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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
35 – 46 भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥11.43।।
पिता-पिता; असि-आप हैं; लोकस्य–पूर्ण ब्रह्माण्ड; चर-चल; अचरस्य–अचल; त्वम्- आप हैं; अस्य-इसके; पूज्य:-पूज्यनीय; च-भी; गुरु:-आध्यात्मिक गुरु; गरीयान्–यशस्वी, महिमामय; न–कभी नहीं; त्वत्समः-आपके समान; अस्ति-है; अभ्यधिक:-बढ़ कर; कुत:-किस तरह सम्भव है; अन्य:-दूसरा; लोकत्रये – तीनों लोकों में; अपि-भी; अप्रतिमप्रभाव-अतुल्य शक्ति के स्वामी।
आप समस्त चर-अचर के स्वामी , इस समस्त चराचर जगत के पिता अथवा समस्त ब्रह्माण्डों के जनक , सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक गुरु एवं परम पूजनीय हैं। हे अतुल्य शक्ति के स्वामी! हे अनुपम प्रभाववाले! तीनों लोकों में जब आपके समान भी दूसरा कोई नहीं हैं, तो फिर आप से बढ़कर कोई कैसे हो सकता है?॥11.43॥
(‘पितासी लोकस्य चराचरस्य ‘ – अनन्त ब्रह्माण्डों में मनुष्य शरीर , पशु , पक्षी आदि जितने जङ्गम प्राणी हैं और वृक्ष , लता आदि जितने स्थावर प्राणी हैं उन सबको उत्पन्न करने वाले और उनका पालन करने वाले पिता भी आप हैं । उनके पूजनीय भी आप हैं तथा उनको शिक्षा देने वाले महान गुरु भी आप ही हैं – ‘त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्। गुरुर्गरीयान् ‘ का तात्पर्य है कि मनुष्यमात्र को व्यवहार और परमार्थ में जहाँ कहीं भी गुरुजनों से शिक्षा मिलती है उन शिक्षा देने वाले गुरुओं के भी महान गुरु आप ही हैं अर्थात् मात्र शिक्षा का मात्र ज्ञान का उद्गम स्थान आप ही हैं। ‘न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ‘ – इस त्रिलोकी में जब आपके समान भी कोई नहीं है , कोई होगा नहीं और कोई हो सकता ही नहीं तब आपसे अधिक विलक्षण कोई हो ही कैसे सकता है ? इसलिये आपका प्रभाव अतुलनीय है उसकी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती – स्वामी रामसुखदास जी )