Chapter 3 Bhagavad Gita Karm Yog

 

 

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कर्मयोग ~ अध्याय तीन

09-16 यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन

 

 

Bhagavad gita chapter 3कर्म ब्रह्योद्भवं विद्धि बह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं। ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥3 .15॥

 

कर्म-कर्त्तव्यः ब्रह्म-वेदों में; उद्भवम्-प्रकट; विद्धि-तुम्हें जानना चाहिए; ब्रह्म-वेद; अक्षर-अविनाशी परब्रह्म से; समुद्भवम् – साक्षात प्रकट हुआ; तस्मात्-अतः; सर्व-गतम् – सर्वव्यापी; ब्रह्म-भगवान; नित्यम्-शाश्वत; यज्ञ-यज्ञ में ; प्रतिष्ठितम्-स्थित रहना।

 

वेदों में सभी जीवों के लिए कर्म निश्चित किए गए हैं अर्थात  कर्म या कर्त्तव्य वेद से उत्पन्न हुए हैं और वेद साक्षात अविनाशी परब्रह्म भगवान से प्रकट हुए हैं। परिणामस्वरूप सर्वव्यापक परम अक्षर परमात्मा सभी यज्ञ कर्मों ( यज्ञ ) में नित्य व्याप्त या स्थित रहते हैं।।3 .15।।

 

( “कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि वेद” कर्तव्यकर्मों को करने की विधि बताते हैं (गीता 4। 32)। मनुष्य को कर्तव्यकर्म करने की विधि का ज्ञान वेद से होने के कारण ही कर्मों को वेद से उत्पन्न कहा गया है। वेद शब्द के अन्तर्गत ऋग्वेद , यजुर्वेद ,सामवेद और अथर्ववेद के साथ-साथ स्मृति , पुराण , इतिहास (रामायण , महाभारत) एवं भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय के आचार्यों के अनुभव, वचन आदि समस्त वेदानुकूल सत्शास्त्रों को ग्रहण कर लेना चाहिये। “”ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् यहाँ ब्रह्म पद वेद का वाचक है। वेद सच्चिदानन्दघन परमात्मा से ही प्रकट हुए हैं (गीता 17।23)। इस प्रकार परमात्मा सबके मूल हुए। परमात्मा से वेद प्रकट होते हैं। वेद कर्तव्यपालन की विधि बताते हैं। मनुष्य उस कर्तव्य का विधिपूर्वक पालन करते हैं। कर्तव्यकर्मों के पालन से यज्ञ होता है और यज्ञ से वर्षा होती है। वर्षा से अन्न होता है , अन्न से प्राणी होते हैं और उन्हीं प्राणियों में से मनुष्य कर्तव्यकर्मों के पालन से यज्ञ करते हैं (टिप्पणी प0 138)। इस तरह यह सृष्टिचक्र चल रहा है। “तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ” यहाँ ‘ब्रह्म’ पद अक्षर (सगुण-निराकार परमात्मा) का वाचक है। अतः सर्वगत (सर्वव्यापी) परमात्मा हैं वेद नहीं। सर्वव्यापी होने पर भी परमात्मा विशेषरूप से यज्ञ (कर्तव्यकर्म) में सदा विद्यमान रहते हैं। तात्पर्य यह है कि जहाँ निष्कामभाव से कर्तव्यकर्म का पालन किया जाता है वहाँ परमात्मा रहते हैं। अतः परमात्मप्राप्ति चाहने वाले मनुष्य अपने कर्तव्यकर्मों के द्वारा उन्हें सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं । “स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः” (गीता 18। 46)। शङ्का – परमात्मा जब सर्वव्यापी हैं तब उन्हें केवल यज्ञ में नित्य प्रतिष्ठित क्यों कहा गया है ? क्या वे दूसरी जगह नित्य प्रतिष्ठित नहीं हैं ? समाधान – परमात्मा तो सभी जगह समान रूप से नित्य विद्यमान हैं। वे अनित्य और एकदेशीय नहीं हैं। इसीलिये उन्हें यहाँ सर्वगत कहा गया है। यज्ञ (कर्तव्यकर्म) में नित्य प्रतिष्ठित कहने का तात्पर्य यह है कि यज्ञ उनका उपलब्धि स्थान है। जमीन में सर्वत्र जल रहनेपर भी वह कुएँ आदि से ही उपलब्ध होता है सब जगहसे नहीं। पाइप में सर्वत्र जल रहने पर भी जल वहीं से प्राप्त होता है जहाँ टोंटी या छिद्र होता है। ऐसे ही सर्वगत होने पर भी परमात्मा यज्ञ से ही प्राप्त होते हैं। अपने लिये कर्म करने से तथा जडता (शरीरादि) के साथ अपना सम्बन्ध मानने से सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्तिमें बाधा (आड़) आ जाती है। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरों के हित के लिये अपने कर्तव्य का पालन करने से यह बाधा हट जाती है और नित्यप्राप्त परमात्मा का स्वतः अनुभव हो जाता है। यही कारण है कि भगवान् अर्जुन को जो कि अपने कर्तव्य से हटना चाहते थे अनेक युक्तियों से कर्तव्य का पालन करने पर विशेष जोर दे रहे हैं। सम्बन्ध-   सृष्टिचक्र के अनुसार चलने अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन करने की जिम्मेवारी मनुष्य पर ही है। अतः जो मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता उसकी ताड़ना भगवान् आगे के श्लोक में करते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )

 

 

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