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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
35 – 46 भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥11.40।।
नमः-नमस्कार; पुरस्तात्-सामने से; अथ–भी; पृष्ठतः-पीछे से; ते-आपको; नमोऽस्तु–मैं नमस्कार करता हूँ; ते-आपको; सर्वतः-सभी दिशाओं से; एव–वास्तव में ; सर्व-सब; अनंतवीर्य-अनंत शक्तियों से युक्त, अनंत शक्तियों के स्वामी, अनन्त सामर्थ्यवाले; अमितविक्रमः-असीम पराक्रम; त्वम्-आप; सर्वम्-सब कुछ; समाप्नोषि–व्याप्त रहना; ततः-अतएव; असि-हो; सर्वः-सब कुछ।
हे अनन्तवीर्य ! आप अनन्त सामर्थ्यवाले और अनंत शक्तियों के स्वामी हैं । आपको आगे से और पीछे से भी नमस्कार! हे अमितविक्रम ! आप अनन्त पराक्रमशाली और समस्त संसार को व्याप्त किए हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप और सर्वव्यापी हैं। हे सर्वात्मन्! आपको सब ओर से ही नमस्कार हो! ॥11.40॥
( ‘नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ‘ – अर्जुन भयभीत हैं। मैं क्या बोलूँ ? – यह उनकी समझ में नहीं आ रहा है। इसलिये वे आगे से , पीछे से , सब ओर से अर्थात् दसों दिशाओं से केवल नमस्कार ही नमस्कार कर रहे हैं। ‘अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वम्’ – ‘अनन्तवीर्य ‘ कहने का तात्पर्य है कि आप तेज , बल आदि से भी अनन्त हैं और ‘अमितविक्रम’ कहने का तात्पर्य है कि आपके पराक्रमयुक्त संरक्षण आदि कार्य भी असीम हैं। इस तरह आपकी शक्ति भी अनन्त है और पराक्रम भी अनन्त है। ‘सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः’ – आपने सबको समावृत कर रखा है अर्थात् सम्पूर्ण संसार आपके अन्तर्गत है। संसार का कोई भी अंश ऐसा नहीं है जो कि आपके अन्तर्गत न हो। अर्जुन एक बड़ी अलौकिक , विलक्षण बात देख रहे हैं कि भगवान अनन्त सृष्टियों में परिपूर्ण व्याप्त हो रहे हैं और अनन्त सृष्टियाँ भगवान के किसी अंश में हैं। अब आगे के दो श्लोकों में अर्जुन भगवान से प्रार्थना करते हुए क्षमा माँगते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )