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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
15 – 31 अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति ।
तथा तवामी नरलोकवीराविशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥11.28।।
यथा-जैसे; नदीनाम्-नदियों; बहवः-अनेक; अम्बुवेगा:-जल की लहरें; समुद्रम् – समुद्र; एव-निश्चय ही; अभिमुखा:-की ओर; द्रवन्ति–तीव्रता से निकलती हैं; तथा-उसी प्रकार से; तव-आपके; अमी-ये; नरलोकवीरा:-मानव जाति के राजा; विशन्ति–प्रवेश कर रहे हैं; वक्त्रणि-मुखों में; अभिविज्वलन्ति–जल रहे हैं।
जैसे नदियों के बहुत से जल प्रवाह समुद्र की ओर वेग से बहते हैं, उसी प्रकार मनुष्य लोक के ये महान शूरवीर योद्धागण आपके प्रज्वलित मुखों में तीव्रता से प्रवेश कर रहे हैं॥11.28॥
(‘यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति ‘ – मूल में जलमात्र समुद्र का है। वही जल बादलों के द्वारा वर्षारूप में पृथ्वी पर बरस कर झरने , नाले आदि को लेकर नदियों का रूप धारण करता है। उन नदियों के जितने वेग हैं , प्रवाह हैं । वे सभी स्वाभाविक ही समुद्र की तरफ दौड़ते हैं। कारण कि जल का उद्गम स्थान समुद्र ही है। वे सभी जलप्रवाह समुद्र में जाकर अपने नाम और रूप को छोड़ कर अर्थात् गङ्गा , यमुना , सरस्वती आदि नामों को और प्रवाह के रूप को छोड़कर समुद्ररूप ही हो जाते हैं। फिर वे जलप्रवाह समुद्र के सिवाय अपना कोई अलग स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखते। वास्तव में तो उनका स्वतन्त्र अस्तित्व पहले भी नहीं था , केवल नदियों के प्रवाहरूप में होने के कारण वे अलग दिखते थे। ‘तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ‘ – नदियों की तरह मात्र जीव नित्य सुख की अभिलाषा को लेकर परमात्मा के सम्मुख ही दौड़ते हैं परन्तु भूल से असत , नाशवान शरीर के साथ सम्बन्ध मान लेने से वे सांसारिक संग्रह और संयोगजन्य सुख में लग जाते हैं तथा अपना अलग अस्तित्व मानने लगते हैं। उन जीवों में वे ही वास्तविक शूरवीर हैं जो सांसारिक संग्रह और सुखभोगों में न लगकर , जिसके लिये शरीर मिला है उस परमात्मप्राप्ति के मार्ग में ही तत्परता से लगे हुए हैं। ऐसे युद्ध में आये हुए भीष्म , द्रोण आदि नर लोकवीर आपके प्रकाशमय (ज्ञानस्वरूप) मुखों में प्रविष्ट हो रहे हैं। सामने दिखने वाले लोगों में परमात्मप्राप्ति चाहने वाले लोग विलक्षण हैं और बहुत थोड़े हैं। अतः उनके लिये परोक्षवाचक ‘अमी ‘ (वे ) पद दिया गया है। जो राज्य और प्रशंसा के लोभ से युद्ध में आये हैं और जो सांसारिक संग्रह और भोगों की प्राप्ति में लगे हुए हैं – ऐसे पुरुषों का विराट रूप में पंतगों के दृष्टान्त से प्रवेश करने का वर्णन अर्जुन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )