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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
15 – 31 अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् ।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥11.15
अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; पश्यामि-मैं देखता हूँ; देवान्–सभी देवताओं को; तव-आपके; देव-भगवान; देहे-शरीर में; सर्वान्- समस्त; तथा भी; भूत-जीव; विशेषसङ्घान् -विशेष रूप से एकत्रित; ब्रह्माणम् – ब्रह्मा को; ईशम्-शिव को; कमल आसन स्थम्-कमल के ऊपर आसीन; ऋषीन्-ऋषियों को; च-भी; सर्वान् – समस्त; उरगान्- सर्पों को; च-भी; दिव्यान्-दिव्य।
अर्जुन बोले- हे देव! मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण देवों को तथा अनेक जीवों के विशेष समुदायों को अर्थात विभिन्न प्रकार के प्राणियों को , कमल के आसन पर विराजित ब्रह्मा को, महादेव को , सम्पूर्ण ऋषियों को तथा समस्त दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ॥11.15॥
(‘पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्’ – अर्जुन की भगवत्प्रदत्त दिव्य दृष्टि इतनी विलक्षण है कि उनको देवलोक भी अपने सामने दिख रहे हैं। इतना ही नहीं उनको सब की सब त्रिलोकी दिख रही है। केवल त्रिलोकी ही नहीं बल्कि त्रिलोकी के उत्पादक (ब्रह्मा) , पालक (विष्णु) और संहारक (महेश) भी प्रत्यक्ष दिख रहे हैं। अतः अर्जुन वर्णन करते हैं कि मैं सम्पूर्ण देवों को , प्राणियों के समुदायों को और ब्रह्मा तथा शङ्कर को देख रहा हूँ। ‘ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थम्’ – अर्जुन कहते हैं कि मैं कमल के ऊपर स्थित ब्रह्माजी को देखता हूँ – इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन कमल के नाल को और नाल के उद्गम स्थान अर्थात् मूल आधार भगवान विष्णु को (जो कि शेषशय्या पर सोये हुए हैं ) भी देख रहे हैं। इसके सिवाय भगवान् शङ्कर को , उनके कैलास पर्वत को और कैलास पर्वत पर स्थित उनके निवास स्थान वटवृक्ष को भी अर्जुन देख रहे हैं। ‘ऋषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ‘ – पृथ्वी पर रहने वाले जितने भी ऋषि हैं , उनको तथा पाताललोक में रहने वाले दिव्य सर्पों को भी अर्जुन देख रहे हैं। इस श्लोक में अर्जुन के कथन से यह सिद्ध होता है कि उन्हें स्वर्ग , मृत्यु और पाताल – यह त्रिलोकी अलग-अलग नहीं दिख रही है किन्तु विभागसहित एक साथ एक जगह ही दिख रही है – ‘प्रविभक्तमनेकधा’ (गीता 11। 13)। उस त्रिलोकी से जब अर्जुन की दृष्टि हटती है तब जिनको ब्रह्मलोक , कैलास और वैकुण्ठलोक कहते हैं , वे अधिकारियों के अभीष्ट लोक तथा उनके स्वामी (ब्रह्मा , शंकर और विष्णु ) भी अर्जुन को दिखते हैं। यह सब भगवत्प्रदत्त दिव्यदृष्टि का ही प्रभाव है। विशेष बात- जब भगवान ने कहा कि यह सम्पूर्ण जगत मेरे किसी एक अंश में है तब अर्जुन उसे दिखाने की प्रार्थना करते हैं। अर्जुन की प्रार्थना पर भगवान कहते हैं कि तू मेरे शरीर में एक जगह स्थित चराचर जगत को देख – ‘इह एकस्थं ৷৷. मम देहे’ (11। 7)। वेदव्यासजी द्वारा प्राप्त दिव्यदृष्टि वाले सञ्जय भी यही बात कहते हैं कि अर्जुन ने भगवान के शरीर में एक जगह स्थित सम्पूर्ण जगत को देखा – ‘तत्र एकस्थं ৷৷. देवदेवस्य शरीरे’ (11। 13)। यहाँ अर्जुन कहते हैं कि मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण भूतसमुदाय आदि को देखता हूँ – ‘तव देव देहे।’ इस प्रकार भगवान और सञ्जय के वचनों में तो ‘एकस्थम्’ (एक जगह स्थित ) पद आया है पर अर्जुन के वचनों में यह पद नहीं आया है। इसका कारण यह है कि अर्जुन की दृष्टि भगवान के शरीर में जिस किसी एक स्थान पर गयी वहीं उनको भगवान का विश्वरूप दिखायी देने लग गया। उस समय अर्जुन की दृष्टि सारथि रूप भगवान के शरीर की तरफ गयी ही नहीं। अर्जुन की दृष्टि जहाँ गयी वहीं अनन्त सृष्टियाँ दिखने लग गयीं । अतः अर्जुन की दृष्टि उधर ही बह गयी। इसलिये अर्जुन ‘एकस्थम् ‘ नहीं कह सके। वे ‘एकस्थम्’ तो तभी कह सकते हैं जब विश्वरूप दिखने के साथ-साथ सारथिरूप से भगवान का शरीर भी दिखे। अर्जुन को केवल विश्वरूप ही दिख रहा है । इसलिये वे विश्वरूप का ही वर्णन कर रहे हैं। उनको विश्वरूप इतना अपार दिख रहा है जिसकी देश या काल में कोई सीमा नहीं दिखती। तात्पर्य यह हुआ कि जब अर्जुन की दृष्टि में विश्वरूप का ही अन्त नहीं आ रहा है तब उनकी दृष्टि सारथिरूप से बैठे भगवान की तरफ जाय ही कैसे ? भगवान तो अपने शरीर के एकदेश में विश्वरूप दिखा रहे हैं । इसलिये उन्होंने ‘एकस्थम्’ कहा है। सञ्जय सारथिरूप में बैठ हुए भगवान को और उनके शरीर के एक देश में स्थित विश्वरूप को देख रहे हैं । इसलिये सञ्जय ने ‘एकस्थम्’ पद दिया है (टिप्पणी प0 583)। अब प्रश्न यह होता है कि भगवान और सञ्जय की दृष्टि में वह एक जगह कौन सी थी? जिसमें अर्जुन विश्वरूप देख रहे थे । इसका उत्तर यह है कि भगवान के शरीर में अमुक जगह ही अर्जुन ने विश्वरूप देखा था इसका निर्णय नहीं किया जा सकता। कारण कि भगवान के शरीर के एक-एक रोमकूप में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड विराजमान हैं (टिप्पणी प0 584)। भगवान ने भी यह कहा था कि मेरे शरीर के एक देश में तू चराचरसहित सम्पूर्ण जगत को देख ले (गीता 11। 7)। इसलिये जहाँ अर्जुन की दृष्टि एक बार पड़ी वहीं उनको सम्पूर्ण विश्वरूप दिखने लग गया – स्वामी रामसुखदास जी )