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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
15 – 31 अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रंपश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥11.16।।
अनेक-अनंत; बाहु-भुजाएँ; उदर-पेट; वक्त्र-मुख; नेत्रम्-आँखें; पश्यामि-मैं देखता हूँ; त्वाम्-तुम्हें; सर्वतः-चारों ओर; अनंतरुपम्-असंख्य रूप; न अन्तम्-अन्तहीन; न-नहीं; मध्यम्-मध्य रहित; न पुनः-न फिर; तव-आपका; आदिम्-आरम्भ; पश्यामि-देखता हूँ; विश्वेश्वर -हे ब्रह्माण्ड नायक; विश्वरूप- ब्रह्मांडीय रूप में ।
हे विश्वेश्वर! ( हे सम्पूर्ण विश्व के स्वामिन्!) मैं सभी दिशाओं में अनगिनत भुजाओं , उदर, मुँह और आँखों के साथ आपके चारों ओर फैले हुए अनंत रूप को देखता हूँ। हे विश्वरूप! आपका रूप अपने आप में अनंत है। मैं आपके न आदि को, न मध्य को और न अन्त को ही देख रहा हूँ।॥11.16॥
(‘विश्वरूप विश्वेश्वर ‘ – इन दो सम्बोधनों का तात्पर्य है कि मेरे को जो कुछ भी दिख रहा है वह सब आप ही हैं और इस विश्व के मालिक भी आप ही हैं। सांसारिक मनुष्यों के शरीर तो जड होते हैं और उनमें शरीरी चेतन होता है परन्तु आपके विराट रूप में शरीर और शरीरी – ये दो विभाग नहीं हैं। विराट रूप में शरीर और शरीरीरूप से एक आप ही हैं। इसलिये विराट रूप में सब कुछ चिन्मय ही चिन्मय है। तात्पर्य यह हुआ कि अर्जुन ‘विश्वरूप’ सम्बोधन देकर यह कह रहे हैं कि आप ही शरीर हैं और ‘विश्वेश्वर’ सम्बोधन देकर यह कह रहे हैं कि आप ही शरीरी (शरीर के मालिक) हैं। ‘अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम् ‘ – मैं आपके हाथों की तरफ देखता हूँ तो आपके हाथ भी अनेक हैं , आपके पेट की तरफ देखता हूँ तो पेट भी अनेक हैं , आपके मुख की तरफ देखता हूँ तो मुख भी अनेक हैं और आपके नेत्रों की तरफ देखता हूँ तो नेत्र भी अनेक हैं। तात्पर्य है कि आपके हाथों , पेटों , मुखों और नेत्रों का कोई अन्त नहीं है । सब के सब अनन्त हैं। ‘पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्’ – आप देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ आदि के रूप में चारों तरफ अनन्त हीअनन्त दिखायी दे रहे हैं। ‘नान्तं न मध्यं पुनस्तवादिम्’ – आपका कहाँ अन्त है? इसका भी पता नहीं । आपका कहाँ मध्य है? इसका भी पता नहीं और आपका कहाँ आदि है? इसका भी पता नहीं। सबसे पहले ‘नान्तम्’ कहने का तात्पर्य यह मालूम देता है कि जब कोई किसी को देखता है तब सबसे पहले उसकी दृष्टि उस वस्तु की सीमा पर जाती है कि यह कहाँ तक है ? जैसे किसी पुस्तक को देखने पर सबसे पहले उसकी सीमा पर दृष्टि जाती है कि पुस्तक की लम्बाई-चौड़ाई कितनी है ? ऐसे ही भगवान के विराट रूप को देखने पर अर्जुन की दृष्टि सबसे पहले उसकी सीमा (अन्त ) की ओर गयी। जब अर्जुन को उसका अन्त नहीं दिखा तब उनकी दृष्टि मध्यभाग पर गयी फिर आदि (आरम्भ ) की तरफ दृष्टि गयी पर कहीं भी विराट्स्वरूप का अन्त , मध्य और आदि का पता नहीं लगा। इसलिये इस श्लोक में ‘नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिम् ‘ – यह क्रम रखा गया है – स्वामी रामसुखदास जी )