रहा है (11। 12) जिसका न उदय और न अस्त हो रहा है। इसलिये मेरे को दिशाओं का ज्ञान नहीं हो रहा है और विकराल मुखों को देखकर भय के कारण मैं किसी तरह का सुख और शान्ति भी प्राप्त नहीं कर रहा हूँ। ‘प्रसीद देवेश जगन्निवास ‘ – आप सब देवताओं के स्वामी हैं और सम्पूर्ण संसार आप में ही निवास कर रहा है। अतः कोई भी देवता , मनुष्य भयभीत होने पर आपको ही तो पुकारेगा , आपके सिवाय और किसको पुकारेगा तथा और कौन सुनेगा ? इसलिये मैं भी आपको पुकार कर कह रहा हूँ कि हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होइये। भगवान के विकराल रूप को देखकर अर्जुन को ऐसा लगा कि भगवान मानो बड़े क्रोध में आये हुए हैं। इस भावना को लेकर ही भयभीत अर्जुन भगवान से प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना कर रहे हैं। अब अर्जुन आगे के दो श्लोकों में मुख्य-मुख्य योद्धाओं का विराट रूप में प्रवेश होने का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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