कर्मयोग ~ अध्याय तीन
25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥3 .31॥
ये-जो; मे – मेरे; मतम्-उपदेशों को; इदम्-इन; नित्यम्-निरन्तर; अनुतिष्ठन्ति–अनुपालन करना; मानवाः-मुनष्यों को ; श्रद्धावन्तः-श्रद्धा-भक्ति सहित; अनसूयन्तः-दोष दृष्टि से मुक्त होकर; मुच्यन्ते – मुक्त हो जाते हैं; ते – वे; अपि-भी; कर्मभिः-कर्म के बन्धनों से।
जो मनुष्य अगाध श्रद्धा और भक्ति के साथ मेरे इन उपदेशों का सदा अनुपालन और अनुसरण करते हैं और दोष दृष्टि से परे या रहित रहते हैं, वे सम्पूर्ण कर्मों के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।।3 .31।।
(“ये मे मतमिदं ৷৷. श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो ” किसी भी वर्ण , आश्रम , धर्म , सम्प्रदाय आदि का कोई भी मनुष्य यदि कर्मबन्धन से मुक्त होना चाहता है तो उसे इस सिद्धान्त को मानकर इसका अनुसरण करना चाहिये। शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ , कर्म आदि कुछ भी अपना नहीं है , इस वास्तविकता को जान लेने वाले सभी मनुष्य कर्मबन्धन से छूट जाते हैं। भगवान् और उनके मत में प्रत्यक्ष की तरह निःसन्देह दृढ़ विश्वास और पूज्यभाव से युक्त मनुष्य को ‘श्रद्धावन्तः’ पद से कहा गया है। शरीरादि जड पदार्थों को अपने और अपने लिये न मानने से मनुष्य मुक्त हो जाता है इस वास्तविकता पर श्रद्धा होने से जडता के माने हुए सम्बन्ध का त्याग करना सुगम हो जाता है।श्रद्धावान् साधक ही सत्शास्त्र , सत्चर्चा और सत्सङ्ग की बातें सुनता है और उनको आचरणों में लाता है। मनुष्य शरीर परमात्मप्राप्ति के लिये ही मिला है। अतः परमात्मा को ही प्राप्त करने की एकमात्र उत्कट अभिलाषा होने पर साधक में श्रद्धा , तत्परता , संयतेन्द्रियता आदि स्वतः आ जाते हैं। अतः साधक को मुख्यरूप से परमात्मप्राप्ति की अभिलाषा ही तीव्र बनाना चाहिये। पीछेके (30वें) श्लोक में भगवान ने अपना जो मत बताया है उसमें दोषदृष्टि न करने के लिये यहाँ ‘अनसूयन्तः ‘ पद दिया गया है। गुणों में दोष देखने को ‘असूया’ कहते हैं। असूया (दोषदृष्टि) से रहित मनुष्यों को यहाँ ‘अनसूयन्तः’ कहा गया है। जहाँ श्रद्धा रहती है वहाँ भी किसी अंश में दोषदृष्टि रह सकती है। इसलिये भगवान ने श्रद्धावन्तः पद के साथ ‘अनसूयन्तः’ पद भी देकर मनुष्य को दोषदृष्टि से सर्वथा रहित (पूर्ण श्रद्धावान्) होने के लिये कहा है। इसी प्रकार गीता श्रवण का माहात्म्य बताते हुए भी भगवान ने “श्रद्धावाननसूयश्च” (गीता 18। 71) पद देकर श्रोता के लिये श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होने की बात कही है। भगवान का मत तो उत्तम है पर भगवान् कितनी आत्मश्लाघा अभिमान की बात कहते हैं कि सब कुछ मेरे ही अर्पण कर दो अथवा यह मत तो अच्छा है पर कर्मों के द्वारा भगवत्प्राप्ति कैसे हो सकती है ? कर्म तो जड और बाँधनेवाले होते हैं आदि आदि भाव आना ही भगवान के मत में दोषदृष्टि करना है। साधक को भगवान और उनके मत दोनों में ही दोषदृष्टि नहीं करनी चाहिये। वास्तव में सब कुछ भगवान का ही है परन्तु मनुष्य भूल से भगवान की वस्तुओं को अपनी मान कर बँध जाता है और ममता – कामना के वश में होकर दुःख पाता रहता है। अतः इस अपनेपन का त्याग करवाकर मनुष्य का उद्धार करने के लिये (कि वह सदा के लिये सुखी हो जाय) भगवान् अपनी सहज करुणा से सब कुछ अपने अर्पण करने की बात करते हैं। अतः इस विषय में दोषदृष्टि करना अनुचित है। यह तो भगवान का परम सौहार्द कारुण्य वात्सल्य ही है कि अपने में कोई अपूर्णता (कमी) और आवश्यकता न होने पर भी केवल मनुष्य के कल्याणार्थ वे समस्त कर्मों को अपने अर्पण करने के लिये कहते हैं। भगवान का मत ही लोक में सिद्धान्त कहलाता है। सर्वोपरि सिद्धान्त को ही यहाँ ‘मतम् ‘ पद से कहा गया है। भगवान ने अपनी सहज सरलता एवं निरभिमानता के कारण सर्वोपरि सिद्धान्त को मत नामसे कहा है। यह मत या सिद्धान्त त्रिकाल में एक जैसा रहता है अर्थात् इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता चाहे कोई श्रद्धा करे या न करे। यहाँ ‘नित्यम् पद मतम्’ का विशेषण नहीं बल्कि ‘अनुतिष्ठन्ति ‘ पद का ही विशेषण है। कारण कि भगवान नित्य हैं अतः उनसे सम्बन्धित समस्त वस्तुएँ भी नित्य ही हैं। भगवान का मत भी नित्य है। भगवान का मत सर्वोपरि सिद्धान्त है और सिद्धान्त वही होता है जो कभी मिटता नहीं। अतः भगवान का मत तो नित्य है ही उसका अनुष्ठान नित्य होना चाहिये। इसलिये यहाँ क्रियाविशेषण ‘नित्यम्’ पद देनेका तात्पर्य है भगवान्के मतपर नित्यनिरन्तर (सदा) स्थित रहना तथा इसके अनुसार अनुष्ठान करना। प्रश्न -भगवान का मत क्या है और उसका सदा अनुष्ठान कैसे किया जाय ? उत्तर – मिली हुई कोई भी वस्तु अपनी नहीं है यह भगवान का मत है। शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण , धन , सम्पत्ति , पदार्थ आदि सब प्रकृति के कार्य हैं और संसार भी प्रकृति का कार्य है। इसलिये इन वस्तुओं की संसार से एकता है तथा परमात्मा का अंश होने से स्वयं की परमात्मा से एकता है। अतः ये वस्तुएँ व्यक्तिगत (अपनी) नहीं हैं बल्कि इनके उपयोग का अधिकार व्यक्तिगत है। इसके सिवाय सद्गुण , सदाचार , त्याग , वैराग्य , दया , क्षमा आदि भी व्यक्तिगत नहीं हैं बल्कि भगवान के हैं। ये दैवी सम्पत्ति अर्थात् भगवत्प्राप्ति की सम्पत्ति (पूँजी) होने से भगवान के ही हैं। यदि ये सद्गुण , सदाचार आदि अपने होते तो इन पर हमारा पूरा अधिकार होता और हमारी सम्मति के बिना किसी दूसरे को इनकी प्राप्ति न होती। इनको अपना मानने से तोअभिमान ही होता है जो आसुरी सम्पत्ति का मूल है। जो वस्तु अपनी नहीं है उसे अपनी मानने से और उसकी प्राप्ति के लिये कर्म करने से ही बन्धन होता है। शरीरादि वस्तुएँ अपनी तो हैं ही नहीं अपने लिये भी नहीं हैं। यदि ये अपने लिये होतीं तो इनकी प्राप्ति से हमें पूर्ण तृप्ति या संतोष हो जाता , पूर्णता का अनुभव हो जाता परन्तु सांसारिक वस्तुएँ कितनी ही क्यों न मिल जायँ कभी तृप्ति नहीं होती। तृप्ति या पूर्णता का अनुभव उस वस्तु (भगवान् ) के मिलने पर होता है जो वास्तव में अपनी है। अपनी वास्तविक वस्तु के मिलने पर फिर स्वप्न में भी कुछ पाने की इच्छा नहीं रहती। जैसे संसार में सभी पुत्रवती स्त्रियाँ माताएँ ही हैं पर बालक को उन सभी माताओं के मिलने से संतोष नहीं होता बल्कि अपनी माता के मिलने से ही संतोष होता है। इसी तरह जब तक और पाने की इच्छा रहती है तब तक यही समझना चाहिये कि अपनी वस्तु मिली ही नहीं। मिली हुई वस्तुओं को भूल से भले ही अपनी मान लें पर वास्तव में वे अपनी हैं नहीं और इसलिये उनसे अपनी तृप्ति भी नहीं होती। अतः मिली हुई कोई भी वस्तु अपनी और अपने लिये नहीं है। शरीरादि प्राप्त वस्तुओं को न तो हम अपने साथ लाये थे और न अपने साथ ले ही जा सकते हैं तथा वर्तमान में भी ये हमारे से प्रतिक्षण वियुक्त हो रही हैं, दूर हो रही हैं । वर्तमान में जो ये अपनी प्रतीत होती हैं वह भी सदुपयोग करने अर्थात् दूसरों के हितमें लगाने के लिये न कि अपना अधिकार जमाने के लिये। अतः हमें प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग करने का ही अधिकार है अपनी मानने का नहीं। भगवान ने मनुष्य को ये वस्तुएँ इतनी उदारतापूर्वक और इस ढंग से दी हैं कि मनुष्य को ये वस्तुएँ अपने ही दिखने लगती हैं। इन वस्तुओं को अपनी मान लेना भगवान की उदारता का दुरुपयोग करना है। जो वस्तुएँ अपनी नहीं हैं पर जिन्हें भूल से अपनी मान लिया है उस भूल को मिटाने के लिये साधक अध्यात्मचित्त से गहरा विचार करके उन्हें भगवान के अर्पण कर दे अर्थात् भूल से माना हुआ अपनापन हटा ले। जिसका एकमात्र उद्देश्य अध्यात्मतत्त्व (परमात्मा) की प्राप्ति का है , ऐसा साधक यदि गम्भीरतापूर्वक विचार करे तो उसे स्पष्टरूप से समझ में आ जायगा कि मिली हुई कोई भी वस्तु अपनी नहीं होती बल्कि बिछुड़ने वाली होती है। शरीर , पद , अधिकार , शिक्षा , योग्यता , धन , सम्पत्ति , जमीन आदि जो कुछ मिला है संसार से ही मिला है और संसार के लिये ही है। मिली हुई वस्तुओं को चाहे संसार (कार्य) का माने चाहे प्रकृति (कारण) का माने और चाहे भगवान् (स्वामी) का माने पर सार (मुख्य) बात यही है कि वे अपनी नहीं हैं। जो वस्तुएँ अपनी नहीं हैं वे अपने लिये कैसे हो सकती हैं ? साधक को न तो कोई वस्तु अपनी माननी है और न कोई कर्म ही अपने लिये करना है। अपने लिये किये गये कर्म बाँधने वाले होते हैं (गीता 3। 9) अर्थात् यज्ञ (निष्कामभावपूर्वक परहित के लिये किये जाने वाले कर्तव्यकर्म) के अतिरिक्त अन्य (अपने लिये किये गये) कर्म मनुष्य को बाँधने वाले होते हैं। यज्ञ के लिये कर्म करने वाले साधक के सम्पूर्ण कर्म सञ्चितकर्म भी विलीन हो जाते हैं (गीता 4। 23)। भगवान् समस्त लोकों के महान् ईश्वर (स्वामी) हैं – “सर्वलोकमहेश्वरम् ” (गीता 5। 29)। जब मनुष्य अपने को वस्तुओं का स्वामी मान लेता है तब वह अपने वास्तविक स्वामी को भूल जाता है क्योंकि वह अपने को जिन वस्तुओं का स्वामी मानता है उसे उन्हीं वस्तुओं का चिन्तन होता है। अतः भगवान को ही विश्व का एकमात्र स्वामी मानते हुए साधक को संसार में सेवक की तरह रहना चाहिये। सेवक अपने स्वामी के समस्त कार्य करते हुए भी अपने को कभी स्वामी नहीं मानता। अतः साधक को शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ आदि को अपना न मानकर केवल भगवान का मानते हुए अपने कर्तव्य का पालन कर देना चाहिये । कर्म करने में निमित्तमात्र बन जाना चाहिये। अपने में स्वामीपने का अभिमान नहीं करना चाहिये। अपना सर्वस्व भगवद-अर्पण करने के बाद लाभ-हानि , मान-अपमान , सुख-दुःख आदि जो कुछ आये उनको भी साधक भगवान का ही माने और उनसे अपना कोई प्रयोजन न रखे। कर्तव्यमात्र प्राप्त परिस्थिति के अनुरूप होता है। परिस्थिति के अनुरूप प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता रहे। यही भगवान के मत का सदा अनुसरण करना है। “मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः” ‘ भगवान् अर्जुन से मानो यह कहते हैं कि मैं तुम्हें तो सर्वस्व मेरे अर्पण करके कर्तव्यकर्म करने की स्पष्ट आज्ञा दे रहा हूँ अतः मेरी आज्ञा का पालन करने से तुम्हारे मुक्त होने में कोई सन्देह नहीं है परन्तु जिनको मैं इस प्रकार स्पष्ट आज्ञा नहीं देता हूँ वे भी अगर इस मत (मिले हुए को अपना न मानकर कर्तव्यकर्म का पालन करना ) के अनुसार चलेंगे तो वे भी मुक्त हो जायेंगे। कारण कि यह मत ही ऐसा है कि चाहे मुझे माने या न माने केवल इस मत का पालन करने से ही मनुष्य मुक्त हो जाता है- स्वामी रामसुखदास जी )