Chapter 3 Bhagavad Gita Karm Yog

 

 

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कर्मयोग ~ अध्याय तीन

36-43 पापके कारणभूत कामरूपी शत्रु को नष्ट करने का उपदेश

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 3

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥3 .42॥

 

इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ; पराणि-बलवान; आहु:-कहा जाता है; इन्द्रियेभ्यः-इन्द्रियों से श्रेष्ठ; परम – सर्वोच्च; मनः-मन; मनस:-मन की अपेक्षा; तु–लेकिन; परा-श्रेष्ठ; बुद्धिः-बुद्धि; यः-जो; बुद्धेः-बुद्धि की अपेक्षा; परत:-अधिक श्रेष्ठ; तु-किन्तुः सः-वह आत्मा।

 

इन्द्रियां ( स्थूल शरीर)  से परे ( श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म ) हैं। इन इन्द्रियों से परे मन है, मन से भी परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त परे और सर्वोच्च है वह है आत्मा ॥3 .42॥

 

इन्द्रियाणि पराण्याहुः’ शरीर अथवा विषयों से इन्द्रियाँ पर या परे हैं। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों के द्वारा विषयों का ज्ञान होता है पर विषयों के द्वारा इन्द्रियों का ज्ञान नहीं होता। इन्द्रियाँ विषयों के बिना भी रहती हैं पर इन्द्रियों के बिना विषयों की सत्ता सिद्ध नहीं होती। विषयों में यह सामर्थ्य नहीं कि वे इन्द्रियों को प्रकाशित करें बल्कि इन्द्रियाँ विषयों को प्रकाशित करती हैं। इन्द्रियाँ वही रहती हैं पर विषय बदलते रहते हैं। इन्द्रियाँ व्यापक हैं और विषय व्याप्य हैं अर्थात् विषय इन्द्रियों के अन्तर्गत आते हैं पर इन्द्रियाँ विषयों के अन्तर्गत नहीं आतीं। विषयों की अपेक्षा इन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं। इसलिये विषयों की अपेक्षा इन्द्रियाँ श्रेष्ठ , सबल , प्रकाशक , व्यापक और सूक्ष्म हैं। ‘इन्द्रियेभ्यः परं मनः’ इन्द्रियाँ मन को नहीं जानतीं पर मन सभी इन्द्रियों को ही जानता है। इन्द्रियों में भी प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषय को ही जानती है अन्य इन्द्रियों के विषयों को नहीं – जैसे कान केवल शब्द को जानते हैं पर स्पर्श , रूप , रस और गंध को नहीं जानते ; त्वचा केवल स्पर्श को जानती है पर शब्द , रूप , रस और गन्ध को नहीं जानती ; नेत्र केवल रूप को जानते हैं पर शब्द , स्पर्श , रस और गन्ध को नहीं जानते ; रसना केवल रस को जानती है पर शब्द , स्पर्श , रूप और गन्ध को नहीं जानती और नासिका केवल गन्ध को जानती है पर शब्द , स्पर्श , रूप और रस को नहीं जानती परन्तु मन पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को तथा उनके विषयों को जानता है। इसलिये मन इन्द्रियों से श्रेष्ठ , सबल , प्रकाशक , व्यापक और सूक्ष्म है। ‘मनसस्तु परा बुद्धिः’ मन बुद्धि को नहीं जानता पर बुद्धि मन को जानती है। मन कैसा है ? शान्त है या व्याकुल ,  ठीक है या बेठीक इत्यादि बातों को बुद्धि जानती है। इन्द्रियाँ ठीक काम करती हैं या नहीं इसको भी बुद्धि जानती है , तात्पर्य है कि बुद्धि मन को तथा उसके संकल्पों को भी जानती है और इन्द्रियोँ को तथा उनके विषयों को भी जानती है। इसलिये इन्द्रियोँ से पर जो मन है उस मन से भी बुद्धि पर (श्रेष्ठ , बलवान् , प्रकाशक , व्यापक और सूक्ष्म ) है। ‘य बुद्धेः परतस्तु सः’ बुद्धि का स्वामी अहम् है इसलिये कहता है मेरी बुद्धि। बुद्धि करण है और अहम् कर्ता है। करण परतन्त्र होता है पर कर्ता स्वतन्त्र होता है। उसअहम में जो जड अंश है उसमें काम रहता है। जड अंश से तादात्म्य होने के कारण वह काम स्वरूप (चेतन) में रहता प्रतीत होता है। वास्तव में अहम में  ही काम रहता है क्योंकि वही भोगों की इच्छा करता है और सुख- दुःख का भोक्ता बनता है। भोक्ता भोग और भोग्य इन तीनों में सजातीयता (जातीय एकता) है। इनमें सजातीयता न हो तो भोक्ता में भोग्य की कामना या आकर्षण हो ही नहीं सकता। भोक्तापन का जो प्रकाशक है जिसके प्रकाश में भोक्ता ,भोग और भोग्य तीनों की सिद्धि होती है उस परम प्रकाशक (शुद्ध चेतन ) में काम नहीं है।अहम तक सब प्रकृति का अंश है। उस अहम् से भी आगे साक्षात् परमात्माका अंश स्वयं है जो शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि और अहम् , इन सबका आश्रय , आधार , कारण और प्रेरक है तथा श्रेष्ठ , बलवान् , प्रकाशक , व्यापक और सूक्ष्म है। जड (प्रकृति ) का अंश ही सुख-दुःख रूप में परिणित होता है अर्थात् सुख-दुःख रूप विकृति जड में ही होती है। चेतन में विकृति नहीं है बल्कि चेतन विकृति का ज्ञाता है परन्तु जड से तादात्म्य होने से सुख-दुःख का भोक्ता चेतन ही बनता है अर्थात् चेतन ही सुखी-दुःखी होता है। केवल जडमें सुखी-दुःखी होना नहीं बनता। तात्पर्य यह है कि अहम में जो जड अंश है उसके साथ तादात्म्य कर लेने से चेतन भी अपने को मैं भोक्ता हूँ ऐसा मान लेता है। परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार होते ही रसबुद्धि निवृत्त हो जाती है – ‘रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते’ (गीता 2। 51)। इसमें अस्य पद भोक्ता बने हुए अहम् का वाचक है और जो भोक्तापन से निर्लिप्त तत्त्व है उस परमात्मा का वाचक परम पद है। उसके ज्ञान से रस अर्थात् काम निवृत्त हो जाता है। कारण कि सुख के लिये ही कामना होती है और स्वरूप सहज सुखराशि है। इसलिये परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार होने से काम (संयोगजन्य सुख की इच्छा ) सर्वदा और सर्वथा मिट जाता है। मार्मिक बात- स्थूलशरीर विषय है , इन्द्रियाँ बहिःकरण हैं और मन-बुद्धि अन्तःकरण हैं। स्थूलशरीर से इन्द्रियाँ पर (श्रेष्ठ , सबल , प्रकाशक , व्यापक और सूक्ष्म ) हैं तथा इन्द्रियों से बुद्धि पर है। बुद्धि से भी पर अहम् है जो कर्ता है। उसअहम् (कर्ता) में काम अर्थात् लौकिक इच्छा रहती है। अपनी सत्ता (होनापन) अर्थात् अपना स्वरूप चेतन निर्विकार और सत्-चित-आनंद-रूप है। जब वह जड (प्रकृतिजन्य शरीर ) के साथ तादात्म्य कर लेता है तब अहम् उत्पन्न होता है और स्वरूप कर्ता बन जाता है। इस प्रकार कर्ता में एक जड अंश होता है और एक चेतन अंश। जड अंश की मुख्यता से संसार की तरफ और चेतन अंश की मुख्यता से परमात्मा की तरफ आकर्षण होता है (टिप्पणी प0 201)। तात्पर्य यह है कि उसमें जड अंश की प्रधानता से लौकिक (संसार की ) इच्छाएँ रहती हैं और चेतन अंश की प्रधानता से पारमार्थिक (परमात्मा की) इच्छा रहती है। जड अंश मिटने वाला है इसलिये लौकिक इच्छाएँ मिटने वाली हैं और चेतन अंश सदा रहनेवाला है इसलिये पारमार्थिक इच्छा पूरी होने वाली है। इसलिये लौकिक इच्छाओं (कामनाओं ) की निवृत्ति और पारमार्थिक इच्छा (संसार से छूटने की इच्छा , स्वरूपबोध की जिज्ञासा और भगवत्प्रेम की अभिलाषा ) की पूर्ति होती है लौकिक इच्छाएँ उत्पन्न हो सकती हैं पर टिक नहीं सकतीं परन्तु पारमार्थिक इच्छा दब सकती है पर मिट नहीं सकती। कारण कि लौकिक इच्छाएँ अवास्तविक और पारमार्थिक इच्छा वास्तविक है। इसलिये साधक को न तो लौकिक इच्छाओं की पूर्ति की आशा रखनी चाहिये और न पारमार्थिक इच्छा की पूर्ति से निराश ही होना चाहिये। वस्तुतः मूल में इच्छा एक ही है जो अपने अंशी परमात्मा की है परन्तु जड के सम्बन्ध से इस इच्छा के दो भेद हो जाते हैं और मनुष्य अपनी वास्तविक इच्छा की पूर्ति परिवर्तनशील जड (संसार ) के द्वारा करने के लिये जड पदार्थों की इच्छाएँ करने लगता है जो उसकी भूल है। कारण कि लौकिक इच्छाएं परधर्म और पारमार्थिक इच्छा स्वधर्म है परन्तु साधक में लौकिक और पारमार्थिक दोनों इच्छाएँ रहने से द्वन्द्व पैदा हो जाता है। द्वन्द्व होने से साधक में भजन , ध्यान , सत्सङ्ग आदि के समय तो पारमार्थिक इच्छा जाग्रत् रहती है पर अन्य समय में उसकी पारमार्थिक इच्छा दब जाती है और लौकिक (भोग एवं संग्रह की) इच्छाएँ उत्पन्न हो जाती हैं लौकिक इच्छाओं के रहते हुए साधक में साधन करने का एक निश्चय स्थिर नहीं रह सकता। पारमार्थिक इच्छा जाग्रत् हुए बिना साधक की उन्नति नहीं होती। जब साधक का एकमात्र परमात्मप्राप्ति करने का दृढ़ उद्देश्य हो जाता है तब यह द्वन्द्व मिट जाता है और साधक में एक पारमार्थिक इच्छा ही प्रबल रह जाती है। एक ही पारमार्थिक इच्छा प्रबल रहने से साधक सुगमतापूर्वक परमात्मप्राप्ति कर लेता है (गीता 5। 3)। इसलिये लौकिक और पारमार्थिक इच्छा का द्वन्द्व मिटाना साधक के लिये बहुत आवश्यक है। शुद्ध स्वरूप में अपने अंशी परमात्मा की ओर स्वतः एक आकर्षण या रुचि विद्यमान रहती है जिसको प्रेम कहते हैं। जब वह संसार के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है तब वह प्रेम दब जाता है और काम उत्पन्न हो जाता है। जब तक काम रहता है तब तक प्रेम जाग्रत् नहीं होता। जब तक प्रेम जाग्रत् नहीं होता तब तक काम का सर्वथा नाश नहीं होता। जड अंश की मुख्यता से जिसमें सांसारिक भोगों की इच्छा (काम) रहती है उसी में चेतन अंश की मुख्यता से परमात्मा की इच्छा भी रहती है। अतः वास्तव में काम का निवास जड अंश में ही है पर वह भी चेतन के सम्बन्ध से ही है। चेतन का सम्बन्ध छूटते ही काम का नाश हो जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि चेतन के द्वारा जड से सम्बन्ध-विच्छेद करते ही जड-चेतन के तादात्म्य रूप अहम् का नाश हो जाता है और अहम् का नाश होते ही काम नष्ट हो जाता है। अहम् में जो जड अंश है उसमें काम रहता है इसकी प्रबल युक्ति यह है कि दृश्यरूप से दिखने वाला संसार उसे देखने वाली इन्द्रियाँ तथा बुद्धि और उसे देखने वाला स्वयं भोक्ता इन तीनों में जातीय (धातुगत) एकता के बिना भोक्ता का भोग्य की ओर आकर्षण हो ही नहीं सकता। कारण कि आकर्षण सजातीयता में ही होता है विजातीयता में नहीं – जैसे नेत्रों का रूपके प्रति ही आकर्षण होता है शब्द के प्रति नहीं। यही बात सब इन्द्रियों में लागू होती है। बुद्धि का भी समझने के विषय (विवेक-विचार) में आकर्षण होता है शब्दादि विषयों में नहीं (यदि होता है तो इन्द्रियों को साथ में लेने से ही होता है)। ऐसे ही स्वयं (चेतन ) की परमात्मा से तात्त्विक एकता है इसलिये स्वयं का परमात्मा की ओर आकर्षण होता है। यह तात्त्विक एकता जड-अंश का सर्वथा त्याग करने से अर्थात् जड से माने हुए सम्बन्ध का सर्वथा विच्छेद करने से ही अनुभवमें आती है। अनुभव में आते ही प्रेम जाग्रत् हो जाता है। प्रेम में जडता (असत् ) का अंश भी शेष नहीं रहता अर्थात् जडता का अत्यन्त अभाव हो जाता है। प्रकृति के कार्य महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि ) का अत्यन्त सूक्ष्म अंश कारणशरीर ही अहम् का जड अंश है। इस कारण शरीर में ही काम रहता है। कारण शरीर के तादात्म्य से काम स्वयं में दिखता है। तादात्म्य मिटने पर जिसमें काम का लेश भी नहीं है ऐसे अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव हो जाता है। स्वरूप का अनुभव हो जाने पर काम सर्वथा निवृत्त हो जाता है। ‘एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा ‘ पहले शरीर से पर इन्द्रियाँ , इन्द्रियों से पर मन , मन से पर बुद्धि और बुद्धि से पर काम को बताया गया। अब उपर्युक्त पदों में बुद्धि से पर काम को जानने के लिये कहने का अभिप्राय यह है कि यह काम अहम में रहता है। अपने वास्तविक स्वरूप में काम नहीं है। यदि स्वरूप में काम होता तो कभी मिटता नहीं। नाशवान् जड के साथ तादात्म्य कर लेने से ही काम उत्पन्न होता है। तादात्म्य में भी काम रहता तो जड में ही है पर दिखता है स्वरूप में। इसलिये बुद्धि से परे रहने वाले इस काम को जानकर उसका नाश कर देना चाहिये। ‘संस्तभ्यात्मानमात्मना’ बुद्धि से परे अहम् में रहने वाले काम को मारने का उपाय है अपने द्वारा अपने-आप  को वशमें करना अर्थात् अपना सम्बन्ध केवल अपने शुद्ध स्वरूप के साथ अथवा अपने अंशी भगवान के साथ रखना जो वास्तव में है। छठे अध्याय के पाँचवें श्लोक में ‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ पद से और छठे श्लोक में ‘येनात्मैवात्मनाजितः ‘ पदों से भी यही बात कही गयी है। स्वरूप (स्वयं) साक्षात् परमात्मा का अंश है और शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि संसार के अंश हैं। जब स्वरूप अपने अंशी परमात्मा से विमुख होकर प्रकृति (संसार) के सम्मुख हो जाता है तब उसमें कामनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। कामनाएँ अभाव से उत्पन्न होती हैं और अभाव संसार के सम्बन्ध से होता है क्योंकि संसार अभावरूप ही है – ‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता 2। 16)। संसार से सम्बन्ध-विच्छेद होते ही कामनाओं का नाश हो जाता है क्योंकि स्वरूप में अभाव नहीं है ‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता 2। 16)। परमात्मा से विमुख होकर संसार से अपना सम्बन्ध मानने पर भी जीव की वास्तविक इच्छा (आवश्यकता या भूख) अपने अंशी परमात्मा को प्राप्त करने की ही होती है। मैं सदा जीता रहूँ , मैं सब कुछ जान जाऊँ , मैं सदा के लिये सुखी हो जाऊँ , इस रूप में वह वास्तव में सत्चित्आनन्दस्वरूप परमात्मा की ही इच्छा करता है पर संसार से सम्बन्ध मानने के कारण वह भूल से इन इच्छाओं को संसार से ही पूरी करना चाहता है यही ‘काम ‘ है। इस काम की पूर्ति तो कभी हो ही नहीं सकती। इसलिये इस काम का नाश तो करना ही पड़ेगा। जिसने संसार से अपना सम्बन्ध जोड़ा है वही उसे तोड़ भी सकता है। इसलिये भगवान ने अपने द्वारा ही संसार से अपना सम्बन्ध-विच्छेद करके काम को मारने की आज्ञा दी है। अपने द्वारा ही अपने आपको वश में करने में कोई अभ्यास नहीं है क्योंकि अभ्यास संसार (शरीर , इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि ) की सहायता से ही होता है। इसलिये अभ्यास में संसार के सम्बन्ध की सहायता लेनी पड़ती है। वास्तव में अपने स्वरूप में स्थिति अथवा परमात्मा की प्राप्ति संसार की सहायता से नहीं होती बल्कि  संसार के त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) से अपने-आप से होती है। मार्मिक बात – जब चेतन अपना सम्बन्ध जड के साथ मान लेता है तब उसमें संसार (भोग) की भी इच्छा होती है और परमात्मा की भी। जड से सम्बन्ध मानने पर जीव से यही भूल होती है कि वह सत्चित्आनन्दस्वरूप परमात्मा की इच्छा , अभिलाषा को संसार से ही पूरी करने के लिये सांसारिक पदार्थों की इच्छा करने लगता है। परिणामस्वरूप उसकी ये दोनों ही इच्छाएँ (स्वरूपबोध के बिना) कभी मिटती नहीं। संसार को जानने के लिये अलग होना और परमात्मा को जानने के लिये परमात्मा से अभिन्न होना आवश्यक है क्योंकि वास्तव में स्वयं की संसार से भिन्नता और परमात्मा से अभिन्नता है परन्तु संसार की इच्छा करने से स्वयं संसार से अपनी अभिन्नता या समीपता मान लेता है जो कभी सम्भव नहीं और परमात्मा की इच्छा करने से स्वयं परमात्मा से अपनी भिन्नता या दूरी (विमुखता ) मान लेता है पर इसकी सम्भावना ही नहीं। हाँ सांसारिक इच्छाओंको मिटानेके लिये पारमार्थिक इच्छा करना बहुत उपयोगी है। यदि पारमार्थिक इच्छा तीव्र हो जाय तो लौकिक इच्छाएँ स्वतः मिट जाती हैं। लौकिक इच्छाएँ सर्वथा मिटने पर पारमार्थिक इच्छा पूरी हो जाती है अर्थात् नित्यप्राप्त परमात्मा का अनुभव हो जाता है (टिप्पणी प0 203.1)। कारण कि वास्तव में परमात्मा सदा सर्वत्र विद्यमान है पर लौकिक इच्छाएँ रहने से उनका अनुभव नहीं होता।’ जहि शत्रुं महाबाहो कारूपँ दुरासदम् ‘ महाबाहो का अर्थ है बड़ी और बलवान् भुजाओं वाला अर्थात् शूरवीर। अर्जुन को महाबाहो अर्थात् शूरवीर कहकर भगवान् यह लक्ष्य कराते हैं कि तुम इस कामरूप शत्रु का दमन करने में समर्थ हो। संसार से सम्बन्ध रखते हुए काम का नाश करना बहुत कठिन है। यह काम बड़ों-बड़ों के भी विवेक को ढककर उन्हें कर्तव्य से च्युत कर देता है जिससे उनका पतन हो जाता है। इसलिये भगवान ने इसे दुर्जय शत्रु कहा है। काम को दुर्जय शत्रु कहने का तात्पर्य इससे अधिक सावधान रहने में है इसे दुर्जय समझकर निराश होने में नहीं। किसी एक कामना की उत्पत्ति , पूर्ति , अपूर्ति और निवृत्ति होती है इसलिये मात्र कामनाएँ उत्पन्न और नष्ट होने वाली हैं परन्तु स्वयं निरन्तर रहता है और कामनाओं के उत्पन्न तथा नष्ट होने को जानता है। अतः कामनाओं से वह सुगमतापूर्वक सम्बन्ध-विच्छेद कर सकता है क्योंकि वास्तव में सम्बन्ध है ही नहीं। इसलिये साधक को कामनाओं से कभी घबराना नहीं चाहिये। यदि साधक का अपने कल्याण का पक्का उद्देश्य है (टिप्पणी प0 203.2) तो वह काम को सुगमतापूर्वक मार सकता है। कामनाओं के त्याग में अथवा परमात्मा की प्राप्ति में सब स्वतन्त्र अधिकारी , योग्य और समर्थ हैं परन्तु कामनाओं की पूर्ति में कोई भी स्वतन्त्र अधिकारी , योग्य और समर्थ नहीं है। कारण कि कामना पूरी होने वाली है ही नहीं। परमात्मा ने मानवशरीर अपनी प्राप्ति के लिये ही दिया है। अतः कामना का त्याग करना कठिन नहीं है। सांसारिक भोगपदार्थों को महत्त्व देने के कारण ही कामना का त्याग कठिन मालूम देता है।सुख (अनुकूलता) की कामना को मिटाने के लिये ही भगवान् समय-समय पर दुःख (प्रतिकूलता) भेजते हैं कि सुख की कामना मत करो , कामना करोगे तो दुःख पाना ही पड़ेगा। सांसारिक पदार्थों की कामना वाला मनुष्य दुःख से कभी बच ही नहीं सकता यह नियम है क्योंकि संयोगजन्य भोग ही दुःख के हेतु हैं (गीता 5। 22)। स्वयं (स्वरूप) में अनन्त बल है। उसकी सत्ता ओर बल को पाकर ही बुद्धि , मन और इन्द्रियाँ सत्तावान् एवं बलवान् होते हैं परन्तु जड से सम्बन्ध जोड़ने के कारण वह अपने बल को भूल रहा है और अपने को बुद्धि , मन और इन्द्रियों के अधीन मान रहा है। अतएव कामरूप शत्रु को मारने के लिये अपने-आपको जानना और अपने बल को पहचानना बड़ा आवश्यक है। काम जड के सम्बन्ध से और जड में ही होता है। तादात्म्य होने से वह स्वयंमें प्रतीत होता है। जड  का सम्बन्ध न रहे तो काम है ही नहीं। इसलिये यहाँ काम को मारने का तात्पर्य वस्तुतः काम का सर्वथा अभाव बताने में ही है। इसके विपरीत यदि काम अर्थात् कामना की सत्ता को मानकर उसे मिटाने की चेष्टा करें तो कामना का मिटना कठिन है। कारण कि वास्तव में कामना की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। कामना उत्पन्न होती है और उत्पन्न होने वाली वस्तु नष्ट होगी ही यह नियम है। यही कामना न करें तो पहले की कामनाएँ अपने-आप नष्ट हो जायँगी। इसलिये कामना को मिटाने का तात्पर्य है नयी कामना न करना। शरीरादि , सांसारिक पदार्थों को मैं , मेरा और मेरे लिये मानने से ही अपने आप में कमी का अनुभव होता है पर मनुष्य भूल से उस कमी की पूर्ति भी सांसारिक पदार्थों से ही करना चाहता है। इसलिये वह उन पदार्थों की कामना करता है परन्तु वास्तव में आज तक सांसारिक पदार्थों से किसी  की भी कमीकी पूर्ति हुई नहीं होगी नहीं और हो सकती भी नहीं। कारण कि स्वयं अविनाशी है और पदार्थ नाशवान् हैं। स्वयं अविनाशी होकर भी नाशवान् की कामना करने से लाभ तो कोई होता नहीं और हानि कोई सी भी बाकी रहती नहीं। इसलिये भगवान् कामना को शत्रु बताते हुए उसे मार डालने की आज्ञा देते हैं। कर्मयोग के द्वारा इस कामना का नाश सुगमता से हो जाता है। कारण कि कर्मयोग का साधक संसार की छोटी से छोटी अथवा बड़ी से बड़ी प्रत्येक क्रिया परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य रखकर दूसरों के लिये ही करता है । कामना की पूर्ति के लिये नहीं। वह प्रत्येक क्रिया निष्कामभाव से एवं दूसरों के हित और सुख के लिये ही करता है अपने लिये कभी कुछ नहीं करता। उसके पास जो समय ,  समझ , सामग्री और सामर्थ्य है वह सब अपनी नहीं है बल्कि मिली हुई है और बिछुड़ जायगी। इसलिये वह उसे अपनी कभी न मानकर निःस्वार्थभाव से (संसार की ही मानकर) संसार की ही सेवामें लगा देता है। उसे पूरी की पूरी संसार की सेवा में लगा देता है अपने पास बचाकर नहीं रखता। अपना न मानने से ही वह पूरी की पूरी सेवामें लगती है अन्यथा नहीं। कर्मयोगी अपने लिये कुछ करता ही नहीं ,  अपने लिये कुछ चाहता ही नहीं और अपना कुछ मानता ही नहीं। इसलिये उसमें कामनाओं का नाश सुगमतापूर्वक हो जाता है। कामनाओं का सर्वथा नाश होने पर उसके उद्देश्य की पूर्ति हो जाती है और वह अपने आप में ही अपनेआ पको पाकर कृतकृत्य , ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्राप्तव्य हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ भी करना जानना और पाना शेष नहीं रहता – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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