Bhagavad Gita Chapter 11

 

 

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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

 

35 – 46  भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना

 

 

Bhagwad Gita in hindi chapter 11pवायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्‍क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।

नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥11.39।।

 

वायुः-वायुदेव; यमः-मृत्यु का देवता; अग्नि:-अग्नि; वरुणः-जल; शशाङ्‍क:-चन्द्र देव; प्रजापतिः-ब्रह्मा; त्वम्-आप; प्रपितामहः-प्रपितामह; च-तथा; नमः-मेरा नमस्कार; नमः-पुनः नमस्कार; ते-आपको; अस्तु-हो; सहस्रकृत्वः-हजार वार; पुनश्च -और फिर; भूयः-फिर; अपि-भी; नमः-नमस्कार; नमस्ते-आपको मेरा नमस्कार है।

 

आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण ( जल ) , चन्द्रमा, प्रजापति ( ब्रह्मा ) और सभी जीवों के प्रपितामह ( ब्रह्मा के भी पिता ) हैं। आपको हजारों बार नमस्कार हो ! नमस्कार हो ! अप्पको फिर भी बार-बार नमस्कार ! नमस्कार !॥11.39॥

 

(  ‘वायुः ‘ – जिससे सबको प्राण मिल रहे हैं , मात्र प्राणी जी रहे हैं , सबको सामर्थ्य मिल रही है वह वायु आप ही हैं। ‘यमः ‘ – जो संयमनी पुरी के अधिपति हैं और सम्पूर्ण संसार पर जिनका शासन चलता है वे यम आप ही हैं। ‘अग्निः ‘ – जो सबमें व्याप्त रहकर शक्ति देता है , प्रकट होकर प्रकाश देता है और जठराग्नि के रूप में अन्न का पाचन करता है वह अग्नि आप ही हैं। ‘वरुणः ‘ – जिसके द्वारा सबको जीवन मिल रहा है उस जल के अधिपति वरुण आप ही हैं। ‘शशाङ्क ‘ – जिससे सम्पूर्ण औषधियों का वनस्पतियों का पोषण होता है वह चन्द्रमा आप ही हैं। ‘प्रजापतिः’ – प्रजा को उत्पन्न करने वाले दक्ष आदि प्रजापति आप ही हैं। ‘प्रपितामहः ‘ – पितामह ब्रह्माजी को भी प्रकट करने वाले होने से आप प्रपितामह हैं। ‘नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ‘ – इन्द्र आदि जितने भी देवता हैं वे सब के सब आप ही हैं। आप अनन्तस्वरूप हैं। आपकी मैं क्या स्तुति करूँ ? क्या महिमा गाऊँ ? मैं तो आपको हजारों बार नमस्कार ही कर सकता हूँ और कर ही क्या सकता हूँ ? कुछ भी करने की जिम्मेवारी मनुष्य पर तभी तक रहती है जब तक अपने में करने का बल अर्थात् अभिमान रहता है। जब अपने में कुछ भी करने की सामर्थ्य नहीं रहती तब करने की जिम्मेवारी बिलकुल नहीं रहती। अब वह केवल नमस्कार ही करता है अर्थात् अपने आपको सर्वथा भगवान के समर्पित कर देता है। फिर करने कराने का सब काम शरण्य (भगवान ) का ही रहता है शरणागत का नहीं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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