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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
01-04 विश्वरूप के दर्शन हेतु अर्जुन की प्रार्थना
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ।।11.3।।
एवम्-इस प्रकार; एतत्-यह; यथा – जिस प्रकार; आत्थ-कहा गया है; त्वम्-आपने; आत्मानम्-स्वयं को/ अपने आप को ; परमेश्वर -परम प्रभु , परम ईश्वर ; द्रष्टुम्-देखने के लिए; इच्छामि -इच्छा करता हूँ; ते-आपका; रुपम्-रूप; ऐश्वरम्-वैभव; पुरुषोत्तम – हे पुरुषों में उत्तम ।
हे परमेश्वर! आप स्वयं को जैसा कहते हैं, यह वास्तव में ऐसा ही है अर्थात आप वास्तव में वही हैं जैसा आपने मेरे समक्ष वर्णन किया है, परन्तु हे पुरुषोत्तम! आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से युक्त ऐश्वर्य एवं विराट रूप को मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ॥11.3॥
( ‘पुरुषोत्तम’ – यह सम्बोधन देने का तात्पर्य है कि हे भगवन ! मेरी दृष्टि में इस संसार में आपके समान कोई उत्तम और श्रेष्ठ नहीं है अर्थात् आप ही सबसे उत्तम और श्रेष्ठ हैं। इस बात को आगे 15वें अध्याय में भगवान ने भी कहा है कि मैं क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम हूँ । अतः मैं शास्त्र और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ (15। 18)। ‘एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानम् ‘ – हे पुरुषोत्तम ! आपने (7वें अध्याय से 10वें अध्याय तक) मेरे प्रति अपने अलौकिक प्रभाव का , सामर्थ्य का जो कुछ वर्णन किया – वह वास्तव में ऐसा ही है। यह संसार मेरे से ही उत्पन्न होता है और मेरे में ही लीन हो जाता है (7। 6) , मेरे सिवाय इसका और कोई कारण नहीं है (7। 7) , सब कुछ वासुदेव ही है (7। 19) , ब्रह्म , अध्यात्म , कर्म , अधिभूत , अधिदैव और अधियज्ञरूप में मैं ही हूँ (7। 29 30) , अनन्य भक्ति से प्रापणीय परम तत्त्व मैं ही हूँ (8। 22) , मेरे से ही यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है पर मैं संसार में और संसार मेरे में नहीं है (9। 4 5), सत् और असत रूप से सब कुछ मैं ही हूँ (9 19) , मैं ही संसार का मूल कारण हूँ और मेरे से ही सारा संसार सत्तास्फूर्ति पाता है (10। 8) , यह सारा संसार मेरे ही किसी एक अंश में स्थित है (10। 42) आदि आदि। अपने आपको आपने जो कुछ कहा है वह सब का सब यथार्थ ही है। ‘परमेश्वर’ – भगवान के मुख से अर्जुन ने पहले सुना है कि मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों का और सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर हूँ – ‘भूतानामीश्वरोऽपि’ (4। 6) सर्वलोकमहेश्वरम् (5। 29)। इसलिये अर्जुन यहाँ भगवान के विलक्षण प्रभाव से प्रभावित होकर उनके लिये परमेश्वर सम्बोधन देते हैं जिसका तात्पर्य है कि हे भगवन ! वास्तव में आप ही परम ईश्वर हैं । आप ही सम्पूर्ण ऐश्वर्य के मालिक हैं। ‘द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरम्’ – अर्जुन कहते हैं कि मैंने आपसे आपका माहात्म्य सहित प्रभाव सुन लिया है और इस विषय में मेरे हृदय में दृढ़ विश्वास भी हो गया है। सम्पूर्ण संसार मेरे शरीर के एक अंश में है – इसे सुनकर मेरे मन में आपके उस रूप को देखने की उत्कट लालसा हो रही है। दूसरा भाव यह है कि आप इतने विलक्षण और महान होते हुए भी मेरे साथ कितना स्नेह रखते हैं , कितनी आत्मीयता रखते हैं कि मैं जैसा कहता हूँ वैसा ही आप करते हैं और जो कुछ पूछता हूँ उसका आप उत्तर देते हैं। इस कारण आपसे कहने का , पूछने का किञ्चिन्मात्र भी संकोच न होने से मेरे मन में आपका वह रूप देखने की बहुत इच्छा हो रही है जिसके एक अंश में सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। 10वें अध्याय के 16वें श्लोक में अर्जुन ने कहा था कि आप अपनी पूरी की पूरी विभूतियाँ कह दीजिये बाकी मत रखिये – ‘वक्तुमर्हस्यशेषेण’ तो भगवान ने विभूतियों का वर्णन करते हुए उपक्रम में और उपसंहार में कहा कि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है (10। 19? 40)। इसलिये भगवान ने विभूतियों का वर्णन संक्षेप से ही किया परन्तु यहाँ जब अर्जुन कहते हैं कि मैं आपके एक रूप को देखना चाहता हूँ – ‘द्रष्टुमिच्छामि ते रूपम्’ तब भगवान् आगे कहेंगे कि तू मेरे सैकड़ों-हजारों रूपों को देख (11। 5)। जैसे संसार में कोई किसी से लालचपूर्वक अधिक माँगता है तो देने वाले में देने का भाव कम हो जाता है और वह कम देता है। इसके विपरीत यदि कोई संकोचपूर्वक कम माँगता है तो देने वाला उदारतापूर्वक अधिक देता है। ऐसे ही वहाँ अर्जुन ने स्पष्टरूप से कह दिया कि आप सब की सब विभूतियाँ कह दीजिये तो भगवान ने कहा कि मैं अपनी विभूतियों को संक्षेप से कहूँगा। इस बात को लेकर अर्जुन सावधान हो जाते हैं कि अब मेरे कहने में ऐसी कोई अनुचित बात न आ जाय। इसलिये अर्जुन यहाँ संकोचपूर्वक कहते हैं कि अगर मेरे द्वारा आपका विराट रूप देखा जा सकता है तो दिखा दीजिये। अर्जुन के इस संकोच को देखकर भगवान बड़ी उदारतापूर्वक कहते हैं कि तू मेरे सैकड़ों-हजारों रूपों को देख ले। दूसरा भाव यह है कि अर्जुन के रथ में एक जगह बैठे हुए भगवान ने यह कहा कि तू जो मेरे इस शरीर को देख रहा है इसके किसी एक अंश में सम्पूर्ण जगत् (जिसके अन्तर्गत अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड हैं) व्याप्त है। तात्पर्य है कि भगवान का छोटा सा शरीर है और उस छोटे से शरीर के किसी एक अंश में सम्पूर्ण जगत है। अतः उस एक अंश में स्थित रूप को मैं देखना चाहता हूँ – यही अर्जुन के रूपम् (एक रूप) कहने का आशय मालूम देता है – स्वामी रामसुखदास जी )