अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
( 07 – 11 ) इश्वरांश जीव, जीव तत्व के ज्ञाता और अज्ञाता
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते৷৷15.9৷৷
श्रोत्रम्-कान; चक्षुः-आँखें; स्पर्शनम्-त्वचा इन्द्रिय, च-भी; रसनम्-जीभ, घ्राणम्-नासिका; एव-भी; च-तथा; अधिष्ठाय-स्थित होकर; मन:-मन; च-भी; अयम्-यह; विषयान्- इन्द्रिय विषय; उपसेवते-भोग करता है।
इस प्रकार दूसरे शरीर में स्थित होकर जीवात्मा या देहधारी आत्मा मन का आश्रय ले कर या मन की सहायता से कान, आँख, त्वचा, जीभ और नाक इन पाँचों इन्द्रियों के द्वारा से ही इन्द्रिय विषयों का भोग करता है ৷৷15.9৷৷
अधिष्ठाय मनश्चायम् – मन में अनेक प्रकार के (अच्छे-बुरे) संकल्प-विकल्प होते रहते हैं। इनसे स्वयं की स्थिति में कोई अन्तर नहीं आता क्योंकि स्वयं (चेतन तत्त्व , आत्मा) जड शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि से अत्यन्त परे और उनका आश्रय तथा प्रकाशक है। संकल्प-विकल्प आते-जाते हैं और स्वयं सदा ज्यों का त्यों रहता है। मन का संयोग होने पर ही सुनने , देखने , स्पर्श करने , स्वाद लेने तथा सूँघने का ज्ञान होता है। जीवात्मा को मन के बिना इन्द्रियों से सुख-दुःख नहीं मिल सकता। इसलिये यहाँ मन को अधिष्ठित करने की बात कही गयी है। तात्पर्य यह है कि जीवात्मा मन को अधिष्ठित करने के अर्थात् उसका आश्रय लेकर ही इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता है।श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च – श्रवणेन्द्रिय अर्थात् कानों में सुनने की शक्ति (टिप्पणी प0 764) ‘श्रोत्रम्’ है। आज तक हमने अनेक प्रकार के अनुकल (स्तुति , मान , बड़ाई , आशीर्वाद , मधुर गान , वाद्य आदि) और प्रतिकूल (निन्दा , अपमान , शाप , गाली आदि) शब्द सुने हैं पर उनसे स्वयं में क्या फरक पड़ा ? किसी को पौत्र के जन्म तथा पुत्र की मृत्यु का समाचार एक साथ मिला। दोनों समाचार सुनने से एक के जन्म तथा दूसरे की मृत्यु का जो ज्ञान हुआ उस ज्ञान में कोई अन्तर नहीं आया। जब ज्ञान में भी कोई अन्तर नहीं आया तो फिर ज्ञाता में अन्तर आयेगा ही कैसे ? अतः जन्म और मृत्यु का समाचार सुनने से अन्तःकरण में (माने हुए सम्बन्ध के कारण) जो असर होता है उसकी तरफ दृष्टि न रखकर इस ज्ञान पर ही दृष्टि रखनी चाहिये। इसी तरह अन्य इन्द्रियों के विषय में भी समझ लेना चाहिये। नेत्रेन्द्रिय अर्थात् नेत्रों में देखने की शक्ति ‘चक्षुः’ है। आज तक हमने अनेक सुन्दर , असुन्दर , मनोहर , भयानक रूप या दृश्य देखे हैं पर उनसे अपने स्वरूप में क्या फरक पड़ा ? स्पर्शेन्द्रिय अर्थात् त्वचा में स्पर्श करनेकी शक्ति ‘स्पर्शनम्’ है। जीवन में हमारे को अनेक कोमल , कठोर , चिपचिपे , ठण्डे , गरम आदि स्पर्श प्राप्त हुए हैं पर उनसे स्वयं की स्थिति में क्या अन्तर आया ? रसनेन्द्रिय अर्थात् जीभ में स्वाद लेने की शक्ति ‘रसनम्’ है। कड़ुआ , तीखा , मीठा , कसैला , खट्टा और नमकीन – ये छः प्रकार के भोजन के रस हैं। आज तक हमने तरह-तरह के रसयुक्त भोजन किये हैं पर विचार करना चाहिये कि उनसे स्वयं को क्या प्राप्त हुआ ? घ्राणेन्द्रिय अर्थात् नासिका में सूँघने की शक्ति ‘घ्राणम्’ है। जीवन में हमारी नासिका ने तरह-तरह की सुगन्ध और दुर्गन्ध ग्रहण की है पर उनसे स्वयं में क्या फरक पड़ा ? विशेष बात- श्रोत्र का वाणी से , नेत्र का पैर से , त्वचा का हाथ से , रसना का उपस्थ से और घ्राण का गुदा से (पाँचों ज्ञानेन्द्रियों का पाँचों कर्मेन्द्रियों से) घनिष्ठ सम्बन्ध है। जैसे जो जन्म से बहरा होता है वह गूँगा भी होता है। पैर के तलवे में तेल की मालिश करने से नेत्रों पर तेल का असर पड़ता है। त्वचा के होने से ही हाथ स्पर्श का काम करते हैं। रसनेन्द्रिय के वश में होने से उपस्थेन्द्रिय भी वश में हो जाती है। घ्राण से गन्ध का ग्रहण तथा उससे सम्बन्धित गुदा से गन्ध का त्याग होता है। पञ्चमहाभूतों में एक-एक महाभूत के सत्त्वगुण अंश से ज्ञानेन्द्रियाँ , रजोगुण अंश से कर्मेन्द्रियाँ और तमोगुण अंश से शब्दादि पाँचों विषय बने हैं। पञ्चमहाभूत सत्त्वगुण अंश रजोगुण अंश , तमोगुण अंश – आकाश – श्रोत्र , वाक् , शब्द ; वायु – त्वचा , हस्त , स्पर्श ; अग्नि – नेत्र , पाद , रूप ; जल – रसना , उपस्थ , रस ; पृथ्वी – घ्राण , गुदा , गन्ध । पाँचों महाभूतों के मिले हुए सत्त्वगुण अंश से मन और बुद्धि , रजोगुण अंश से प्राण और तमोगुण अंश से शरीर बना है। विषयानुपसेवते – जैसे व्यापारी किसी कारणवश एक जगह से दुकान उठाकर दूसरी जगह दुकान लगाता है। ऐसे ही जीवात्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाता है और जैसे पहले शरीर में विषयों का रागपूर्वक सेवन करता था । ऐसे ही दूसरे शरीर में जाने पर (वही स्वभाव होने से) विषयों का सेवन करने लगता है। इस प्रकार जीवात्मा बार-बार विषयों में आसक्ति करने के कारण ऊँच-नीच योनियों में भटकता रहता है। भगवान ने यह मनुष्यशरीर अपना उद्धार करने के लिये दिया है, सुख-दुःख भोगने के लिये नहीं। जैसे ब्राह्मण को गाय दान करने पर हम उसको चारा-पानी तो दे सकते हैं पर दी हुई गाय का दूध पीने का हमें हक नहीं है । ऐसे ही मिले हुए शरीर का सदुपयोग करना हमारा कर्तव्य है पर इसे अपना मानकर सुख भोगने का हमें हक नहीं है। विशेष बात- विषयसेवन करने से परिणाम में विषयों में राग-आसक्ति ही बढ़ती है जो कि पुनर्जन्म तथा सम्पूर्ण दुःखों का कारण है। विषयों में वस्तुतः सुख है भी नहीं। केवल आरम्भ में भ्रमवश सुख प्रतीत होता है (18। 38)। अगर विषयों में सुख होता तो जिनके पास प्रचुर भोगसामग्री है ऐसे बड़े-ब़ड़े धनी , भोगी और पदाधिकारी तो सुखी हो ही जाते पर वास्तव में देखा जाय तो पता चलता है कि वे भी दुःखी , अशान्त ही हैं। कारण यह है कि भोगपदार्थों में सुख है ही नहीं, हुआ नहीं , होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। सुख लेने की इच्छा से जो-जो भोग भोगे गये उन-उन भोगों से धैर्य नष्ट हुआ , ध्यान नष्ट हुआ , रोग पैदा हुए , चिन्ता हुई , व्यग्रता हुई , पश्चात्ताप हुआ , बेइज्जती हुई , बल गया , धन गया , शान्ति गयी एवं प्रायः दुःख-शोक उद्वेग आये – ऐसा यह परिणाम विचारशील व्यक्ति के प्रत्यक्ष देखने में आता है (टिप्पणी प0 765)। जिस प्रकार स्वप्न में जल पीने से प्यास नहीं मिटती उसी प्रकार भोगपदार्थों से न तो शान्ति मिलती है और न जलन ही मिटती है। मनुष्य सोचता है कि इतना धन हो जाय , इतना संग्रह हो जाय , इतनी (अमुक-अमक) वस्तुएँ प्राप्त हो जायँ तो शान्ति मिल जायगी किंतु उतना हो जाने पर भी शान्ति नहीं मिलती उल्टे वस्तुओं के मिलने से उनकी लालसा और बढ़ जाती है (टिप्पणी प0 766.1)। धन आदि भोगपदार्थों के मिलने पर भी और मिल जाय और मिल जाय – यह क्रम चलता ही रहता है परन्तु संसार में जितना धन-धान्य है जितनी सुन्दर स्त्रियाँ हैं जितनी उत्तम वस्तुएँ हैं वे सब की सब एक साथ किसी एक व्यक्ति को मिल भी जायँ तो भी उनसे उसे तृप्ति नहीं हो सकती (टिप्पणी प0 766.2)। इसका कारण यह है कि जीव अविनाशी परमात्मा का अंश तथा चेतन है और भोगपदार्थ नाशवान प्रकृति के अंश तथा जड हैं। चेतन की भूख जड पदार्थों के द्वारा कैसे मिट सकती है ? भूख है पेट में और हलवा बाँधा जाय पीठ पर तो भूख कैसे मिट सकती है ? प्यास लगने पर बढ़िया से बढ़िया गरमागरम हलवा खाने पर भी प्यास नहीं मिट सकती। इसी प्रकार जीव को प्यास तो है चिन्मय परमात्मा की पर वह उस प्यास को मिटाना चाहता है जड पदार्थों के द्वारा जिससे तृप्ति होने की नहीं। तृप्ति तो दूर रही ज्यों-ज्यों वह जड पदार्थों को अपनाता है त्यों-त्यों उसकी भूख भी बढ़ती ही जाती है। यह उसकी कितनी बड़ी भूल है । साधक को चाहिये कि वह आज ही दृढ़ विचार (निश्चय) कर ले कि मेरे को भोगबुद्धि से विषयों का सेवन करना ही नहीं है। उसका यह पक्का निर्णय हो जाय कि सम्पूर्ण संसार मिलकर भी मेरे को तृप्त नहीं कर सकता। विषयसेवन न करने का दृढ़ विचार होने से इन्द्रियाँ निर्विषय हो जाती हैं और इन्द्रियों के निर्विषय हो जाने से मन निर्विकल्प हो जाता है। मन के निर्विकल्प हो जाने से बुद्धि स्वतः सम हो जाती है और बुद्धि के सम हो जाने से परमात्मा की प्राप्ति का स्वतः अनुभव हो जाता है (गीता 5। 19) क्योंकि परमात्मा तो सदा प्राप्त ही हैं। विषयों में प्रवृत्ति होने के कारण ही उनकी प्राप्ति का अनुभव नहीं हो पाता। सुखभोग और संग्रह – इन दो में जो आसक्त हो जाते हैं उनके लिये परमात्मप्राप्ति तो दूर रही वे परमात्मा की तरफ चलने का दृढ़ निश्चय भी नहीं कर पाते (गीता 2। 44)। गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज श्रीरामचरितमानस के अन्त में प्रार्थना करते हैं – कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।। (मानस 7। 130) जैसे कामी को स्त्री (भोग) और लोभी को धन (संग्रह) प्यारा लगता है – ऐसे ही रघुनाथ का रूप और रामनाम मुझे निरन्तर प्यारा लगे। तात्पर्य यह है कि जैसे कामी स्त्री के रूप में आकृष्ट होता है – ऐसे ही मैं रघुनाथ के रूप में निरन्तर आकृष्ट रहूँ और जैसे लोभी धन का संग्रह करता रहता है – ऐसे ही मैं रामनाम का (जप के द्वारा) निरन्तर संग्रह करता रहूँ। संसार का भोग और संग्रह निरन्तर प्रिय नहीं लगता – यह नियम है पर भगवान का रूप और नाम निरन्तर प्रिय लगता है। संतों ने भी अपना अनुभव कहा है – चाख चाख सब छाड़िया मायारस खारा हो। नाम सुधारस पीजिये छिन बारंबारा हो।। लगे मोहि राम पियारा हो।। पीछे के तीन श्लोकों में जीवात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है। उस विषय का उपसंहार करने के लिये आगे के श्लोक में जीवात्मा के स्वरूप को कौन जानता है और कौन नहीं जानता ? इसका वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी