Contents
VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
05 – 08 भगवान द्वारा अपने विश्व रूप का वर्णन
श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥11.5।।
श्रीभगवान् उवाच-परम् प्रभु ने कहा; पश्य-देखो; मे – मेरा; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन ; रुपाणि-रूप; शतश:-सैकड़ों; अथ-भी; सहस्त्रश:-हजारों; नानाविधानि- विविध रूप वाले; दिव्यानि-दिव्य; नाना–विभिन्न प्रकार के; वर्ण-रंग; आकृतीनि-आकार; च-भी।
श्री भगवान बोले- हे पार्थ! अब तू मेरे सैकड़ों-हजारों विभिन्न प्रकार के रूपों , अनेक वर्णों और विविध आकृति वाले अद्भुत और दिव्य अलौकिक रूपों को देख॥11.5॥
(‘पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ‘ – अर्जुन की संकोचपूर्वक प्रार्थना को सुनकर भगवान अत्यधिक प्रसन्न हुए । अतः अर्जुन के लिये पार्थ सम्बोधन का प्रयोग करते हुए कहते हैं कि तू मेरे रूपों को देख। रूपों में भी तीन-चार नहीं बल्कि सैकड़ों-हजारों रूपों को देख अर्थात् अनगिनत रूपों को देख। भगवान ने जैसे विभूतियों के विषय कहा है कि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं आ सकता । ऐसे ही यहाँ भगवान ने अपने रूपों की अनन्तता बतायी है। ‘नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च’ – अब भगवान उन रूपों की विशेषताओं का वर्णन करते हैं कि उनकी तरह-तरह की बनावट है। उनके रंग भी तरह-तरह के हैं अर्थात् कोई किसी रंग का तो कोई किसी रंग का , कोई पीला तो कोई लाल आदि आदि। उनमें भी एक-एक रूप में कई तरह के रंग हैं। उन रूपों की आकृतियाँ भी तरह-तरह की हैं अर्थात् कोई छोटा तो कोई मोटा , कोई लम्बा तो कोई चौड़ा आदि आदि। जैसे पृथ्वी का एक छोटा सा कण भी पृथ्वी ही है ऐसे ही भगवान के अनन्त , अपार विश्वरूप का एक छोटा सा अंश होने के कारण यह संसार भी विश्वरूप ही है परन्तु यह हरेक के सामने दिव्य विश्वरूप से प्रकट नहीं है बल्कि संसार रूप से ही प्रकट है। कारण कि मनुष्य की दृष्टि भगवान की तरफ न होकर नाशवान संसार की तरफ ही रहती है। जैसे अवतार लेने पर भगवान सबके सामने भगवत रूप से प्रकट नहीं रहते (गीता 7। 25) बल्कि मनुष्यरूप से ही प्रकट रहते हैं । ऐसे ही विश्वरूप भगवान सबके सामने संसाररूप से ही प्रकट रहते हैं अर्थात् हरेक को यह विश्वरूप संसाररूप से ही दिखती है परन्तु यहाँ भगवान अपने दिव्य अविनाशी विश्वरूप से साक्षात प्रकट होकर अर्जुन को कह रहे हैं कि तू मेरे दिव्य रूपों को देख। पूर्वश्लोक में भगवान ने अपने विश्वरूप में तरह-तरह के वर्णों और आकृतियों को देखने की बात कही। अब आगे के श्लोक में देवताओं को देखने की बात कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )