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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
51 – 55 बिना अनन्य भक्ति के चतुर्भुज रूप के दर्शन की दुर्लभता का और फलसहित अनन्य भक्ति का कथन
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः॥11.51।।
अर्जुनःउवाच-अर्जुन ने कहा; दृष्टा-देखकर; इदम्-इस; मानुषम् -मानव; रूपम्-रूप को; तव-आपके; सौम्यम्-अत्यन्त सुंदर; जनार्दन – लोगों का पालन करने वाला, कृष्ण; इदानीम्-अब; अस्मि-हूँ; संवृत्त:-स्थिर; सचेता:-अपनी चेतना में; प्रकृतिम्-अपनी समान्य अवस्था में; गतः-आ जाना;
अर्जुन बोले- हे जनार्दन! आपके इस अतिशांत और सौम्य मनुष्य रूप को देखकर अब मैं स्थिरचित्त हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ अर्थात आपके दो भुजा वाले मनोहर मानव रूप को देखकर मुझ में आत्मसंयम लौट आया है और मेरा चित्त स्थिर होकर सामान्य अवस्था में आ गया है॥11.51॥
( ‘दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन’ – आपके मनुष्य रूप में प्रकट होकर लीला करने वाले रूप को देखकर गायें , पशु-पक्षी , वृक्ष? लताएँ आदि भी पुलकित हो जाती हैं (टिप्पणी प0 613)? ऐसे सौम्य द्विभुजरूपको देखकर मैं होशमें आ गया हूँ? मेरा चित्त स्थिर हो गया है — इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः’ विराट रूप को देखकर जो मैं भयभीत हो गया था? वह सब भय अब मिट गया है? सब व्यथा चली गयी है और मैं अपनी वास्तविक स्थितिको प्राप्त हो गया हूँ – ‘प्रकृतिं गतः।’ यहाँ ‘सचेताः’ कहने का तात्पर्य है कि जब अर्जुन की दृष्टि भगवान की कृपा की तरफ गयी तब अर्जुन को होश आया और वे सोचने लगे कि कहाँ तो मैं और कहाँ भगवान का विस्मयकारक विलक्षण विराट रूप इसमें मेरी कोई योग्यता , अधिकारिता नहीं है। इसमें तो केवल भगवान की कृपा ही कृपा है। अर्जुन की कृतज्ञता का अनुमोदन करते हुए भगवान कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )