Bhagavad Gita Chapter 11

 

 

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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

 

09 – 14  संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप का वर्णन

 

 

Bhagavad Gita Chapter 11तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।

अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥11.13।।

 

तत्र-वहाँ; एकस्थम-एक स्थान पर एकत्रित; जगत्-ब्रह्माण्ड; कृत्स्नम्-समस्त;प्रविभक्तम्-विभाजित; अनेकधा-अनेक; अपश्यत्-देखा; देवदेवस्य-परमात्मा के ; शरीरे-विश्वरूप में; पाण्डवः-अर्जुन; तदा-तव।

 

 पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार के विभागों में विभक्त अर्थात पृथक-पृथक सम्पूर्ण जगत और समस्त ब्रह्माण्डों को देवों के देव भगवान श्रीकृष्ण के उस शरीर में एक स्थान पर स्थित देखा॥11.13॥

 

(‘तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा’ – अनेक प्रकार के विभागों में विभक्त अर्थात् ये देवता हैं , ये मनुष्य हैं , ये पशुपक्षी हैं , यह पृथ्वी है , ये समुद्र हैं , यह आकाश है , ये नक्षत्र हैं आदि आदि विभागों के सहित (संकुचित नहीं बल्कि विस्तारसहित ) सम्पूर्ण चराचर जगत को भगवान के शरीर के भी एक देश में अर्जुन ने भगवान के दिये हुए दिव्यचक्षुओं से प्रत्यक्ष देखा। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण के छोटे से शरीर के भी एक अंश में चर-अचर , स्थावर- जङ्गम सहित सम्पूर्ण संसार है। वह संसार भी अनेक ब्रह्माण्डों के रूप में , अनेक देवताओं के लोकों के रूप में , अनेक व्यक्तियों और पदार्थों के रूप में विभक्त और विस्तृत है – इस प्रकार अर्जुन ने स्पष्ट रूप से देखा (टिप्पणी प0 582)। ‘अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ‘ – तदा का तात्पर्य है कि जिस समय भगवान ने दिव्यदृष्टि देकर अपना विराट रूप दिखाया उसी समय उस को अर्जुन ने देखा। ‘अपश्यत् ‘ का तात्पर्य है कि जैसा रूप भगवान ने दिखाया वैसा ही अर्जुन ने देखा। सञ्जय पहले भगवान के जैसे रूप का वर्णन करके आये हैं वैसा ही रूप अर्जुन ने भी देखा। जैसे मनुष्यलोक से देवलोक बहुत विलक्षण है – ऐसे ही देवलोक से भी भगवान अनन्तगुना विलक्षण हैं क्योंकि देवलोक आदि सब के सब लोक प्राकृत हैं और भगवान प्रकृति से अतीत हैं। इसलिये भगवान देव-देव अर्थात् देवताओं के भी देवता (मालिक) हैं। भगवान के अलौकिक विराट रूप को देखने के बाद अर्जुन की क्या दशा हुई – इसका वर्णन सञ्जय आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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