कर्मयोग ~ अध्याय तीन
17-24 ज्ञानवानऔर भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥3 .20।।
कर्मणा-निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन करना; एव-केवल; हि-निश्चय ही; संसिद्धिम् – पूर्णता; आस्थिताः-प्राप्त करना; जनक आदयः-राजा जनक तथा अन्य राजा; लोक संङ्ग्रहम् – सामान्य लोगों के या समाज के कल्याण के लिए; एव अपि-केवल; सम्पश्यत्-विचार करते हुए; कर्तुम्- निष्पादन करना; अर्हसि-तुम्हें चाहिए।
राजा जनक आदि ज्ञानीजन ( महापुरुष ) भी आसक्ति रहित निर्धारित कर्त्तव्य कर्मों का पालन करने के कारण ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं , इसलिए तथा समाज के कल्याण के लिए और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए भी तू अपने निर्धारित कर्त्तव्य कर्म का पालन करने के ही योग्य है अर्थात तुझे अपने नियत कर्म का निष्पादन करना ही चाहिए ॥3 .20॥
” कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ” आदि पद प्रभृति (आरम्भ ) तथा प्रकार दोनों का वाचक माना जाता है। यदि यहाँ आये आदि पद को प्रभृति का वाचक माना जाय तो जनकादयः पद का अर्थ होगा जिनके आदि (आरम्भ ) में राजा जनक हैं अर्थात राजा जनक तथा उनके बाद में होने वाले महापुरुष परन्तु यहाँ ऐसा अर्थ मानना ठीक नहीं प्रतीत होता क्योंकि राजा जनक से पहले भी अनेक महापुरुष कर्मों के द्वारा परमसिद्धि को प्राप्त हो चुके थे जैसे सूर्य , वैवस्वत मनु , राजा इक्ष्वाकु आदि (गीता 4। 12)। इसलिये यहाँ आदि पद को प्रकार का वाचक मानना ही उचित है जिसके अनुसार जनकादयः पद का अर्थ है राजा जनक जैसे गृहस्थाश्रम में रहकर निष्कामभाव से सब कर्म करते हुए परमसिद्धि को प्राप्त हुए महापुरुष , जो राजा जनक से पहले तथा बाद में (आज तक) हो चुके हैं।कर्मयोग बहुत पुरातन योग है जिसके द्वारा राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष परमात्मा को प्राप्त हो चुके हैं। अतः वर्तमान में तथा भविष्य में भी यदि कोई कर्मयोग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त करना चाहे तो उसे चाहिये कि वह मिली हुई प्राकृत वस्तुओं (शरीरादि) को कभी अपनी और अपने लिये न माने। कारण कि वास्तव में वे अपनी और अपने लिये हैं ही नहीं बल्कि संसार की और संसार के लिये ही हैं। इस वास्तविकता को मानकर संसार से मिली वस्तुओं को संसार की ही सेवा में लगा देने से सुगमतापूर्वक संसार से सम्बन्ध-विच्छेद होकर परमात्मप्राप्ति हो जाती है। इसलिये कर्मयोग परमात्मप्राप्ति का सुगम श्रेष्ठ और स्वतन्त्र साधन है इसमें कोई सन्देह नहीं। यहाँ कर्मणा एव पदों का सम्बन्ध पूर्वश्लोक के ‘असक्तो ह्याचरन्कर्म’ पदों से अर्थात् आसक्तिरहित होकर कर्म करने से है क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करने से ही मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त होता है केवल कर्म करने से नहीं। केवल कर्म करने से तो प्राणी बँधता है – “कर्मणा बध्यते जन्तुः” (महा0 शान्ति0 241। 7)। वास्तवमें चिन्मय परमात्मा की प्राप्ति जड कर्मों से नहीं होती। नित्यप्राप्त परमात्मा का अनुभव होने में जो बाधाएँ हैं वे आसक्तिरहित होकर कर्म करनेसे दूर हो जाती हैं। फिर सर्वत्र परिपूर्ण स्वतःसिद्ध परमात्मा का अनुभव हो जाता है। इस प्रकार परमात्मतत्त्व के अनुभव में आने वाली बाधाओं को दूर करने के कारण यहाँ कर्म के द्वारा परमसिद्धि (परमात्मतत्त्व) की प्राप्ति की बात कही गयी है। परमात्मप्राप्तिसम्बन्धी मार्मिक बात – मनुष्य सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति की तरह परमात्मा की प्राप्ति को भी कर्मजन्य मान लेते हैं। वे ऐसा विचार करते हैं कि जब किसी बड़े (उच्चपदाधिकारी) मनुष्य से मिलने में भी इतना परिश्रम करना पड़ता है तब अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक परमात्मा से मिलने में तो बहुत ही परिश्रम (तप , व्रत आदि) करना पड़ेगा। वस्तुतः यही साधक की सबसे बड़ी भूल है। मनुष्ययोनि का कर्मों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसलिये मनुष्ययोनि को कर्मसङ्गी अर्थात् कर्मों में आसक्ति वाली कहा गया है – रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते (गीता 14। 15)। यही कारण है कि कर्मों में मनुष्य की विशेष प्रवृत्ति रहती है और वह कर्मों के द्वारा ही अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता है। प्रारब्ध का साथ रहने पर वह कर्मों के द्वारा ही अभीष्ट सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त भी कर लेता है जिससे उसकी यह धारणा पुष्ट हो जाती है कि प्रत्येक वस्तु कर्म करने से ही मिलती है और मिल सकती है। परमात्मा के विषय में भी उसका यही भाव रहता है और वह चेतन परमात्मा को भी जड कर्मों के ही द्वारा प्राप्त करने की चेष्टा करता है परन्तु वास्तविकता यही है कि परमात्मा की प्राप्ति कर्मों के द्वारा नहीं होती। इस विषय को बहुत गम्भीरतापूर्वक समझना चाहिये। कर्मों से नाशवान् वस्तु (संसार) की प्राप्ति होती है , अविनाशी वस्तु (परमात्मा ) की नहीं क्योंकि सम्पूर्ण कर्म नाशवान (शरीर , इन्द्रियाँ , मन आदि ) के सम्बन्ध से ही होते हैं जबकि परमात्मा की प्राप्ति नाशवान से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर होती है। प्रत्येक कर्म का आरम्भ और अन्त होता है इसलिये कर्म के फलरूप प्राप्ति होने वाली वस्तु भी उत्पन्न और नष्ट होने वाली होती है। कर्मों के द्वारा उसी वस्तु की प्राप्ति होती है जो देश-काल आदि की दृष्टि से दूर (अप्राप्य) हो। सांसारिक वस्तु एक देश – काल आदि में रहने वाली , उत्पन्न और नष्ट होने वाली एवं प्रतिक्षण बदलने वाली है। अतः उसकी प्राप्ति कर्मसाध्य है परन्तु परमात्मा सब देश , काल , वस्तु , व्यक्ति आदि में परिपूर्ण (नित्यप्राप्त) (टिप्पणी प0 150) एवं उत्पत्ति-विनाश और परिवर्तन से सर्वथा रहित हैं। अतः उनकी प्राप्ति स्वतःसिद्ध है , कर्मसाध्य नहीं। यही कारण है कि सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति चिन्तन से नहीं होती जबकि परमात्मा की प्राप्ति में चिन्तन मुख्य है। चिन्तन से वही वस्तु प्राप्त हो सकती है जो समीप से समीप हो। वास्तव में देखा जाय तो परमात्मा की प्राप्ति चिन्तनरूप क्रिया से भी नहीं होती। परमात्मा का चिन्तन करने की सार्थकता दूसरे (संसार के) चिन्तन का त्याग कराने में ही है। संसार का चिन्तन सर्वथा छूटते ही नित्यप्राप्त परमात्मा का अनुभव हो जाता है। सर्वव्यापी परमात्मा की हमसे दूरी है ही नहीं और हो सकती भी नहीं। जिससे हम अपनी दूरी नहीं मानते उस मैंपन से भी परमात्मा अत्यन्त समीप हैं। मैंपन तो परिच्छिन्न (एकदेशीय) है पर परमात्मा परिछिन्न नहीं हैं। ऐसे अत्यन्त समीपस्थ नित्यप्राप्त परमात्मा का अनुभव करने के लिये सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति के समान तर्क तथा युक्तियाँ लगाना अपने आपको धोखा देना ही है।सांसारिक वस्तु की प्राप्ति इच्छामात्र से नहीं होती परन्तु परमात्मा की प्राप्ति उत्कट अभिलाषामात्र से हो जाती है। इस उत्कट अभिलाषा के जाग्रत् होने में सांसारिक भोग और संग्रह की इच्छा ही बाधक है दूसरा कोई बाधक है ही नहीं। यदि परमात्मप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा अभी जाग्रत् हो जाय तो अभी ही परमात्मा का अनुभव हो जाय। मनुष्य जीवन का उद्देश्य कर्म करना और उसका फल भोगना नहीं है। सांसारिक भोग और संग्रह की इच्छा के त्यागपूर्वक परमात्मप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा तभी जाग्रत् हो सकती है जब साधक के जीवन भर का एक ही उद्देश्य परमात्मप्राप्ति करना हो जाय। परमात्मा को प्राप्त करने के अतिरिक्त अन्य किसी भी कार्य का कोई महत्त्व न रहे। वास्तव में परमात्मप्राप्ति के अतिरिक्त मनुष्य जीवन का अन्य कोई प्रयोजन है ही नहीं। जरूरत केवल इस प्रयोजन या उद्देश्य को पहचान कर इसे पूरा करने की ही है। यहाँ उद्देश्य और फलेच्छा दोनों में भेद समझ लेना आवश्यक है। नित्य परमात्मतत्त्व को प्राप्त करने का उद्देश्य होता है और अनित्य (उत्पत्तिविनाशशील) पदार्थों को प्राप्त करने की फलेच्छा होती है। उद्देश्य तो पूरा होता है पर फलेच्छा मिटने वाली होती है। स्वरूपबोध और भगवत्प्राप्ति ये दोनों उद्देश्य हैं फल नहीं। उद्देश्य की प्राप्ति के लिये किया गया कर्म सकाम नहीं कहलाता। इसलिये निष्काम पुरुष (कर्मयोगी) के सभी कर्म उद्देश्य को लेकर होते हैं फलेच्छा को लेकर नहीं। कर्मयोग में कर्मों (जडता) से सम्बन्ध-विच्छेद का उद्देश्य रखकर शास्त्रविहित शुभकर्म किये जाते हैं। सकाम पुरुष फल की इच्छा रखकर अपने लिये कर्म करता है और कर्मयोगी फल की इच्छा का त्याग करके दूसरों के लिये कर्म (सेवा) करता है। कर्म ही फलरूप से परिणत होता है। अतः फल का सम्बन्ध कर्म से होता है। उद्देश्य का सम्बन्ध कर्म से नहीं होता। निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करने से परमात्मा दूर है यह धारणा दूर हो जाती है। “लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ” लोक शब्द के तीन अर्थ होते हैं (1) मनुष्य लोक आदि लोक (2) उन लोकों में रहनेवाले प्राणी और (3) शास्त्र (वेदों के अतिरिक्त सब शास्त्र)। मनुष्य लोक की उसमें रहने वाले प्राणियों की और शास्त्रों की मर्यादा के अनुसार समस्त आचरणों (जीवनचर्यामात्र) का होना लोकसंग्रह है। लोकसंग्रह का तात्पर्य है लोकमर्यादा सुरक्षित रखने के लिये लोगों को असत से विमुख करके सत के सम्मुख करने के लिये निःस्वार्थभावपूर्वक कर्म करना। इसको गीता में यज्ञार्थ कर्म के नाम से भी कहा गया है। अपने आचरणों एवं वचनों से लोगों को असत से विमुख करके सत के सम्मुख कर देना बहुत बड़ी सेवा है क्योंकि सत के सम्मुख होने से लोगों का सुधार एवं उद्धार हो जाता है। लोगों को दिखाने के लिये अपने कर्तव्य का पालन करना लोगसंग्रह नहीं है। कोई देखे या न देखे लोकमर्यादा के अनुसार अपने-अपने (वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय आदि के अनुसार) कर्तव्य का पालन करने से लोकसंग्रह स्वतः होता है। कोई भी कर्तव्यकर्म छोटा या बड़ा नहीं होता। छोटा से छोटा और बड़ा से बड़ा कर्म कर्तव्यमात्र समझकर (सेवाभाव से) करने पर समान ही है। देश , काल , परिस्थिति , अवसर , वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय आदि के अनुसार जो कर्तव्यकर्म सामने आ जाय वही कर्म बड़ा होता है। कर्म के स्वरूप और फल की दृष्टि से ही कर्म छोटा या बड़ा , घोर या सौम्य प्रतीत होता है। (टिप्पणी प0 151) फलेच्छा का त्याग करने पर सभी कर्म उद्देश्य की सिद्धि करने वाले हो जाते हैं। अतः जडता से सम्बन्ध-विच्छेद करने में छोटे-बड़े सभी कर्म समान हैं। किसी भी मनुष्य का जीवन दूसरों की सहायता के बिना नहीं चल सकता। शरीर माता-पिता से मिलता है और विद्या योग्यता , शिक्षा आदि गुरुजनों से मिलती है। जो अन्न ग्रहण करते हैं वह दूसरों के द्वारा उत्पन्न किया गया होता है , जो वस्त्र पहनते हैं वे दूसरों के द्वारा बनाये गये होते हैं , जिस मकान में रहते हैं उसका निर्माण दूसरों के द्वारा किया गया होता है , जिस सड़क पर चलते हैं वह दूसरों के द्वारा बनायी गयी होती है आदि आदि। इस प्रकार प्रत्येक मनष्य का जीवननिर्वाह दूसरों के आश्रित है। अतः हरेक मनुष्य पर दूसरों का ऋण है जिसे उतारने के लिये यथाशक्ति दूसरों की निःस्वार्थभाव से सेवा (हित) करना आवश्यक है। अपने कहलाने वाले शरीरादि सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थों को किञ्चिन्मात्र भी अपना और अपने लिये न मानने से मनुष्य ऋण से मुक्त हो जाता है। सम्बन्ध कर्म करने से लोकसंग्रह कैसे होता है इसका विवेचन भगवान् आगे के श्लोकमें करते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )