Chapter 3 Bhagavad Gita Karm Yog

 

 

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कर्मयोग ~ अध्याय तीन

09-16 यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन

 

 

Bhagavad gita chapter 3

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌ ॥3 .13।।

 

यज्ञशिष्ट – यज्ञ में अर्पित भोजन के अवशेष; अशिनः-सेवन करने वाले; सन्तः-संत लोग; मुच्यन्ते–मुक्ति पाते हैं; सर्व-सभी प्रकार के; किल्बिशैः-पापों से; भुञ्जते–भोगते हैं; ते-वे; तु–लेकिन; अघम्-घोर पाप; पापा:-पापीजन; ये-जो; पचन्ति-भोजन बनाते हैं; आत्मकारणात्-अपने सुख के लिए।

 

यज्ञ से बचे हुए अन्न ( यज्ञ में अर्पित भोजन के अवशेष ) अर्थात पहले यज्ञ में अर्पित करने के पश्चात भोजन ग्रहण करने वाले या यज्ञ के भोग का सेवन करने वाले श्रेष्ठ पुरुष ( आध्यात्मिक मनोवत्ति वाले जो भक्त ) सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण या अपनी इन्द्रिय तृप्ति करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे पापी लोग तो वास्तव में पाप को ही खाते हैं या पाप ही अर्जित (भक्षण ) करते हैं ।।3.13।।

 

( “यज्ञशिष्टाशिनः सन्तः ” कर्तव्यकर्मों का निष्कामभाव से विधिपूर्वक पालन करने पर (यज्ञ-शेष के रूप में) योग अथवा समता ही शेष रहती है। कर्मयोग में यह खास बात है कि संसार से प्राप्त सामग्री के द्वारा ही कर्म होता है। अतः संसार की सेवा में लगा देने पर ही वह कर्म यज्ञ सिद्ध होता है। यज्ञ की सिद्धि के बाद स्वतः अवशिष्ट रहने वाला योग अपने लिये होता है। यह योग (समता) ही यज्ञशेष है जिसको भगवान ने चौथे अध्याय में अमृत कहा है । ‘यज्ञशिष्टामृतभुजः (4। 31)।मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ‘ यहाँ ‘ किल्बिषैः ‘ पद बहुवचनान्त है जिसका अर्थ है सम्पूर्ण पापों से अर्थात् बन्धनों से परन्तु भगवान ने इस पद के साथ सर्व पद भी दिया है जिसका विशेष तात्पर्य यह हो जाता है कि यज्ञशेष का अनुभव करने पर मनुष्य में किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं रहता। उसके सम्पूर्ण (सञ्चित , प्रारब्ध और क्रियमाण ) कर्म विलीन हो जाते हैं (टिप्पणी प0 135) (गीता 4। 23)। सम्पूर्ण कर्मों के विलीन हो जाने पर उसे सनातन ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है (गीता 4। 31)। इसी अध्याय के नवें श्लोक में भगवान ने यज्ञार्थ कर्म से अन्यत्र कर्म को बन्धनकारक बताया और चौथे अध्याय के 23वें श्लोक में यज्ञार्थ कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म विलीन होने की बात कही। इन दोनों श्लोकों (3। 9 तथा 4। 23) में जो बात आयी है वही बात यहाँ ‘सर्वकिल्बिषैः’ पद से कही गयी है। तात्पर्य है कि यज्ञशेष का अनुभव करने वाले मनुष्य सम्पूर्ण बन्धनरूप कर्मों से मुक्त हो जाते हैं। पापकर्म तो बन्धनकारक होते ही हैं सकामभाव से किये गये पुण्यकर्म भी (फलजनक होने से) बन्धनकारक होते हैं। यज्ञशेष (समता) का अनुभव करने पर पाप और पुण्य दोनों ही नहीं रहते । ‘बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ‘ (गीता 2। 50)। अब विचार करें कि बन्धन का वास्तविक कारण क्या है ? ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये , इस कामना से ही बन्धन होता है। यह कामना सम्पूर्ण पापों की जड़ है (गीता 3। 37)। अतः कामना का त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है। वास्तव में कामना की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। कामना अभाव से उत्पन्न होती है और स्वयं (सत्स्वरूप) में किसी प्रकार का अभाव है ही नहीं और हो सकता भी नहीं। इसलिये स्वयं में कामना है ही नहीं। केवल भूल से शरीरादि असत् पदार्थों के साथ अपनी एकता मानकर मनुष्य असत् पदार्थों के अभाव से अपने में अभाव मानने लगता है और उस अभाव की पूर्ति के लिये असत् पदार्थों की कामना करने लगता है। साधक को इस बात की तरफ खयाल करना चाहिये कि आरम्भ और समाप्त होने वाली क्रियाओं से उत्पन्न और नष्ट होने वाले पदार्थ ही तो मिलेंगे। ऐसे उत्पत्तिविनाश शील पदार्थों से मनुष्य के अभाव की पूर्ति कभी हो ही नहीं सकती। जब इन पदार्थों से अभाव की पूर्ति होने का प्रश्न ही नहीं है तो फिर इन पदार्थों की कामना करना भी भूल ही है। ऐसा ठीक-ठीक विचार करनेसे कामना की निवृत्ति सहज हो सकती है। हाँ अपने कहलाने वाले शरीरादि पदार्थों को कभी भी अपना तथा अपने लिये न मानकर दूसरों की सेवा में लगाने से इन पदार्थों से स्वतः सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है जिससे तत्काल अपने सत्स्वरूप का बोध हो जाता है। फिर कोई अभाव शेष नहीं रहता। जिसके मन में किसी प्रकार के अभाव की मान्यता (कामना) नहीं रहती वह मनुष्य जीते जी ही संसार से मुक्त है। ये ‘पचन्त्यात्मकारणात् ‘ अपने लिये कुछ भी चाहने का भाव अर्थात् स्वार्थ , कामना , ममता , आसक्ति एवं अपने को अच्छा कहलाने का किञ्चित् भी भाव  “आत्मकारणात् ” पद के अन्तर्गत आ जाता है। मनुष्य में स्वार्थ बुद्धि जितनी ज्यादा होती है वह उतना ही ज्यादा पापी होता है। यहाँ ‘पचन्ति ‘ पद उपलक्षक है जिसका अर्थ केवल पकाने से ही न होकर खाना , पीना , चलना , बैठना आदि समस्त सांसारिक क्रियाओं की सिद्धि से है। अपना स्वार्थ चाहने वाला व्यक्ति अपने लिये पकाये (कार्य करे) अथवा दूसरे के लिये वास्तव में वह अपने लिये ही पकाता है। इसके विपरीत अपने स्वार्थभाव का त्याग करके कर्तव्यकर्म करने वाला साधक अपने कहलाने वाले शरीर के लिये पकाये अथवा दूसरे के लिये वास्तव में वह दूसरे के लिये ही पकाता है। संसार से हमें जो भी सामग्री मिली है उसे संसार की सेवा में न लगाकर अपने सुख भोग में लगाना ही अपने लिये पकाना है। संसार के छोटे से छोटे अंश शरीर को अपना और अपने लिये मानना महान् पाप है परन्तु शरीर को अपना न मानकर इसको आवश्यकतानुसार अन्न , जल , वस्तु आदि देना और इसको आलसी , प्रमादी ,भोगी नहीं होने देना इस शरीर की सेवा है जिससे शरीर में ममता , आसक्ति नहीं रहती। मनुष्य को अपने कर्मों का फल स्वयं भोगना पड़ता है परन्तु उसके द्वारा किये गये कर्मों का प्रभाव सम्पूर्ण संसार पर पड़ता है। अपने लिये कर्म करने वाला मनुष्य अपने कर्तव्य से च्युत हो जाता है और अपने कर्तव्य से च्युत होने पर ही राष्ट्र में अकाल महामारी मृत्यु आदि महान् कष्ट होते हैं। अतः मनुष्य के लिये उचित है कि वह अपने लिये कुछ भी न करे अपना कुछ भी न माने तथा अपने लिये कुछ भी न चाहे। कर्मफल (उत्पन्न और नष्ट होने वाली वस्तुमात्र ) का आश्रय लेना अपने लिये पकाने के अन्तर्गत है। इसीलिये भगवान ने छठे अध्याय के पहले श्लोक में “अनाश्रितः कर्मफलम् ” पदों से कर्मयोगी को कर्मफल का आश्रय न लेने के लिये कहा है। सर्वथा अनाश्रित हो जाने पर ही मनुष्य अपने लिये कुछ नहीं करता जिससे वह योग में स्थित हो जाता है। ‘ भुञ्जते ते त्वघं पापाः ‘ इस पदों में भगवान ने अपने लिये कर्म करने वालों की सभ्य भाषा में निन्दा की है। अपने लिये किये गये कर्मों से वह इतना पापसंग्रह कर लेता है कि चौरासी लाख योनियों एवं नरकों का दुःख भोगने पर भी वह खत्म नहीं होता बल्कि सञ्चित के रूप में बाकी रह जाता है। मनुष्य योनि एक ऐसा अद्भुत खेत है जिसमें जो भी पाप या पुण्य का बीज बोया जाता है वह अनेक जन्मों तक फल देता है (टिप्पणी प0 136.1)। अतः मनुष्य को तुरंत यह निश्चय कर लेना चाहिये कि अब मैं पाप (अपने लिये कर्म) नहीं करूँगा। इस निश्चय में बड़ी भारी शक्ति है। सच तो यह है कि परमात्मा की तरफ चलने का दृढ़ निश्चय होने पर पाप होना स्वतः रुक जाता है। सम्बन्ध – मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं ? अर्जुन के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान अनेक कारण देते हुए आगे के दो श्लोकों में सृष्टिचक्र की सुरक्षा के लिये भी यज्ञ (कर्तव्यकर्म) करने की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हैं – स्वामी रामसुखदासजी )

 

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