Bhagavad Gita Chapter 11

 

 

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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

 

51 – 55  बिना अनन्य भक्ति के चतुर्भुज रूप के दर्शन की दुर्लभता का और फलसहित अनन्य भक्ति का कथन

 

 

Bhagvat Gita Chapter 11 मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्‍गवर्जितः ।

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥11.55।।

 

मत्कर्मकृत्-मेरे प्रति कर्म करना; मत्परमः-मुझे परम मानते हुए; मत्भक्त:-मेरी भक्ति में लीन भक्त; सङ्गवर्जितः-आसक्ति रहित; निरः-शत्रुतारहित; सर्वभूतेषु-समस्त जीवों में; यः-जो; सः-वह; माम्-मुझको; एति-प्राप्त करता है; पाण्डव-पाण्डु पुत्र, अर्जुन।

 

 हे पांडव ! जो व्यक्ति केवल मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मुझे ही परम लक्ष्य मान कर मुझ पर   ही भरोसा करता है , मेरा भक्त है, आसक्ति रहित है और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति शत्रुता के भाव से रहित है , वह अनन्य भक्ति युक्त भक्त  मुझको ही प्राप्त होता है॥11.55॥

(सर्वत्र भगवद्बुद्धि हो जाने अर्थात प्रत्येक जीव में भगवान के दर्शन होने से ऐसे मनुष्य के अंदर अपने प्रति अति अपराध करने वाले में भी वैर भाव नहीं होता है, उसके प्रति भी उसके अंदर शत्रुत्रा के भाव नहीं आते तो फिर औरों में तो कहना ही क्या है)

 

  [इस श्लोक में पाँच बातें आयी हैं। इन पाँचों को साधनपञ्चक भी कहते हैं। इन पाँचों बातों के दो विभाग हैं। (1) भगवान के साथ घनिष्ठता और (2) संसार के साथ सम्बन्ध-विच्छेद। पहले विभाग में मत्कर्मकृत् , मत्परमः और मद्भक्तः – ये तीन बातें हैं और दूसरे विभाग में ‘सङ्गवर्जितः’ और ‘निर्वैरः सर्वभूतेषू ‘ – ये दो बातें हैं। ‘मत्कर्मकृत्’ – जो जप , कीर्तन , ध्यान , सत्सङ्ग , स्वाध्याय आदि भगवत्सम्बन्धी कर्मों को और वर्ण , आश्रम , देश , काल ,परिस्थिति आदि के अनुसार प्राप्त लौकिक कर्मों को केवल मेरे लिये ही अर्थात् मेरी प्रसन्नता के लिये ही करता है वह मत्कर्मकृत् है। वास्तव में देखा जाय तो कर्म के पारमार्थिक और लौकिक – ये दो बाह्यरूप होते हैं पर भीतर में सब कर्म केवल भगवान के लिये ही करने हैं – ऐसा एक ही भाव रहता है , एक ही उद्देश्य रहता है। तात्पर्य यह हुआ कि भक्त शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से जो कुछ भी कर्म करता है वह सब भगवान के लिये ही करता है। कारण कि उसके पास शरीर , मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ , योग्यता करने की सामर्थ्य , समझ आदि जो कुछ है वह सब की सब भगवान की ही दी हुई है और भगवान की ही है तथा वह स्वयं भी भगवान का ही है। वह तो केवल भगवान की प्रसन्नता के लिये , भगवान की आज्ञा के अनुसार , भगवान की दी हुई शक्ति से निमित्तमात्र बनकर कार्य करता है। यही उसका ‘मत्कर्मकृत्’ होना है। ‘मत्परमः’ – जो मेरे को ही परमोत्कृष्ट समझकर केवल मेरे ही परायण रहता है अर्थात् जिसका परम प्रापणीय , परम ध्येय , परम आश्रय केवल मैं ही हूँ – ऐसा भक्त ‘मत्परमः’ है। ‘मद्भक्तः’ – जो केवल मेरा ही भक्त है अर्थात् जिसने मेरे साथ अटल सम्बन्ध जोड़ लिया है कि मैं केवल भगवान का ही हूँ और केवल भगवान ही मेरे हैं तथा मैं अन्य किसी का भी नहीं हूँ और अन्य कोई भी मेरा नहीं है। ऐसा होने से भगवान में अतिशय प्रेम हो जाता है क्योंकि जो अपना होता है वह स्वतः प्रिय लगता है। प्रेम की जागृति में अपनापन ही मुख्य है। वह भक्त सब देश में , सब काल में , सम्पूर्ण वस्तु-व्यक्तियों में और अपने आप में सदा-सर्वदा प्रभु को ही परिपूर्ण देखता है। इस दृष्टि से प्रभु सब देश में होने से यहाँ भी हैं , सब काल में होने से अभी भी हैं , सम्पूर्ण वस्तु-व्यक्तियों में होने से मेरे में भी हैं और सबके होने से मेरे भी हैं – ऐसा भाव रखने वाला ही ‘मद्भक्तः’ है। ‘सङ्गवर्जितः निर्वैरः सर्वभूतेषु यः’ – केवल भगवान के लिये ही कर्म करने से , केवल भगवान के ही परायण रहने से और केवल भगवान का ही भक्त बनने से क्या होता है इसका उपर्युक्त पदों से वर्णन करते हैं कि वह ‘सङ्गवर्जितः’ हो जाता है अर्थात् उसकी संसार में आसक्ति , ममता और कामना नहीं रहती। आसक्ति , ममता और कामना से ही संसार के साथ सम्बन्ध होता है। भगवान में अनन्य प्रेम होते ही आसक्ति आदि का अत्यन्त अभाव हो जाता है। दूसरी बात – जब भक्त को मैं भगवान का ही अंश हूँ – इस वास्तविकता का अनुभव हो जाता है तब उसका भगवान में प्रेम जाग्रत् हो जाता है। प्रेम जाग्रत् होने पर राग का अत्यन्त अभाव हो जाता है। राग का अत्यन्त अभाव होने से और सर्वत्र भगवद्भाव होने से उसके शरीर के साथ कोई कितना ही दुर्व्यवहार करे , उसको मारे-पीटे , उसका अनिष्ट करे तो भी उसके हृदय में अनिष्ट करने वाले के प्रति किञ्चिन्मात्र भी वैरभाव उत्पन्न नहीं होता। वह उसमें भगवान की ही मरजी , कृपा मानता है। ऐसे भक्त को भगवान ने ‘निर्वैरः सर्वभूतेषु’ कहा है। ‘सङ्गवर्जितः’ और ‘निर्वैरः सर्वभूतेषु’ – इन दोनों का वर्णन करने का तात्पर्य उसका संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है यह बताने में है। संसार से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर स्वतःसिद्ध परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। ‘स मामेति’ – ऐसा वह मेरा भक्त मेरे को ही प्राप्त हो जाता है। ‘स मामेति ‘ में तत्त्व से जानना , दर्शन करना और प्राप्त होना – ये तीनों ही बातें आ जाती हैं जो कि पीछे के (54वें) श्लोक में बतायी गयी हैं। तात्पर्य है कि जिस उद्देश्य से मनुष्य जन्म हुआ है वह उद्देश्य सर्वथा पूर्ण हो जाता है। विशेष बात- श्रीभगवान ने 9वें अध्याय के अन्त में कहा था – ‘मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः’।।(9। 34)। ऐसा कहने पर भी भगवान के मन में यह बात रह गयी कि मैं अपने रहस्य की सब बात किस तरह से , किस रीति से समझाऊँ इसी को समझाने के लिये भगवान ने 10वाँ और 11वाँ अध्याय कहा है। जीव ने उत्पत्तिविनाशशील और नित्य परिवर्तनशील प्रकृति और प्रकृति के कार्य शरीरसंसार का सहारा ले रखा है जिससे यह अविनाशी और नित्य अपरिवर्तनशील भगवान से विमुख हो रहा है। इस विमुखता को मिटाकर जीव को भगवान के सम्मुख करने में ही इन दोनों – 10वें और 11वें अध्याय का तात्पर्य है। इस मनुष्य के पास दो शक्तियाँ हैं – चिन्तन करने की और देखने की। इनमें से जो चिन्तन करने की शक्ति है उसको भगवान की विभूतियों में लगाना चाहिये। तात्पर्य है कि जिस किसी वस्तु , व्यक्ति आदि में जो कुछ विशेषता , महत्ता , विलक्षणता , अलौकिकता दिखे और उसमें मन चला जाय उस विशेषता आदि को भगवान की ही मानकर वहाँ भगवान का ही चिन्तन होना चाहिये। इसके लिये भगवान ने 10वाँ अध्याय कहा है।दूसरी जो देखने की शक्ति है उसको भगवान में लगाना चाहिये। तात्पर्य है कि जैसे भगवान के दिव्य अविनाशी विराट रूप  में अनेक रूप हैं , अनेक आकृतियाँ हैं , अनेक तरह के दृश्य हैं – ऐसे ही यह संसार भी उस विराट्रूपका ही एक अङ्ग है और इसमें अनेक नाम , रूप , आकृति आदि के रूप में परमात्मा ही परमात्मा परिपूर्ण हैं। इस दृष्टि से सबको परमात्मस्वरूप देखे। इसके लिये भगवान ने 11वाँ अध्याय कहा है। अर्जुन ने भी इन दोनों दृष्टियों के लिये दो बार प्रार्थना की है। 10वें अध्याय के 17वें श्लोक में अर्जुन ने कहा कि हे भगवन ! मैं किन-किन भावों में आपका चिन्तन करूँ तो भगवान ने चिन्तनशक्ति को लगाने के लिये अपनी विभूतियों का वर्णन किया। ग्यारहवें अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने कहा कि मैं आपके रूप को देखना चाहता हूँ तो भगवान ने अपना विश्वरूप दिखाया और उसको देखने के लिये अर्जुन को दिव्यचक्षु दिये। तात्पर्य यह हुआ कि साधक को अपनी चिन्तन और दर्शन शक्ति को भगवान के सिवाय दूसरी किसी भी जगह खर्च नहीं करनी चाहिये अर्थात् साधक चिन्तन करे तो परमात्मा का ही चिन्तन करे और जिस किसी को देखे तो उसको परमात्मस्वरूप ही देखे – स्वामी रामसुखदास जी )

 

 

इस प्रकार ॐ तत् सत् इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें विश्वरूपदर्शनयोग नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।11।।

 

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्यायः ॥11॥

 

 

 

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