Bhagavad Gita Chapter 11

 

 

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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

 

15 – 31  अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना

 

 

Bhagwat Gita Chapter 11त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्‌ ।

त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥11.18।।

 

त्वम्-आप; अक्षरम्-अविनाशी; परमम्-परम; वेदितव्यम्-जानने योग्य; त्वम्-आप; अस्य-इस; विश्वस्य-सृष्टि के; परम्-परम; निधानम्-आधार; त्वम्-आप; अव्ययः-अविनाशी; शाश्वत-धर्मगोप्ता-सनातन धर्म के पालक; सनातनः-नित्य; त्वम्-आप; पुरुषः-दिव्य पुरुष, मतः मे–मेरा मत है।

 

आप ही जानने योग्य परम अक्षर अर्थात परब्रह्म परमात्मा हैं। आप ही इस जगत के परम आश्रय हैं, आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं अर्थात आप ही धार्मिक ग्रंथों द्वारा ज्ञात होने वाले परम सत्य हो। आप समस्त सृष्टि के परम आधार हो और सनातन धर्म के नित्य पालक और रक्षक हो और अविनाशी परम प्रभु हो। ऐसा मेरा मत है॥11.18॥

 

 (‘त्वमक्षरं परमं वेदितव्यम्’ – वेदों , शास्त्रों , पुराणों , स्मृतियों , सन्तों की वाणियों और तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषों द्वारा जानने योग्य जो परमानन्दस्वरूप अक्षरब्रह्म है जिसको निर्गुण-निराकार कहते हैं वे आप ही हैं। ‘त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ‘ – देखने , सुनने और समझने में जो कुछ संसार आता है उस संसार के परम आश्रय , आधार आप ही हैं। जब महाप्रलय होता है तब सम्पूर्ण संसार कारण सहित आप में ही लीन होता है और फिर महासर्ग के आदि में आपसे ही प्रकट होता है। इस तरह आप इस संसार के परम निधान हैं। [इन पदों से अर्जुन सगुण-निराकार का वर्णन करते हुए स्तुति करते हैं।] ‘त्वं शाश्वतधर्मगोप्ता ‘ – जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब आप ही अवतार लेकर अधर्म का नाश करके सनातन धर्म की रक्षा करते हैं। [इन पदों से अर्जुन सगुण-साकार का वर्णन करते हुए स्तुति करते हैं।] ‘अव्ययः सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ‘ – अव्यय अर्थात् अविनाशी , सनातन , आदिरहित , सदा रहने वाले उत्तम पुरुष आप ही हैं – ऐसा मैं मानता हूँ। 15वें से 18वें श्लोक तक आश्चर्यचकित करने वाले देवरूप का वर्णन करके अब आगे के दो श्लोकों में अर्जुन उस विश्वरूप की उग्रता , प्रभाव , सामर्थ्य का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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