कर्मयोग ~ अध्याय तीन
09-16 यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥3 .14॥
अन्नात्-अन्न पदार्थ; भवन्ति–निर्भर होता है; भूतानि-जीवों को पर्जन्यात्-वर्षा से; अन्न खाद्यान्न सम्भवः-उत्पादन; यज्ञात्-यज्ञ सम्पन्न करने से; भवति–सम्भव होती है। पर्जन्य:-वर्षा; यज्ञः-यज्ञ का सम्पन्न होना; कर्म-निश्चित कर्त्तव्य से; समुद्भवः-उत्पन्न होता है।
सभी लोग अन्न पर निर्भर हैं अर्थात सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न वर्षा से उत्पन्न होता हैं, वर्षा यज्ञ का अनुष्ठान करने से होती है और यज्ञ निर्धारित कर्मों का पालन करने से सम्पन्न या उत्पन्न होता है।।3 .14।।
(“अन्नाद्भवन्ति भूतानि ” प्राणों को धारण करने के लिये जो खाया जाता है वह अन्न (टिप्पणी प0 136.2) कहलाता है। जिस प्राणी का जो खाद्य है जिसे ग्रहण करने से उसके शरीर की उत्पत्ति , भरण और पुष्टि होती है उसे ही यहाँ अन्न नाम से कहा गया है जैसे मिट्टी का कीड़ा मिट्टी खाकर जीता है तो मिट्टी ही उसके लिये अन्न है। जरायुज (मनुष्य , पशु आदि) , उद्भिज्ज (वृक्षादि) , अण्डज (पक्षी , सर्प , चींटी आदि) और स्वेदज (जूँ आदि) ये चारों प्रकार के प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर अन्न से ही जीवित रहते हैं (टिप्पणी प0 137.1)। “पर्जन्यादन्नसम्भवः” समस्त खाद्य पदार्थों की उत्पत्ति जल से होती है। घासफूस ,अनाज आदि तो जल से होते ही हैं , मिट्टी के उत्पन्न होने में भी जल ही कारण है। अन्न , जल , वस्त्र , मकान आदि शरीरनिर्वाह की सभी सामग्री स्थूल या सूक्ष्म रूप से जल से सम्बन्ध रखती है और जल का आधार वर्षा है। ‘यज्ञाद्भवति पर्जन्यः ” यज्ञ शब्द मुख्य रूप से आहुति देने की क्रिया का वाचक है परन्तु गीता के सिद्धान्त और कर्मयोग के प्रस्तुत प्रकरण के अनुसार यहाँ यज्ञ शब्द सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों का उपलक्षक है। यज्ञ में त्याग की ही मुख्यता होती है। आहुति देने में अन्न , घी आदि चीजों का त्याग है , दान करने में वस्तु का त्याग है , तप करने में अपने सुख-भोग का त्याग है , कर्तव्यकर्म करने में अपने स्वार्थ ,आराम आदि का त्याग है। अतः यज्ञ शब्द यज्ञ (हवन) , दान , तप आदि सम्पूर्ण शास्त्रविहित क्रियाओं का उपलक्षक है। बृहदारण्यक उपनिषद में एक कथा आती है। प्रजापति ब्रह्माजी ने देवता , मनुष्य और असुर इन तीनों को रचकर उन्हें ‘द ‘ इस अक्षर का उपदेश दिया। देवताओं के पास भोगसामग्री की अधिकता होने के कारण उन्होंने ‘द ‘ का अर्थ ‘दमन करो’ समझा। मनुष्यों में संग्रह की प्रवृत्ति अधिक होने के कारण उन्होंने ‘द ‘ का अर्थ ‘दान करो’ समझा। असुरों में हिंसा ( दूसरों को कष्ट देने ) का भाव अधिक होने के कारण उन्होंने ‘द ‘ का अर्थ ‘दया करो ‘ समझा। इस प्रकार देवता , मनुष्य और असुर तीनों को दिये गये उपदेश का तात्पर्य दूसरों का हित करने में ही है। वर्षा के समय मेघ जो ‘द’ , ‘ द ‘ , ‘द ‘ की गर्जना करता है वह आज भी ब्रह्माजी के उपदेश (दमन करो , दान करो , दया करो ) के रूप से कर्तव्यकर्मों की याद दिलाता है (बृहदारण्यक0 5। 2। 13)। अपने कर्तव्यकर्म का पालन करने से वर्षा कैसे होगी ? वचन की अपेक्षा अपने आचरण का असर दूसरों पर स्वाभाविक रूप से अधिक पड़ता है – ‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः’ (गीता 3। 21)। मनुष्य अपने-अपने कर्तव्यकर्म का पालन करेंगे तो उसका असर देवताओं पर भी पड़ेगा जिससे वे भी अपने कर्तव्य का पलन करेंगे , वर्षा करेंगे। (गीता 3। 11)। इस विषय में एक कहानी है। चार किसान बालक थे। आषाढ़ का महीना आने पर भी वर्षा नहीं हुई तो उन्होंने विचार किया कि हल चलाने का समय आ गया है , वर्षा नहीं हुई तो न सही हम तो समय पर अपने कर्तव्य का पालन कर दें। ऐसा सोचकर उन्होंने खेत में जाकर हल चलाना शुरू कर दिया। मोरों ने उनको हल चलाते देखा तो सोचा कि बात क्या है वर्षा तो अभी हुई नहीं फिर ये हल क्यों चला रहे हैं ? जब उनको पता लगा कि ये अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने कर्तव्य का पालन करनेमें पीछे क्यों रहें । ऐसा सोचकर मोर भी बोलने लग गये। मोरों की आवाज सुनकर मेघों ने विचार किया कि आज हमारी गर्जना सुने बिना मोर कैसे बोल रहे हैं ? सारी बात पता लगने पर उन्होंने सोचा कि हम अपने कर्तव्य से क्यों हटें और उन्होंने भी गर्जना करनी शुरू कर दी। मेघों की गर्जना सुनकर इन्द्र ने सोचा कि बात क्या है ? जब उसको मालूम हुआ कि वे अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं तब उसने सोचा कि अपने कर्तव्य का पालन करनेमें मैं पीछे क्यों रहूँ ? ऐसा सोचकर इन्द्र ने भी मेघों को वर्षा करने की आज्ञा दे दी। “यज्ञः कर्मसमुद्भवः ” निष्कामभावपूर्वक किये जाने वाले लौकिक और शास्त्रीय सभी विहित कर्मों का नाम यज्ञ है। ब्रह्मचारी के लिये अग्निहोत्र करना यज्ञ है। ऐसे ही स्त्रियों के लिये रसोई बनाना यज्ञ है (टिप्पणी प0 137.2)। आयुर्वेद का ज्ञाता केवल लोगों के हित के लिये वैद्य के कर्म करे तो उसके लिये वही यज्ञ है। इसी तरह विद्यार्थी अपने अध्ययन को और व्यापारी अपने व्यापार को (यदि वह केवल दूसरों के हित के लिये निष्कामभाव से किया जाय) यज्ञ मान सकते हैं। इस प्रकार वर्ण , आश्रम , देश , काल की मर्यादा रखकर निष्कामभाव से किये गये सभी शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म यज्ञ रूप होते हैं। यज्ञ किसी भी प्रकार का हो क्रियाजन्य ही होता है। संखिया , भिलावा आदि विषों को भी वैद्यलोग जब शुद्ध करके औषधरूप में देते हैं तब वे विष भी अमृत की तरह होकर बड़े-बड़े रोगों को दूर करने वाले बन जाते हैं। इसी प्रकार कामना , ममता , आसक्ति , पक्षपात , विषमता , स्वार्थ , अभिमान आदि सब कर्मों में विष के समान हैं। कर्मों के इस विषैले भाग को निकाल देनेप र वे कर्म अमृतमय होकर जन्म-मरणरूप महान् रोग को दूर करने वाले बन जाते हैं। ऐसे अमृतमय कर्म ही यज्ञ कहलाते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )