कर्मयोग ~ अध्याय तीन
36-43 पापके कारणभूत कामरूपी शत्रु को नष्ट करने का उपदेश
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥3 .41॥
तस्मात्- इसलिए; त्वम्-तुम; इन्द्रियाणि-इन्द्रियों को; आदौ–प्रारम्भ से; नियम्य-नियंत्रित करके; भरत-ऋषभ-भरतवंशियों में श्रेष्ठ, अर्जुन; पाप्मानम्-पाप; प्रजहि-वश में करो; हि-निश्चय ही; एनम्-इस; ज्ञान-ज्ञान; विज्ञान-वास्तविक बोध; नाशनम्- विनाशक।
इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ! प्रारम्भ से ही इन इन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर इस ज्ञान और आत्मबोध का नाश करने वाले महान पापी ( काम ) कामना रूपी शत्रु को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल अर्थात नष्ट कर डाल ॥3 .41॥
(“तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ” इन्द्रियोँ को विषयों में भोगबुद्धि से प्रवृत्त न होने देना अपितु केवल निर्वाहबुद्धि से अथवा साधनबुद्धि से प्रवृत्त होने देना ही उनको वश में करना है। तात्पर्य है कि इन्द्रियों की विषयों में रागपूर्वक प्रवृत्ति न हो और द्वेषपूर्वक निवृत्ति न हो। (गीता 18। 10) रागपूर्वक प्रवृत्ति और द्वेषपूर्वक निवृत्ति होने से राग-द्वेष पुष्ट हो जाते हैं और न चाहते हुए भी मनुष्य को पतन की ओर ले जाते हैं। इसलिये प्रवृत्ति और निवृत्ति अथवा कर्तव्य और अकर्तव्य को जानने के लिये शास्त्र ही प्रमाण है। (गीता 16। 24) शास्त्र के अनुसार कर्तव्य का पालन और अकर्तव्य का त्याग करने से इन्द्रियाँ वशमें हो जाती है। काम को मारने के लिये सबसे पहले इन्द्रियों का नियमन करने के लिये कहने का कारण यह है कि जब तक मनुष्य इन्द्रियों के वशमें रहता है तब तक उसकी दृष्टि तत्त्व की ओर नहीं जाती और तत्त्व की ओर दृष्टि गये बिना अर्थात् तत्त्व का अनुभव हुए बिना काम का सर्वथा नाश नहीं होता। मनुष्य की प्रवृत्ति इन्द्रियों से ही होती है। इसलिये वह सबसे पहले इन्द्रियोँ के विषयों में ही फँसता है जिससे उसमें उन विषयों की कामना पैदा हो जाती है। कामनासहित कर्म करने से मनुष्य पूरी तरह इन्द्रियों के वश में हो जाता है और इससे उसका पतन हो जाता है परन्तु जो मनुष्य इन्द्रियोँ को वश में करके निष्कामभावपूर्वक कर्तव्यकर्म करता है उनका शीघ्र ही उद्धार हो जाता है। “एनम् ज्ञानविज्ञाननाशनम्” ज्ञानपद का अर्थ शास्त्रीय ज्ञान भी लिया जाता है , जैसे ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्मों के अन्तर्गत ज्ञानम् पद शास्त्रीय ज्ञान के लिये ही आया है। (गीता 18। 42) परन्तु यहाँ प्रसङ्ग के अनुसार ज्ञान का अर्थ विवेक (कर्तव्य-अकर्तव्य को अलग-अलग जानना ) लेना ही उचित प्रतीत होता है। विज्ञान पद का अर्थ विशेष ज्ञान अर्थात् तत्त्वज्ञान (अनुभवज्ञान , असली ज्ञान या बोध) है। विवेक और तत्त्वज्ञान दोनों ही स्वतःसिद्ध हैं। तत्त्वज्ञान का अनुभव तो सबको नहीं है पर विवेक का अनुभव सभी को है। मनुष्य में यह विवेक विशेषरूप से है। अर्जुन के प्रश्न (मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है) में आये ‘अनिच्छन्नपि’ पद से भी यही सिद्ध होता है कि मनुष्य में विवेक है और इस विवेक से ही वह पाप और पुण्य दोनों को जानता है और पाप नहीं करना चाहता। पाप न करने की इच्छा विवेक के बिना नहीं होती परन्तु यह काम उस विवेक को ढक देता है और उसको जाग्रत् नहीं होने देता। विवेक जाग्रत् होने से मनुष्य भविष्य पर अर्थात् परिणाम पर दृष्टि रखकर ही सब कार्य करता है परन्तु कामना से विवेक ढक जाने के कारण परिणाम की ओर दृष्टि ही नहीं जाती। परिणाम की तरफ दृष्टि न जाने से ही वह पाप करता है। इस प्रकार जिसका अनुभव सबको है उस विवेक को भी जब यह काम जाग्रत् नहीं होने देता तब जिसका अनुभव सबको नहीं है उस तत्त्वज्ञान को तो जाग्रत् होने ही कैसे देगा ? इसलिये यहाँ काम को ज्ञान (विवेक) और विज्ञान (बोध) दोनों का नाश करने वाला बताया गया है।वास्तव में यह काम ज्ञान और विज्ञान का नाश (अभाव) नहीं करता बल्कि उन दोनों को ढक देता है अर्थात् प्रकट नहीं होने देता। उन्हें ढक देने को ही यहाँ उनका नाश करना कहा गया है। कारण कि ज्ञान-विज्ञान का कभी नाश होता ही नहीं। नाश तो वास्तव में काम का ही होता है। जिस प्रकार नेत्रों के सामने बादल आने पर बादलों ने सूर्य को ढक दिया ऐसा कहा जाता है पर वास्तव में सूर्य नहीं ढका जाता बल्कि नेत्र ढके जाते हैं , उसी प्रकार कामना ने ज्ञान-विज्ञान को ढक दिया ऐसा कहा तो जाता है पर वास्तव में ज्ञान-विज्ञान ढके नहीं जाते बल्कि बुद्धि ढकी जाती है। ‘पाप्मानं हि प्रजहि’ कामना सम्पूर्ण पापों की जड़ है। इसलिये कामना उत्पन्न होने से पाप होने की सम्भावना रहती है। आगे चलकर कामना मनुष्य के विवेक को ढक कर उसे अन्धा बना देती है जिससे उसे पाप-पुण्य का ज्ञान ही नहीं रहता और वह पापों में ही लग जाता है। इससे उसका महान् पतन हो जाता है। इसलिये भगवान् कामना को महापापी बताकर उसे अवश्य ही मार डालने की आज्ञा देते हैं। गृहस्थ-जीवन ठीक नहीं साधु हो जायँ , एकान्त में चले जायँ – ऐसा विचार करके मनुष्य कार्य को तो बदलना चाहता है पर कारण अर्थात कामना को नहीं छोड़ता , उसे छोड़ने का विचार ही नहीं करता। यदि वह कामना को छोड़ दे तो उससे सब काम अपने-आप ठीक हो जायँ। जब मनुष्य जीने की कामना तथा अन्य कामनाओं को रखते हुए मरता है तब वे कामनाएँ उसके अगले जन्म का कारण बन जाती हैं। तात्पर्य यह है कि जब तक मनुष्य में कामना रहती है तब तक वह जन्म-मरण रूप बन्धन में पड़ा रहता है। इस प्रकार बाँधने के सिवाय कामना और कुछ काम नहीं आती। जब मनुष्य का जड पदार्थों की तरफ आकर्षण होता है तभी उनकी कामना उत्पन्न होती है। कामना उत्पन्न होते ही विवेक-दृष्टि दब जाती है और इन्द्रिय दृष्टि की प्रधानता हो जाती है। इन्द्रियाँ मनुष्य को केवल शब्दादि विषयों के सुखभोग में ही लगाती हैं। पशु-पक्षियों की भी प्रवृत्ति इन्द्रियों से मिलने वाले सुख तक ही रहती है परन्तु कामना से विवेक ढक जाने के कारण मनुष्य इन्द्रियजन्य सुख के लिये पदार्थों की कामना करने लगता है और फिर पदार्थों के लिये रुपयों की कामना करने लग जाता है। इतना ही नहीं उसकी दृष्टि रुपयों से भी हटकर रुपयों की गिनती (संग्रह) में हो जाती है। फिर वह रुपयों की गिनती बढ़ाने में ही लग जाता है। निर्वाहमात्र के रुपयों की अपेक्षा उनका संग्रह अधिक पतन करने वाला है और संग्रह की अपेक्षा भी रुपयों की गिनती महान् पतन करने वाली है। गिनती बढ़ाने के लिये वह झूठ , कपट , धोखा , चोरी आदि पापकर्मों को भी करने लग जाता है और गिनती बढ़ने पर उसमें अभिमान भी आ जाता है जो आसुरी सम्पत्ति का मूल है। इस प्रकार कामना के कारण मनुष्य महान् पतन की ओर चला जाता है। इसलिये भगवान् इस महान् पापी काम का अच्छी तरह नाश करने की आज्ञा देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )