कर्मयोग ~ अध्याय तीन
09-16 यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥3 .16।।
एवम्-इस प्रकार; प्रवर्तितम्-कार्यशील होना; चक्रम-चक्र; न-नहीं; अनुवर्तयति-पालन करना; इह-इस जीवन में; यः-जो; अघ आयुः-पापपूर्ण जीवन, पापमय जीवन ; इन्द्रिय आरामः-इन्द्रियों का सुख; मोघम्-व्यर्थ; पार्थ-पृथापुत्र अर्जुनः सः-वे; जीवति-जीवित रहता है।
हे पार्थ! जो मनुष्य वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ कर्म के चक्र का पालन करने के अपने दायित्व का निर्वाहन नहीं करते अर्थात इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल नहीं चलता ( अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता ) वे केवल पापमय जीवन जीते हैं और पाप ही अर्जित करते हैं, वे केवल अपनी इन्द्रियों की तृप्ति और भोगों में रमण करने के लिए ही जीवित रहते हैं, वास्तव में उनका जीवन व्यर्थ ही है ऐसा पापायु मनुष्य व्यर्थ ही जीता है ।।3.16।।
(पार्थ नवें श्लोक में प्रारम्भ किये हुए प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान यहाँ अर्जुन के लिये पार्थ सम्बोधन देकर मानो यह कह रहे हैं कि तुम उसी पृथा (कुन्ती) के पुत्र हो जिसने आजीवन कष्ट सहकर भी अपने कर्तव्य का पालन किया था। अतः तुम्हारे से भी अपने कर्तव्य की अवहेलना नहीं होनी चाहिये। जिस युद्ध को तू घोर कर्म कह रहा है वह तेरे लिये घोर कर्म नहीं बल्कि यज्ञ (कर्तव्य) है। इसका पालन करना ही सृष्टिचक्र के अनुसार बरतना है और इसका पालन न करना सृष्टिचक्र के अनुसार न बरतना है। “एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ” जैसे रथ के पहिये का छोटा सा अंश भी टूट जाने पर रथ के समस्त अङ्गों को एवं उस पर बैठे रथी और सारथि को धक्का लगता है ऐसे ही जो मनुष्य 14वें & 15वें श्लोकों में वर्णित सृष्टिचक्र के अनुसार नहीं चलता वह समष्टि सृष्टि के संचालन में बाधा डालता है। संसार और व्यक्ति दो (विजातीय) वस्तु नहीं हैं। जैसे शरीर का अङ्गों के साथ और अङ्गों का शरीर के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है ऐसे ही संसार का व्यक्ति के साथ और व्यक्ति का संसार के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। जब व्यक्ति कामना , ममता , आसक्ति और अहंता का त्याग करके अपने कर्तव्य का पालन करता है तब उससे सम्पूर्ण सृष्टि में स्वतः सुख पहुँचता है। “इन्द्रियारामः ” जो मनुष्य कामना , ममता , आसक्ति आदि से युक्त होकर इन्द्रियों के द्वारा भोग भोगता है उसे यहाँ भोगों में रमण करने वाला कहा गया है। ऐसा मनुष्य पशु से भी नीचा है क्योंकि पशु नये पाप नहीं करता बल्कि पहले किये गये पापों का ही फल भोगकर निर्मलता की ओर जाता है परन्तु “इन्द्रियाराम” मनुष्य नये-नये पाप करके पतन की ओर जाता है और साथ ही सृष्टिचक्र में बाधा उत्पन्न करके सम्पूर्ण सृष्टि को दुःख पहुँचाता है। “अघायुः ” सृष्टि चक्र के अनुसार न चलने वाले मनुष्य की आयु उसका जीवन केवल पापमय है। कारण कि इन्द्रियों के द्वारा भोगबुद्धि से भोग भोगने वाला मनुष्य हिंसारूप पाप से बच ही नहीं सकता। स्वार्थी , अभिमानी और भोग तथा संग्रह को चाहने वाले मनुष्य के द्वारा दूसरों का अहित होता है अतः ऐसे मनुष्य का जीवन पापमय होता है। गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी कहते हैं – पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद। ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद।। (मानस 7। 39)”मोघं पार्थ स जीवति ” अपने कर्तव्य का पालन न करने वाले मनुष्य की सभ्य भाषा में निन्दा या ताड़ना करते हुए भगवान् कहते हैं कि ऐसा मनुष्य संसार में व्यर्थ ही जीता है अर्थात् वह मर जाय तो अच्छा है तात्पर्य यह है कि यदि वह अपने कर्तव्य का पालन करके सृष्टि को सुख नहीं पहुँचाता तो कम से कम दुःख तो न पहुँचाये। जैसे भगवान् श्रीराम के वनवास के समय अयोध्यावासियों के चित्रकूट आने पर कोल , किरात , भील आदि जंगली लोगों ने उनसे कहा था कि हम आपके वस्त्र और बर्तन नहीं चुरा लेते यही हमारी बहुत बड़ी सेवा है । यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहिं न बासन बसन चोराई।। (मानस 2।251।2) ऐसे ही अपने कर्तव्य का पालन न करने वाले मनुष्य कम से कम सृष्टिचक्र में बाधा न डालें तो यह उनकी सेवा ही है। सृष्टिचक्र के अनुसार न चलने वाले मनुष्य के लिये भगवान ने पहले “स्तेन एव सः” (3। 12) वह चोर ही है और “भुञ्जते ते त्वघम्” (3। 13) वे तो पाप को ही खाते हैं इस प्रकार कहा और अब इस श्लोक में “अघायुरिन्द्रियारामः” वह पापायु और इन्द्रियाराम है , ऐसा कहकर उसके जीने को भी व्यर्थ बताते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने भी कहा है – तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा।। उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके।। (मानस 1। 4। 3)सम्बन्ध संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये जो अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता उस मनुष्य की पूर्वश्लोक में ताड़ना की गयी है परन्तु जिसने अपने कर्तव्य का पालन करके संसार से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है उस महापुरुष की स्थिति का वर्णन भगवान आगे के दो श्लोकों में करते हैं- स्वामी रामसुखदासजी )