कर्मयोग ~ अध्याय तीन
36-43 पापके कारणभूत कामरूपी शत्रु को नष्ट करने का उपदेश
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥3 .38॥
धूमेन- धुएं से; आवियते-आच्छादित हो जाती है; वहिन:-अग्नि; यथा—जिस प्रकार; आदर्श:-दर्पण; मलेन-धूल से; च-भी; यथा – जिस प्रकार; उलबेना –गर्भाशय द्वारा; आवृतः-ढका रहता है, अप्रकट ; गर्भ:-भ्रूण; तथा – उसी प्रकार; तेन–काम से; इदम् – यह; आवृतम्-आवरण है।
जैसे अग्नि धुएँ से ढकी रहती है, दर्पण धूल से आवृत रहता है तथा भ्रूण गर्भाशय से ढका रहता है, उसी प्रकार से कामनाओं के कारण मनुष्य के ज्ञान पर आवरण पड़ा रहता है।॥3 .38॥
(‘धूमेनाव्रियते वह्निः ‘ जैसे धुएँ से अग्नि ढकी रहती है , ऐसे ही कामना से मनुष्य का विवेक ढका रहता है अर्थात् स्पष्ट प्रतीत नहीं होता।विवेक बुद्धि में प्रकट होता है। बुद्धि तीन प्रकार की होती है सात्त्विकी , राजसी और तामसी। सात्त्विकी बुद्धि में कर्तव्य-अकर्तव्य ठीक-ठीक ज्ञान होता है , राजसी बुद्धि में कर्तव्य-अकर्तव्य का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता और तामसी बुद्धि में सब वस्तुओं का विपरीत ज्ञान होता है (गीता 18। 30 32)। कामना उत्पन्न होने पर सात्त्विकी बुद्धि भी धुएँ से अग्नि के समान ढकी जाती है फिर राजसी और तामसी बुद्धि का तो कहना ही क्या है , सांसारिक इच्छा उत्पन्न होते ही पारमार्थिक मार्ग में धुआँ हो जाता है। अगर इस अवस्था में सावधानी नहीं हुई तो कामना और अधिक बढ़ जाती है। कामना बढ़ने पर तो पारमार्थिक मार्ग में अँधेरा ही हो जाता है। उत्पत्ति विनाशशील जड वस्तुओं में प्रियता , महत्ता , सुखरूपता , सुन्दरता , विशेषता आदि दिखने के कारण ही उनकी कामना पैदा होती है। यह कामना ही मूल में विवेक को ढकने वाली है। अन्य शरीरों की अपेक्षा मनुष्य शरीर में विवेक विशेषरूप से प्रकट है किन्तु जड पदार्थोंकी कामनाके कारण वह विवेक काम नहीं करता। कामना उत्पन्न होते ही विवेक धुँधला हो जाता है। जैसे धुँएसे ढकी रहनेपर भी अग्नि काम कर सकती है ऐसे ही यदि साधक कामना के पैदा होते ही सावधान हो जाय तो उसका विवेक काम कर सकता है। प्रथमावस्था में ही कामना को नष्ट करने का सरल उपाय यह है कि कामना उत्पन्न होते ही साधक विचार करे कि हम जिस वस्तु की कामना करते हैं वह वस्तु हमारे साथ सदा रहने वाली नहीं है। वह वस्तु पहले भी हमारे साथ नहीं थी और बाद में भी हमारे साथ नहीं रहेगी तथा बीच में भी उस वस्तु का हमारे से निरन्तर वियोग हो रहा है। ऐसा विचार करने से कामना नहीं रहती। ‘यथादर्शो मलेन च ‘ जैसे मैल से ढक जाने पर दर्पण में प्रतिबिम्ब दिखना बंद हो जाता है ऐसे ही कामना का वेग बढ़ने पर मैं साधक हूँ मेरा यह कर्तव्य और यह अकर्तव्य है इसका ज्ञान नहीं रहता। अन्तःकरण में नाशवान् वस्तुओं का महत्त्व ज्यादा हो जाने से मनुष्य उन्हीं वस्तुओं के भोग और संग्रह की कामना करने लगता है। यह कामना ज्यों-ज्यों बढ़ती है त्यों ही त्यों मनुष्य का पतन होता है। वास्तव में महत्त्व वस्तु का नहीं बल्कि उसके उपयोग का होता है। रुपये , विद्या , बल आदि स्वयं कोई महत्त्व की वस्तुएँ नहीं हैं उनका सदुपयोग ही महत्त्व का है यह बात समझ में आ जाने पर फिर उनकी कामना नहीं रहती क्योंकि जितनी वस्तुएँ हमारे पास में हैं उन्हीं के सदुपयोग की हमारे पर जिम्मेवारी है। उन वस्तुओं को भी सदुपयोग में लगाना है फिर अधिक की कामना से क्या होगा कारण कि कामनामात्र से वस्तुएँ प्राप्त नहीं होतीं। सांसारिक वस्तुओं का महत्त्व ज्यों-ज्यों कम होगा त्यों ही त्यों परमात्मा का महत्त्व साधक के अन्तःकरण में बढ़ेगा। सांसारिक वस्तुओं का महत्त्व सर्वथा नष्ट होने पर परमात्मा का अनुभव हो जायगा और कामना सर्वथा नष्ट हो जायगी। ‘यथोल्बेनावृतो गर्भः ‘ दर्पण पर मैल आने से उसमें अपना मुख तो नहीं दिखता पर यह दर्पण है ऐसा ज्ञान तो रहता ही है परन्तु जैसे जेर से ढके गर्भ का यह पता नहीं लगता कि लड़का है या लड़की ऐसी ही कामना की तृतीयावस्था में कर्तव्य-अकर्तव्य का पता नहीं लगता अर्थात् विवेक पूरी तरह ढक जाता है। विवेक ढक जाने से कामना का वेग बढ़ जाता है। कामना में बाधा लगने से क्रोध उत्पन्न होता है। फिर उससे सम्मोह उत्पन्न होता है। सम्मोह से बुद्धि नष्ट हो जाती है। बुद्धि नष्ट हो जाने पर मनुष्य करने योग्य कार्य नहीं करता और झूठ , कपट , बेईमानी , अन्याय , पाप , अत्याचार आदि न करने योग्य कार्य करने लग जाता है। ऐसे लोगों को भगवान मनुष्य भी नहीं कहना चाहते। इसीलिये 16वें अध्याय में जहाँ ऐसे लोगों का वर्णन हुआ है वहाँ भगवान ने (8वें से 18वें श्लोक तक) मनुष्यवाचक कोई शब्द नहीं दिया। स्वर्गलोग की कामना वाले लोगों को भी भगवान ने ‘कामात्मानः’ (गीता 2। 43) कहा है क्योंकि ऐसे लोग कामना के ही स्वरूप होते हैं। कामना में ही तदाकार होने से उनका निश्चय होता है कि सांसारिक सुख से बढ़कर और कुछ है ही नहीं (गीता 16। 11)। यद्यपि कामना की इस तृतीयावस्था में मनुष्य की दृष्टि अपने वास्तविक उद्देश्य (परमात्मप्राप्ति) की तरफ नहीं जाती तथापि किन्हीं पूर्वसंस्कारों से वर्तमान के किसी अच्छे सङ्ग से अथवा अन्य किसी कारण से उसे अपने उद्देश्य की जागृति हो जाय तो उसका कल्याण भी हो सकता है। ‘तथा तेनेदमावृतम्’ इस श्लोक में भगवान ने एक काम के द्वारा विवेक को ढकने के विषय में तीन दृष्टान्त दिये हैं। अतः उपर्युक्त पदों का तात्पर्य यह है कि एक काम के द्वारा विवेक ढका जाने से ही काम की तीनों अवस्थाएँ प्रबुद्ध होती हैं। कामना उत्पन्न होने पर उसकी ये तीन अवस्थाएँ सबके हृदय में आती हैं परन्तु जो मनुष्य कामना को ही सुख का कारण मानकर उसका आश्रय लेते हैं और कामना को त्याज्य नहीं मानते वे कामना को पहचान ही नहीं पाते परन्तु परमार्थ में रुचि रखने वाले तथा साधन करने वाले पुरुष इस कामना को पहचान लेते हैं। जो कामना को पहचान लेता है वही कामना को नष्ट भी कर सकता है।भगवान ने इस श्लोक में कामना की तीन अवस्थाओं का वर्णन उसका नाश करने के उद्देश्य से ही किया है जिसकी आज्ञा उन्होंने आगे 41वें और 43वें श्लोकमें दी है। वास्तव में कामना उत्पन्न होने के बाद उसके बढ़ने का क्रम इतनी तेजी से होता है कि उसकी उपर्युक्त तीन अवस्थाओं को कहने में तो देर लगती है पर कामना के बढ़ने में कोई देर नहीं लगती। कामना बढ़ने पर तो अनर्थ परम्परा ही चल पड़ती है। सम्पूर्ण पाप , सन्ताप , दुःख आदि कामना के कारण ही होते हैं। अतएव मनुष्य को चाहिये कि वह अपने विवेक को जाग्रत् रखकर कामना को उत्पन्न ही न होने दे। यदि कामना उत्पन्न हो जाय तो भी उसे प्रथम या द्वितीय अवस्था में ही नष्ट कर दे। उसे तृतीयावस्था में तो कभी आने ही न दे। विशेष बात – धुँआ दिखायी देने से यह सिद्ध हो जाता है कि वहाँ अग्नि है क्योंकि अगर वहाँ अग्नि न होती तो धुआँ कहाँ से आता ? अतः जिस प्रकार धुएँ से ढकी होने पर भी अग्नि के होने का ज्ञान मैल से ढका होने पर भी दर्पण के होने का ज्ञान और जेर से ढका होने पर भी गर्भ के होने का ज्ञान सभी में रहता है , उसी प्रकार काम से ढका होने पर भी विवेक (कर्तव्य-अर्तव्य का ज्ञान) सभी में रहता है पर कामना के कारण वह उपयोग में नहीं आता। शास्त्रों के अनुसार परमात्मा की प्राप्ति में तीन दोष बाधक हैं मल , विक्षेप और आवरण। वे दोष असत् (संसार) के सम्बन्ध से उत्पन्न होते हैं। असत् का सम्बन्ध कामना से होता है। अतः मूल दोष कामना ही है। कामना का सर्वथा नाश होते ही असत् से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। असत् से सम्बन्ध-विच्छेद होते ही सम्पूर्ण दोष मिट जाते हैं और विवेक प्रकट हो जाता है। परमात्मप्राप्ति में मुख्य बाधा है सांसारिक पदार्थों को नाशवान् मानते हुए उन्हें महत्त्व देना। जबतक अन्तःकरणमें नाशवान् पदार्थोंका महत्त्व है और वे सत्य सुन्दर और सुखद प्रतीत होते हैं तभीतक मल विक्षेप और आवरण ये तीनों दोष रहते हैं। इन तीनों में भी मलदोष को अधिक बाधक माना जाता है। मलदोष (पाप) का मुख्य कारण कामना ही है क्योंकि कामना से ही सब पाप होते हैं। जिस समय साधक यह दृढ़ निश्चय कर लेता है कि मैं अब पाप नहीं करूँगा उसी समय सब दोषों की जड़ कट जाती है और मल-दोष मिटने लग जाता है। सर्वथा निष्काम होने पर मलदोष सर्वथा नष्ट हो जाता है। श्रीमद्भागवत में भगवान ने कामना वाले पुरुषों के कल्याण का उपाय कर्मयोग (निष्काम कर्म) बताया है ‘कर्मयोगस्तु कामिनाम्’ (11। 20। 7)। अतः कामना वाले पुरुषों को अपने कल्याण के विषय में निराश नहीं होना चाहिये क्योंकि जिसमें कामना आयी है वही निष्काम होगा। कर्मयोग के द्वारा कामनाओं का नाश सुगमतापूर्वक हो जाता है। छोटी से छोटी अथवा बड़ी से बड़ी प्रत्येक लौकिक या पारमार्थिक क्रिया करने में मैं क्यों करता हूँ और कैसे करता हूँ ऐसी सावधानी हो जाय तो उद्देश्य की जागृति हो जाती है। निरन्तर उद्देश्य पर दृष्टि रहने से अशुभकर्म तो होते नहीं और शुभकर्मों को भी आसक्ति तथा फलेच्छा का त्याग करके करने पर निष्कामता का अनुभव हो जाता है और मनुष्य का कल्याण हो जाता है- स्वामी रामसुखदास जी )