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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11
विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
05 – 08 भगवान द्वारा अपने विश्व रूप का वर्णन
न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥11.8।।
न-कभी नहीं; तु-लेकिन; माम्- मुझको; शक्यसे-तुम समर्थ हो सकते हो; द्रष्टुम् – देखने में; अनेन-इन; एव-भी; स्वचक्षुषा-अपनी भौतिक आँखों से; दिव्यम्-दिव्य; ददामि – देता हूँ; ते-तुमको; चक्षुः-आँखें; पश्य-देखो; मे-मेरी; योगम् ऐश्वरम् – अद्भुत आश्चर्य।
परन्तु तू इन प्राकृत नेत्रों द्वारा मुझे देखने में अर्थात मेरे दिव्य ब्रह्माण्डीय स्वरूप को देखने में निःसंदेह समर्थ नहीं है, इसीलिए मैं तुझे दिव्य दृष्टि अर्थात अलौकिक चक्षु प्रदान करता हूँ, इससे अब तू मेरी ईश्वरीय योग शक्ति ( ईश्वर-सम्बन्धी सामर्थ्य ) अर्थात दिव्य विभूतियों को देख॥11.8॥
( ‘न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ‘ – तुम्हारे जो चर्मचक्षु हैं इनकी शक्ति बहुत अल्प और सीमित है। प्राकृत होने के कारण ये चर्मचक्षु केवल प्रकृति के तुच्छ कार्य को ही देख सकते हैं अर्थात् प्राकृत मनुष्य पशु , पक्षी आदि के रूपों को , उनके भेदों को तथा धूप-छाया आदि के रूपों को ही देख सकते हैं परन्तु वे मन-बुद्धि-इन्द्रियों से अतीत मेरे रूप को नहीं देख सकते। ‘दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्’ – मैं तुझे अतीन्द्रिय , अलौकिक रूप को देखने की सामर्थ्य वाले दिव्यचक्षु देता हूँ अर्थात् तेरे इन चर्मचक्षुओं में ही दिव्य शक्ति प्रदान करता हूँ जिससे तू अतीन्द्रिय , अलौकिक पदार्थ भी देख सके और साथ-साथ उनकी दिव्यता को भी देश सके। यद्यपि दिव्यता देखना नेत्र का विषय नहीं है बल्कि बुद्धि का विषय है तथापि भगवान कहते हैं , मेरे दिये हुए दिव्यचक्षुओं से तू दिव्यता को अर्थात् मेरे ईश्वरसम्बन्धी अलौकिक प्रभाव को भी देख सकेगा। तात्पर्य है कि मेरा विराट रूप देखने के लिये दिव्यचक्षुओं की आवश्यकता है। ‘पश्य’ क्रिया के दो अर्थ होते हैं – बुद्धि (विवेक) से देखना और नेत्रों से देखना। 9वें अध्याय के 5वें श्लोक में भगवान ने ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ कहकर बुद्धि के द्वारा देखने (जानने ) की बात कही थी। अब यहाँ ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ कहकर नेत्रों के द्वारा देखने की बात कहते हैं।विशेष बात – जैसे किसी जगह श्रीमद्भगवद्गीता – ऐसा लिखा हुआ है। जिनको वर्णमाला का बिलकुल ज्ञान नहीं है उनको तो इसमें केवल काली-काली लकीरें दिखती हैं और जिनको वर्णमाला का ज्ञान है , उनको इसमें अक्षर दिखते हैं परन्तु जो पढ़ा-लिखा है और जिसको गीता का गहरा मनन है उसको श्रीमद्भगवद्गीता – ऐसा लिखा हुआ दिखते ही गीता के अध्यायों की , श्लोकों की , भावों की सब बातें दिखने लग जाती हैं। ऐसे ही अर्जुन को जब भगवान ने दिव्यचक्षु दिये तब उनको अलौकिक विश्वरूप तथा उसकी दिव्यता भी दिखने लगी जो कि साधारण बुद्धि का विषय नहीं है। यह सब सामर्थ्य भगवत्प्रदत्त दिव्यचक्षु की ही थी। अब यहाँ एक शङ्का होती है कि जब अर्जुन ने चौथे श्लोक में कहा कि अगर मैं आपके विश्वरूप को देख सकता हूँ तो आप अपने विश्वरूप को दिखा दीजिये तब उसके उत्तर में भगवान को यह 8वाँ श्लोक कहना चाहिये था कि तू अपने इन चर्मचक्षुओं से मेरे विश्वरूप को नहीं देख सकता इसलिये मैं तेरे को दिव्यचक्षु देता हूँ परन्तु भगवान ने वहाँ ऐसा नहीं कहा बल्कि दिव्यचक्षु देने से पहले ही पश्य-पश्य कहकर बार-बार देखने की आज्ञा दी। जब अर्जुन को दिखा नहीं तब उनको न दिखने का कारण बताया और फिर दिव्यचक्षु देकर उसका निराकरण किया। अतः इतनी झंझट भगवान ने की ही क्यों ? साधक पर भगवान की कृपा का क्रमशः कैसे विस्तार होता है? यह बताने के लिये ही भगवान ने ऐसा किया है क्योंकि भगवान का ऐसा ही स्वभाव है। भगवान अत्यधिक कृपालु हैं। उन कृपासागर की कृपा का कभी अन्त नहीं आता। भक्तों पर कृपा करने के उनके विचित्र-विचित्र ढंग हैं। जैसे पहले तो भगवान ने अर्जुन को उपदेश दिया। उपदेश के द्वारा अर्जुन के भीतर के भावों का परिवर्तन कराकर उनको अपनी विभूतियों का ज्ञान कराया। उन विभूतियों को जानने से अर्जुन में एक विलक्षणता आ गयी जिससे उन्होंने भगवान से कहा कि आपके अमृतमय वचन सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं हो रही है। विभूतियोंका वर्णन करके अन्त में भगवान ने कहा कि ऐसे (तरह-तरह की विभूतियों वाले) अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे एक अंश में पड़े हुए हैं। जिसके एक अंश में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं उस विराट रूप को देखने के लिये अर्जुन की इच्छा हुई और इसके लिये उन्होंने प्रार्थना की। इस पर भगवान ने अपना विराट रूप दिखाया और उसको देखने के लिये बार-बार आज्ञा दी परन्तु अर्जुन को विराट रूप दिखा ही नहीं। तब उनको भगवान ने दिव्यचक्षु प्रदान किये। सारांश यह हुआ कि भगवान ने ही विराट रूप देखने की जिज्ञासा प्रकट की। जिज्ञासा प्रकट करके विराट रूप दिखाने की इच्छा प्रकट की। इच्छा प्रकट करने पर विराट रूप दिखाया। अर्जुन को नहीं दिखा तो दिव्यचक्षु देकर इसकी पूर्ति की। तात्पर्य यह निकला कि भगवान के शरण होने पर शरणागत का सब काम करने की जिम्मेवारी भगवान अपने ऊपर ले लेते हैं। दिव्यचक्षु प्राप्त करके अर्जुन ने भगवान का कैसा रूप देखा ? यह बात सञ्जय धृतराष्ट्र से आगे के श्लोक में कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )