Bhagavad Gita Chapter 11

 

 

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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

 

15 – 31  अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना

 

 

Bhagvat Gita Chapter 11 यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगाविशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।

तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥11.29।।

 

यथा-जिस प्रकार ; प्रदीप्तम्-जलती हुई; ज्वलनम्-अग्नि में; पतंगा:-पतंगें; विशन्ति-प्रवेश करते हैं; नाशाय–विनाश के लिए; वेगा:-तीव्र वेग से; तथा एव-उसी प्रकार से; नाशाय–विनाश के लिए; विशन्ति – प्रवेश कर रहे हैं; लोका:-ये लोग; तव-आपके; अपि-भी; वक्त्राणि-मुखों में; समृद्धवेगा:-पूरे वेग से।

 

जैसे पतंगे मोहवश नष्ट होने के लिए प्रज्वलित अग्नि में अति वेग से दौड़ते हुए प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार ये सब लोग भी अपने विनाश के लिए आपके मुखों में अति वेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं॥11.29॥

 

(‘यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः’ – जैसे हरी-हरी घास में रहने वाले पतंगे चातुर्मास की अँधेरी रात्रि में कहीं पर प्रज्वलित अग्नि देखते हैं तो उस पर मुग्ध होकर (कि बहुत सुन्दर प्रकाश मिल गया , हम इससे लाभ ले लेंगे , हमारा अँधेरा मिट जायगा ) उसकी तरफ बड़ी तेजी से दौड़ते हैं। उनमें से कुछ तो प्रज्वलित अग्नि में स्वाहा हो जाते हैं , कुछ को अग्नि की थोड़ी सी लपट लग जाती है तो उनका उड़ना बंद हो जाता है और वे तड़पते रहते हैं। फिर भी उनकी लालसा उस अग्नि की तरफ ही रहती है । यदि कोई पुरुष दया करके उस अग्नि को बुझा देता है तो वे पंतगे बड़े दुःखी हो जाते हैं कि उसने हमारे को बड़े लाभ से वञ्चित कर दिया ‘तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समुद्धवेगाः’ – भोग भोगने और संग्रह करने में ही तत्परतापूर्वक लगे रहना और मन में भोगों और संग्रह का ही चिन्तन होते रहना – यह बढ़ा हुआ सांसारिक वेग है। ऐसे वेग वाले दुर्योधन आदि राजा लोग पंतगों की तरह बड़ी तेजी से कालचक्र रूप आपके मुखों में जा रहे हैं अर्थात पतन की तरफ जा रहे हैं – चौरासी लाख योनियों और नरकों की तरफ जा रहे हैं। तात्पर्य यह हुआ कि प्रायः मनुष्य सांसारिक भोग , सुख , आराम , मान , आदर आदि को प्राप्त करने के लिये रात-दिन दौड़ते हैं। उनको प्राप्त करने में उनका अपमान होता है , निन्दा होती है , घाटा लगता है , चिन्ता होती है , अन्तःकरण में जलन होती है और जिस आयु के बल पर वे जी रहे हैं , वह आयु भी समाप्त होती जाती है फिर भी वे नाशवान भोग और संग्रह की प्राप्ति के लिये भीतर से लालायित रहते हैं (टिप्पणी प0 593)। पीछे के दो श्लोकों में दो दृष्टान्तों से दोनों समुदायों का वर्णन करके अब सम्पूर्ण लोकों का ग्रसन करते हुए विश्वरूप भगवान के भयानक रूप का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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