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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
15 – 31 अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना
लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः ।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रंभासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥11.30।।
लेलिह्यसे-तुम चाट रहे हो; ग्रसमानः-निगलते हुए; समन्तात् – सभी दिशाओं से; लोकान् – लोकों को; समग्रान्–सभी; वदनैः-मुखों से; ज्वलद्भिः-जलते हुए से; तेजोभि-तेज द्वारा; आपूर्य-परिपूर्ण करके; जगत्-ब्रह्माण्ड को; समग्रम्-सबको; भासः-किरणें; तव -आपकी; उग्राः-भयंकर; प्रतपन्ति-झुलसा रही हैं; विष्णो-विष्णु भगवान्।
आप उन सम्पूर्ण लोकों को सभी दिशाओं से अपने प्रज्वलित मुखों द्वारा निगलते हुए बार-बार चाट रहे हैं। अर्थात आप अपने ज्वलनशील मुख्य द्वारा जिनसे भयंकर अग्नि निकल रही है सम्पूर्ण लोकों और उनमे रहने वाले जीवों को लगातार चारों ओर से निगल रहे हैं तथा उनका आस्वादन या स्वाद लेते हुए उन्हें चाट रहे हैं अर्थात उन्हें समाप्त कर रहे हैं । हे विष्णो! आप अपने सब ओर फैले प्रचंड तेज की किरणों से समस्त ब्रह्माण्ड को भीषणता से झुलसा रहे हैं ॥11.30॥
‘लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान् समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः ‘ – आप सम्पूर्ण प्राणियों का संहार कर रहे हैं और कोई इधर-उधर न चला जाय , इसलिये बार-बार जीभ के लपेटे से अपने प्रज्वलित मुखों में लेते हुए उनका ग्रसन कर रहे हैं। तात्पर्य है कि कालरूप भगवान की जीभ के लपेट से कोई भी प्राणी बच नहीं सकता। ‘तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ‘ – विराट रूप भगवान का तेज बड़ा उग्र है। वह उग्र तेज सम्पूर्ण जगत में परिपूर्ण होकर सबको संतप्त कर रहा है , व्यथित कर रहा है। विराट रूप भगवान अपने विलक्षण-विलक्षण रूपों का दर्शन कराते ही चले गये। उनके भयंकर और अत्यन्त उग्ररूप के मुखों में सम्पूर्ण प्राणी और दोनों पक्षों के योद्धा जाते देखकर अर्जुन बहुत घबरा गये। अतः अत्यन्त उग्ररूपधारी भगवान का वास्तविक परिचय जानने के लिये अर्जुन प्रश्न करते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )