Bhagavad Gita Chapter 11

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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

 

15 – 31  अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना

 

 

Bhagvat Gita Chapter 11 किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्‌ ।

पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्‌ ॥11.17।।

 

किरीटिनम्-मुकुट से सुसज्जित; गदिनम्-गदा के साथ; चक्रिणम्-चक्र सहित; च-तथा; तेजोराशिम -दीप्तिमान लोक; सर्वतः – सभी ओर; दीप्तिमन्तम्-दीप्तिमान; पश्यामि – देखता हूँ; त्वाम्-आपको; दुर्निरीक्ष्यम्-देखने में कठिन; समन्तात्-चारों ओर; दीप्त अनल-प्रज्जवलित अग्नि; अर्क-सूर्य के समान; द्युतिम्-धूप; अप्रमेयम्-असंख्य।

 

 मैं आपको मुकुट से सुशोभित , गदा और चक्र से सुसज्जित शस्त्रों के साथ तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज के पुंज, सर्वत्र दीप्तिमान लोक के रूप में प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के समान ज्योतिर्मय देख रहा हूँ । आपका यह तेज कठिनता से देखे जा सकने वाला और सब ओर से  असंख्य स्वरूप है ॥11.17॥

 

(‘किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च ‘ – आपको मैं किरीट , गदा और चक्र धारण किये हुए देख रहा हूँ। यहाँ ‘च’ पद से शंख और पद्म को भी ले लेना चाहिये। इसका तात्पर्य ऐसा मालूम देता है कि अर्जुन को विश्वरूप में भगवान विष्णु का चतुर्भुज रूप भी दिख रहा है। ‘तेजोराशिम्’ – आप तेज की राशि हैं मानो तेज का समूह का समूह (अनन्त तेज ) इकट्ठा हो गया हो। इसका पहले सञ्जय ने वर्णन किया है कि आकाश में हजारों सूर्य एक साथ उदित होने पर भी भगवान के तेज की बराबरी नहीं कर सकते (11। 12)। ऐसे आप प्रकाशस्वरूप हैं। ‘सर्वतो दीप्तिमन्तम् ‘ – स्वयं प्रकाशस्वरूप होने से आप चारों तरफ प्रकाश कर रहे हैं। ‘पश्यामि त्वं दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद् दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्’ – खूब देदीप्यमान अग्नि और सूर्य के समान आपकी कान्ति है। जैसे सूर्य के तेज प्रकाश के सामने आँखें चौंध जाती हैं – ऐसे ही आपको देखकर आँखें चौंध जाती हैं। अतः आप कठिनता से देखे जाने योग्य हैं। आपको ठीक तरह से देख नहीं सकते।[यहाँ एक बड़े आश्चर्य की बात है कि भगवान ने अर्जुन को दिव्यदृष्टि दी थी पर वे दिव्यदृष्टि वाले अर्जुन भी विश्वरूप को देखने में पूरे समर्थ नहीं हो रहे हैं – ऐसा देदीप्यमान भगवान का स्वरूप है] आप सब तरफ से अप्रमेय (अपरिमित ) हैं अर्थात् आप माप के विषय नहीं है। प्रत्यक्ष , अनुमान , उपमान , शब्द , अर्थापत्ति , अनुपलब्धि आदि कोई भी प्रमाण आपको बताने में काम नहीं करता क्योंकि प्रमाणों में शक्ति आपकी ही है। अब आगे के श्लोक में अर्जुन भगवान को निर्गुण-निराकार , सगुण-निराकार और सगुण-साकार रूप में देखते हुए भगवान की स्तुति करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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