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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
47 – 50 भगवान द्वारा अपने विश्वरूप के दर्शन की महिमा का कथन तथा चतुर्भुज और सौम्य रूप का दिखाया जाना
श्रीभगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदंरूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यंयन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥11.47।।
श्रीभगवान् उवाच-श्रीभगवान ने कहा; मया-मेरे द्वारा; प्रसकेन–प्रसन्न होकर; तव-तुम्हारे साथ; अर्जुन-अर्जुन; इदम्-इस; रुपम्-रूप को; परम्-दिव्य; दर्शितम्-दिखाया गया; आत्मयोगात्-अपनी योगमाया शक्ति से; तेजोमयं – तेज से पूर्ण; विश्वम्-समस्त ब्रह्माण्ड को; अनंतम्-असीम; आद्यम्-आदि; यत्-जो; मे–मेरा; त्वदन्येन – तुम्हारे अलावा अन्य किसी द्वारा; नदृष्टपूर्वम्-किसी ने पहले नहीं देखा।
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! मैंने तुम पर प्रसन्न हो कर अपनी योग माया शक्ति के प्रभाव से तुम्हें मेरा यह परम तेजोमय, सबका आदि और अनंत विराट् रूप या विश्वरूप दिखाया है, जिसे तुम्हारे अतिरिक्त दूसरे किसी ने पहले नहीं देखा था॥11.47॥
( ‘मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं दर्शितम् ‘ – हे अर्जुन ! तू बार-बार यह कह रहा है कि आप प्रसन्न हो जाओ (11। 25? 31? 45) तो प्यारे भैया ! मैंने जो यह विराट रूप तुझे दिखाया है उसमें विकराल रूप को देखकर तू भयभीत हो गया है पर यह विकराल रूप मैंने क्रोध में आकर या तुझे भयभीत करने के लिये नहीं दिखाया है। मैंने तो अपनी प्रसन्नता से ही यह विराट रूप तुझे दिखाया है। इसमें तेरी कोई योग्यता , पात्रता अथवा भक्ति कारण नहीं है। तुमने तो पहले केवल विभूति और योग को ही पूछा था। विभूति और योग का वर्णन करके मैंने अन्त में कहा था कि तुझे जहाँ कहीं जो कुछ विलक्षणता दिखे वहाँ-वहाँ मेरी ही विभूति समझ। इस प्रकार तुम्हारे प्रश्न का उत्तर सम्यक् प्रकार से मैंने दे ही दिया था परन्तु वहाँ मैंने (अथवा पद से ) अपनी ही तरफ से यह बात कही कि तुझे बहुत जानने से क्या मतलब ? देखने , सुनने , समझने में जो कुछ संसार आता है उस सम्पूर्ण संसार को मैं अपने किसी अंश में धारण करके स्थित हूँ। दूसरा भाव यह है कि तुझे मेरी विभूति और योगशक्ति को जानने की क्या जरूरत है ? क्योंकि सब विभूतियाँ मेरी योगशक्ति के आश्रित हैं और उस योगशक्ति का आश्रय मैं स्वयं तेरे सामने बैठा हूँ। यह बात तो मैंने विशेष कृपा करके ही कही थी। इस बात को लेकर ही तेरी विश्वरूपदर्शन की इच्छा हुई और मैंने दिव्यचक्षु देकर तुझे विश्वरूप दिखाया। यह तो मेरी कोरी प्रसन्नता ही प्रसन्नता है। तात्पर्य है कि इस विश्वरूप को दिखाने में मेरी कृपा के सिवाय दूसरा कोई हेतु या कारण नहीं है। तेरी देखने की इच्छा तो निमित्तमात्र है। ‘आत्मयोगात् ‘ – इस विराट रूप को दिखाने में मैंने किसी की सहायता नहीं ली बल्कि केवल अपनी सामर्थ्य से ही तेरे को यह रूप दिखाया है। ‘परम्’ – मेरा यह विराट रूप अत्यन्त श्रेष्ठ है। ‘तेजोमयम्’ – यह मेरा विश्वरूप अत्यन्त तेजोमय है। इसलिये दिव्यदृष्टि मिलने पर भी तुमने इस रूप को ‘दुर्निरीक्ष्य’ कहा है (11। 17)। विश्वम् – इस रूप को तुमने स्वयं विश्वरूप , विश्वमूर्ते आदि नामों से सम्बोधित किया है। मेरा यह रूप सर्वव्यापी है। अनन्तमाद्यम् – मेरे इस विश्वरूपका देश , काल आदि की दृष्टि से न तो आदि है और न अन्त ही है। यह सबका आदि है और स्वयं अनादि है। ‘यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्’ – तेरे सिवाय मेरे विश्वरूप को पहले किसी ने भी नहीं देखा – यह बात भगवान ने कैसे कही ? क्योंकि रामावतार में माता कौसल्याजी ने और कृष्णावतार में माता यशोदाजी ने तथा कौरव सभा में भीष्म , द्रोण , सञ्जय , विदुर और ऋषि-मुनियों ने भगवान का विराट रूप देखा ही था । इसका उत्तर यह है कि भगवान ने अपने विराट रूप के लिये ‘एवंरूपः’ (11। 48) पद देकर कहा है कि इस प्रकार के भयंकर विश्वरूप को जिसके मुखों में बड़े-बड़े योद्धा , सेनापति आदि जा रहे हैं पहले किसी ने नहीं देखा है। दूसरी बात – अर्जुन के सामने युद्ध का मौका होने से ऐसा भयंकर विश्वरूप दिखाने की ही आवश्यकता थी और शूरवीर अर्जुन ही ऐसे रूप को देख सकते थे परन्तु माता कौसल्या आदि के सामने ऐसा रूप दिखाने की आवश्यकता भी नहीं थी और वे ऐसा रूप देख भी नहीं सकते थे अर्थात् उनमें ऐसा रूप देखने की सामर्थ्य भी नहीं थी। भगवान ने यह तो कहा है कि इस विश्वरूप को पहले किसी ने नहीं देखा पर वर्तमान में कोई नहीं देख रहा है – ऐसा नहीं कहा है। कारण कि अर्जुन के साथ-साथ सञ्जय भी भगवान के विश्वरूप को देख रहे हैं। अगर सञ्जय न देखते तो वे गीता के अन्त में यह कैसे कह सकते थे कि भगवान के अति अद्भुत विराट रूप का बार-बार स्मरण करके मेरे को बड़ा भारी विस्मय हो रहा है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ (18। 77)। विशेष बात- भगवान के द्वारा मैंने अपनी प्रसन्नता से , कृपा से ही तेरे को यह विश्वरूप दिखाया है – ऐसा कहने से एक विलक्षण भाव निकलता है कि साधक अपने पर भगवान की जितनी कृपा मानता है उससे कई गुना अधिक भगवान की कृपा होती है। भगवान की जितनी कृपा होती है , उसको मानने की सामर्थ्य साधक में नहीं है। कारण कि भगवान की कृपा अपार-असीम है और उसको मानने की सामर्थ्य सीमित है। साधक प्रायः अनुकूल वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति आदि में ही भगवान की कृपा मान लेता है अर्थात् सत्सङ्ग मिलता है , साधन ठीक चलता है , वृत्तियाँ ठीक हैं , मन भगवान में ठीक लग रहा है आदि में वह भगवान की कृपा मान लेता है। इस प्रकार केवल अनुकूलता में ही कृपा मानना कृपा को सीमा में बाँधना है जिससे असीम कृपा का अनुभव नहीं होता। उस कृपा में ही राजी होना कृपा का भोग है। साधक को चाहिये कि वह न तो कृपा को सीमा में बाँधे और न कृपा का भोग ही करे। साधन ठीक चलने में जो सुख होता है उस सुख में सुखी होना , राजी होना भी भोग है जिससे बन्धन होता है – ‘सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ’ (गीता 14। 6) सुख होना अथवा सुख का ज्ञान होना दोषी नहीं है बल्कि उसके साथ सङ्ग करना , उससे सुखी होना , प्रसन्न होना ही दोषी है। इससे अर्थात् साधनजन्य सात्त्विक सुख भोगने से , गुणातीत होने में बाधा लगती है। अतः साधक को बड़ी सावधानी से इस सुख से असङ्ग होना चाहिये। जो साधक इस सुख से असङ्ग नहीं होता अर्थात् इसमें प्रसन्नतापूर्वक सुख लेता रहता है वह भी यदि अपनी साधना में तत्परतापूर्वक लगा रहे तो समय पाकर उसकी उस सुख से स्वतः अरुचि हो जायगी परन्तु जो उस सुख से सावधानीपूर्वक असङ्ग रहता है उसे शीघ्र ही वास्तविक तत्त्व का अनुभव हो जाता है। विश्वरूप दर्शन के लिये भगवान की कृपा के सिवाय दूसरा कोई साधन नहीं है – इस बात का आगे के श्लोक में विशेषता से वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )