कर्मयोग ~ अध्याय तीन
17-24 ज्ञानवानऔर भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।3.17।।
यः-जो; तु-लेकिन; आत्म-रतिः-अपनी आत्मा में ही रमण करना; एव-निश्चय ही; स्यात्-रहता है; आत्म-तृप्तः-आत्म संतुष्टि; च-तथा; मानव:-मनुष्य; आत्मनि-अपनी आत्मा में; एव-निश्चय ही; च-और; सन्तुष्ट:-सन्तुष्ट; तस्य-उसका; कार्यम्-कर्त्तव्य; न-नहीं; विद्यते-रहता।
लेकिन जो मनुष्य आत्मानंद में स्थित रहते हैं अर्थात अपने-आप में ही रमण करने वाले , अपनी आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो उनके लिए कोई निश्चित रूप से कोई कर्त्तव्य नहीं रहता।।3.17।।
(“यस्त्वात्मरतिरेव ৷৷. च संतुष्टस्तस्य ” यहाँ तु पद पूर्वश्लोक में वर्णित अपने कर्तव्य का पालन न करने वाले मनुष्य से कर्तव्यकर्म के द्वारा सिद्धि को प्राप्त महापुरुष की विलक्षणता बताने के लिये प्रयुक्त हुआ है। जब तक मनुष्य अपना सम्बन्ध संसार से मानता है तब तक वह अपनी रति (प्रीति) इन्द्रियों के भोगों से एवं स्त्री , पुत्र , परिवार आदि से ; तृप्ति भोजन (अन्न-जल) से तथा सन्तुष्टि धन से मानता है परन्तु इसमें उसकी प्रीति , तृप्ति और सन्तुष्टि न तो कभी पूर्ण ही होती है और न निरन्तर ही रहती है। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील जड और नाशवान् है तथा स्वयं सदा एकरस रहने वाला चेतन और अविनाशी है। तात्पर्य है कि स्वयं का संसार के साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं है। अतः स्वयं की प्रीति , तृप्ति और सन्तुष्टि संसार से कैसे हो सकती है ? किसी भी मनुष्य की प्रीति संसार में सदा नहीं रहती यह सभी का अनुभव है। विवाह के समय स्त्री और पुरुष में परस्पर जो प्रीति या आकर्षण प्रतीत होता है वह एक-दो सन्तान होने के बाद नहीं रहता। कहीं-कहीं तो स्त्रियाँ अपने वृद्ध पति के लिये यहाँ तक कह देती हैं कि बुड्ढा मर जाय तो अच्छा है । भोजन करने से प्राप्त तृप्ति भी कुछ ही समय के लिये प्रतीत होती है । मनुष्य को धनप्राप्ति में जो सन्तुष्टि प्रतीत होती है वह भी क्षणिक होती है क्योंकि धन की लालसा सदा उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है। इसलिये कमी निरन्तर बनी रहती है। तात्पर्य यही है कि संसार में प्रीति , तृप्ति और संतुष्टि कभी स्थायी नहीं रह सकती। मनुष्य को सांसारिक वस्तुओं में प्रीति , तृप्ति और संतुष्टि की केवल प्रतीति होती है वास्तव में होती नहीं अगर होती तो पुनः अरति , अतृप्ति एवं असन्तुष्टि नहीं होती। स्वरूप से प्रीति , तृप्ति और संतुष्टि स्वतःसिद्ध है। स्वरूप सत् है। सत् में कभी कोई अभाव नहीं होता – “नाभावो विद्यते सतः” (गीता 2। 16) और अभाव के बिना कोई कामना पैदा नहीं होती। इसलिये स्वरूप में निष्कामता स्वतःसिद्ध है परन्तु जब जीव भूल से संसार के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है तब वह प्रीति , तृप्ति और संतुष्टि को संसार में ढूँढ़ने लगता है और इसके लिये सांसारिक वस्तुओं की कामना करने लगता है। कामना करने के बाद जब वह वस्तु (धनादि) मिलती है तब मन में स्थित कामना के निकलने के बाद (दूसरी कामना के पैदा होने से पहले) उसकी अवस्था निष्काम हो जाती है और उसी निष्कामता का उसे सुख होता है परन्तु उस सुख को मनुष्य भूल से सांसारिक वस्तु की प्राप्ति से उत्पन्न हुआ मान लेता है तथा उस सुख को ही प्रीति , तृप्ति और संतुष्टि के नाम से कहता है। अगर वस्तु की प्राप्ति से वह सुख होता तो उसके मिलने के बाद उस वस्तु के रहते हुए सदा सुख रहता दुःख कभी न होता और पुनः वस्तु की कामना उत्पन्न न होती परन्तु सांसारिक वस्तुओं से कभी भी पूर्ण (सदा के लिये) प्रीति , तृप्ति और संतुष्टि प्राप्त न हो सकने के कारण तथा संसार से ममता का सम्बन्ध बना रहने के कारण वह पुनः नयी-नयी कामनाएँ करने लगता है। कामना उत्पन्न होने पर अपने में अभाव का तथा काम्य वस्तु के मिलने पर अपने में पराधीनता का अनुभव होता है। अतः कामना वाला मनुष्य सदा दुःखी रहता है। यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि साधक तो उस सुख का मूल कारण निष्कामता को मानते हैं और दुःखों का कारण कामना को मानते हैं परन्तु संसार में आसक्त मनुष्य वस्तुओं की प्राप्ति से सुख मानते हैं और वस्तुओं की अप्राप्ति से दुःख मानते हैं। यदि आसक्त मनुष्य भी साधक के समान ही यथार्थ दृष्टि से देखे तो उसको शीघ्र ही स्वतःसिद्ध निष्कामता का अनुभव हो सकता है। सकाम मनुष्यों को कर्मयोग का अधिकारी कहा गया है “कर्मयोगस्तु कामिनाम् ” (श्रीमद्भा0 11। 20। 7)। सकाम मनुष्यों की प्रीति तृप्ति और संतुष्टि संसार में होती है। अतः कर्मयोग द्वारा सिद्ध निष्काम महापुरुषों की स्थिति का वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं कि उनकी प्रीति , तृप्ति और संतुष्टि सकाम मनुष्यों की तरह संसार में न होकर अपने-आप (स्वरूप) में ही हो जाती है (गीता 2। 55) जो स्वरूपतः पहले से ही है। वास्तव में प्रीति , तृप्ति और संतुष्टि तीनों अलग-अलग न होते हुए भी संसार के सम्बन्ध से अलग-अलग प्रतीत होती हैं। इसीलिये संसार से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर उस महापुरुष की प्रीति तृप्ति और संतुष्टि तीनों एक ही तत्त्व (स्वरूप) में हो जाती है। भगवान ने इस श्लोक में दो बार तथा आगे के (18वें) श्लोक में एक बार एव और च पदों का प्रयोग किया है। इससे यह भाव प्रकट होता है कि कर्मयोगी की प्रीति तृप्ति और संतुष्टिमें किसी प्रकार की कमी नहीं रहती एवं तत्त्व के अतिरिक्त अन्य की आवश्यकता भी नहीं रहती (गीता 6। 22)। “तस्य कार्यं न विद्यते” मनुष्य के लिये जो भी कर्तव्यकर्म का विधान किया गया है उसका उद्देश्य परम कल्याणस्वरूप परमात्मा को प्राप्ति करना ही है। किसी भी साधन (कर्मयोग , ज्ञानयोग अथवा भक्तियोग) के द्वारा उद्देश्य की सिद्धि हो जाने पर मनुष्य के लिये कुछ भी करना , जानना अथवा पाना शेष नहीं रहता जो मनुष्य जीवन की परम सफलता है।मनुष्य के वास्तविक स्वरूप में किञ्चिन्मात्र अभाव न रहने पर भी जब तक वह संसार के सम्बन्ध के कारण अपने में अभाव समझकर और शरीर को मैं तथा मेरा मानकर अपने लिये कर्म करता है तब तक उसके लिये कर्तव्य शेष रहता ही है परन्तु जब वह अपने लिये कुछ भी न करके दूसरों के लिये अर्थात् शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राणों के लिये ; माता , पिता , स्त्री , पुत्र , परिवार के लिये , समाज के लिये , देशके लिये और जगत के लिये सम्पूर्ण कर्म करता है तब उसका संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर उसका अपने लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता। कारण कि स्वरूप में कोई भी क्रिया नहीं होती। जो भी क्रिया होती है संसार के सम्बन्ध से ही होती है और सांसारिक वस्तु के द्वारा ही होती है। अतः जिनका संसार से सम्बन्ध है उन्हीं के लिये कर्तव्य है। कर्म तब होता है जब कुछ न कुछ पाने की कामना होती है और कामना पैदा होती है अभाव से। सिद्ध महापुरुष में कोई अभाव होता ही नहीं फिर उनके लिये करना कैसा ? कर्मयोग के द्वारा सिद्ध महापुरुष की रति , तृप्ति और संतुष्टि जब अपने आप में ही हो जाती है तब कृत-कृत्य , ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाने से वह विधि-निषेध से ऊँचा उठ जाता है। यद्यपि उस पर शास्त्र का शासन नहीं रहता तथापि उसकी समस्त क्रियाएँ स्वाभाविक ही शास्त्रानुकूल तथा दूसरों के लिये आदर्श होती हैं। यहाँ “तस्य कार्यं न विद्यते ” पदों का अभिप्राय यह नहीं है कि उस महापुरुष से कोई क्रिया होती ही नहीं। कुछ भी करना शेष न रहने पर भी उस महापुरुष के द्वारा लोकसंग्रह के लिये क्रियाएँ स्वतः होती हैं। जैसे पलकों का गिरना-उठना , श्वासों का आना-जाना , भोजन का पचना आदि क्रियाएँ स्वतः (प्रकृति में) होती हैं । ऐसे ही उस महापुरुष के द्वारा सभी शास्त्रानुकूल आदर्शरूप क्रियाएँ भी (कर्तृत्वाभिमान न होने के कारण) स्वतः होती हैं- स्वामी रामसुखदास जी )