Contents
VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
01-04 विश्वरूप के दर्शन हेतु अर्जुन की प्रार्थना
अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम् ।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ৷৷11.1৷৷
अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; मत् अनुग्रहाय–मुझ पर अनुकंपा / कृपा / करुणा / अनुग्रह करने के लिए; परमम् – परम; गुह्यम्-गोपनीय; अध्यात्मसंज्ञितम्-आध्यात्मिक ज्ञान के संबंध में; यत्-जो; त्वया – आपके द्वारा; उक्तम्-कहे गये; वचः-शब्द; तेन-उससे; मोहः-मोह; अयम्-यह; विगतः-दूर होना; मम–मेरा।
अर्जुन बोले- मुझ पर अनुग्रह करने के लिए आपने जो परम गोपनीय आध्यात्मिक ज्ञान दिया , उससे मेरा यह मोह नष्ट हो गया है॥11.1॥
(‘मदनुग्रहाय’ – मेरा भजन करने वालों पर कृपा करके मैं स्वयं उनके अज्ञानजन्य अन्धकार का नाश कर देता हूँ (गीता 10। 11) – यह बात भगवान ने केवल कृपा परवश होकर कही। इस बात का अर्जुन पर बड़ा प्रभाव प़ड़ा जिससे अर्जुन भगवान की स्तुति करने लगे (10। 12 — 15)। ऐसी स्तुति उन्होंने पहले गीता में कहीं नहीं की। उसी का लक्ष्य करके अर्जुन यहाँ कहते हैं कि केवल मेरे पर कृपा करने के लिये ही आपने ऐसी बात कही है (टिप्पणी प0 573.2)। ‘परमं गुह्यम्’ – अपनी प्रधान-प्रधान विभूतियों को कहने के बाद भगवान ने 10वें अध्याय के अन्त में अपनी ओर से कहा कि मैं अपने किसी अंश से सम्पूर्ण जगत को अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों को व्याप्त करके स्थित हूँ (10। 42) अर्थात् भगवान ने खुद अपना परिचय दिया कि मैं कैसा हूँ। इसी बात को अर्जुन परम गोपनीय मानते हैं । ‘अध्यात्मसंज्ञितम्’ – 10वें अध्याय के 7वें श्लोक में भगवान ने कहा था कि जो मेरी विभूति और योग को तत्त्व से जानता है अर्थात् सम्पूर्ण विभूतियों के मूल में भगवान ही हैं और सम्पूर्ण विभूतियाँ भगवान की सामर्थ्य से ही प्रकट होती हैं तथा अन्त में भगवान में ही लीन हो जाती हैं – जो ऐसा तत्त्व से जानता है वह अविचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है। इसी बात को अर्जुन अध्यात्मसंज्ञित मान रहे हैं (टिप्पणी प0 573.3)। ‘यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ‘ – सम्पूर्ण जगत् भगवान के किसी एक अंश में है – इस बात पर पहले अर्जुन की दृष्टि नहीं थी और वे स्वयं इस बात को जानते भी नहीं थे , यही उनका मोह था परन्तु जब भगवान ने कहा कि सम्पूर्ण जगत को अपने एक अंश में व्याप्त करके मैं तेरे सामने बैठा हूँ तब अर्जुन की इस तरफ दृष्टि गयी कि भगवान कितने विलक्षण हैं । उनके किसी एक अंश में अनन्त सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं , उसमें स्थित रहती हैं और उसी में लीन हो जाती हैं और वे वैसे के वैसे ही रहते हैं । इस मोह के नष्ट होते ही अर्जुन को यह खयाल आया कि पहले जो मैं इस बात को नहीं जानता था वह मेरा मोह ही था (टिप्पणी प0 574)। इसलिये अर्जुन यहाँ अपनी दृष्टि से कहते हैं कि भगवन मेरा यह मोह सर्वथा चला गया है परन्तु ऐसा कहने पर भी भगवान ने इसको (अर्जुन के मोहनाश को) स्वीकार नहीं किया क्योंकि आगे 49वें श्लोक में भगवान ने अर्जुन से कहा है कि तेरे को व्यथा और मूढभाव (मोह) नहीं होना चाहिये – ‘मा ते व्यथा मा च विमूढभावः।’ मोह कैसे नष्ट हो गया ? – इसी को आगे के श्लोक में विस्तार से कहते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )