अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
( 16 – 20 ) क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विश्लेषण
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ৷৷15.16৷৷
द्वौ-दो; इमौ–ये; पुरुषौ-जीव; लोके-सृष्टि में; क्षर:-नश्वर; च – और; अक्षर:-अविनाशी; एव-वास्तव में; च-तथा; क्षरः-नश्वर; सर्वाणि-सभी; भूतानि – जीवों को; कूटस्थ:-मुक्त; अक्षर:-अविनाशी; उच्यते-कहा जाता है।
हे अर्जुन! संसार में दो प्रकार के ही जीव होते हैं एक नाशवान (क्षर) और दूसरे अविनाशी (अक्षर) । इनमें समस्त जीवों के शरीर तो नाशवान होते हैं परन्तु समस्त जीवों की आत्मा या जीवात्मा को मुक्त और अविनाशी कहा जाता है अर्थात जीवों की देह कुछ समय पश्चात् नष्ट होने वाली होती है अर्थात क्षर होती है परन्तु उनकी आत्मा कभी न नष्ट होने वाली अक्षर और अविनाशी होती है। ৷৷15.16৷৷
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च – यहाँ ‘लोके’ पद को सम्पूर्ण संसार का वाचक समझना चाहिये। इसी अध्याय के सातवें श्लोक में ‘जीवलोके’ पद भी इसी अर्थ में आया है। इस जगत में दो विभाग जानने में आते हैं – शरीरादि नाशवान पदार्थ (जड) और अविनाशी जीवात्मा (चेतन)। जैसे विचार करने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि एक तो प्रत्यक्ष दिखने वाला शरीर है और एक उसमें रहने वाला जीवात्मा है। जीवात्मा के रहने से ही प्राण कार्य करते हैं और शरीर का संचालन होता है। जीवात्मा के साथ प्राणों के निकलते ही शरीर का संचालन बंद हो जाता है और शरीर सड़ने लगता है। लोग उस शरीर को जला देते हैं। कारण कि महत्त्व नाशवान शरीर का नहीं प्रत्युत उसमें रहने वाले अविनाशी जीवात्मा का है। पञ्चमहाभूतों (आकाश , वायु , अग्नि , जल और पृथ्वी) से बने हुए शरीरादि जितने पदार्थ हैं वे सभी जड और नाशवान हैं। प्राणियों के (प्रत्यक्ष देखने में आने वाले) स्थूलशरीर स्थूल समष्टिजगत के साथ एक हैं दस इन्द्रियाँ , पाँच प्राण , मन और बुद्धि – इन सत्रह तत्त्वों से युक्त सूक्ष्मशरीर सूक्ष्म समष्टिजगत के साथ एक हैं और कारणशरीर (स्वभाव , कर्मसंस्कार , अज्ञान) कारण समष्टिजगत (मूल प्रकृति) के साथ एक हैं। ये सब क्षरणशील (नाशवान ) होने के कारण ‘क्षर’ नाम से कहे गये हैं। वास्तव में ‘व्यष्टि’ नाम से कोई वस्तु है ही नहीं केवल समष्टिसंसार के थोड़े अंश की वस्तु को अपनी मानने के कारण उसको ‘व्यष्टि’ कह देते हैं। संसार के साथ शरीर आदि वस्तुओं की भिन्नता केवल (राग-ममता आदि के कारण) मानी हुई है , वास्तव में है नहीं। मात्र पदार्थ और क्रियाएँ प्रकृति की ही हैं (टिप्पणी प0 781.1)। इसलिये स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीर की समस्त क्रियाएँ क्रमशः स्थूल , सूक्ष्म और कारण समष्टिसंसार के हित के लिये ही करनी हैं अपने लिये नहीं। जिस तत्त्व का कभी विनाश नहीं होता और जो सदा निर्विकार रहता है उस जीवात्मा का वाचक यहाँ ‘अक्षरः’ पद है (टिप्पणी प0 781.2)। प्रकृति जड है और जीवात्मा (चेतन परमात्मा का अंश होने से) चेतन है। इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान ने जिसका छेदन करने के लिये कहा था उस संसार को यहाँ ‘क्षरः’ पद से और सातवें श्लोक में भगवान ने जिसको अपना अंश बताया था उस जीवात्मा को यहाँ ‘अक्षरः’ पद से कहा गया है। यहाँ आये क्षर , अक्षर और पुरुषोत्तम शब्द क्रमशः पुँल्लिङ्ग , स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग हैं। इससे यह समझना चाहिये कि प्रकृति , जीवात्मा और परमात्मा न तो स्त्री हैं , न पुरुष हैं और न नपुंसक ही हैं। वास्तव में लिङ्ग भी शब्द की दृष्टि से है तत्त्व से कोई लिङ्ग नहीं है (टिप्पणी प0 781.3)। क्षर और अक्षर – दोनों से उत्तम पुरुषोत्तम नाम की सिद्धि के लिये यहाँ भगवान ने क्षर और अक्षर – दोनों को पुरुष नाम से कहा है। क्षरः सर्वाणि भूतानि – इसी अध्याय के आरम्भ में जिस संसारवृक्ष का स्वरूप बताकर उसका छेदन करने की प्रेरणा की गयी थी उसी संसारवृक्ष को यहाँ ‘क्षर’ नाम से कहा गया है। यहाँ ‘भूतानि’ पद प्राणियों के स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीरों का ही वाचक समझना चाहिये। कारण कि यहाँ भूतों को नाशवान बताया गया है। प्राणियों के शरीर ही नाशवान होते हैं , प्राणी स्वयं नहीं। अतः यहाँ ‘भूतानि’ पद जड शरीरों के लिये ही आया है। कूटस्थोऽक्षर उच्यते – इसी अध्याय के सातवें श्लोक में भगवान ने जिसको अपना सनातन अंश बताया है उसी जीवात्मा को यहाँ अक्षर नाम से कहा गया है। जीवात्मा चाहे जितने शरीर धारण करे , चाहे जितने लोकों में जाय उसमें कभी कोई विकार उत्पन्न नहीं होता वह सदा ज्यों का त्यों रहता है (गीता 8। 19 13। 31)। इसीलिये यहाँ उसको ‘कूटस्थ’ कहा गया है। गीता में परमात्मा और जीवात्मा दोनों के स्वरूप का वर्णन प्रायः समान ही मिलता है। जैसे परमात्मा को (12। 3 में) कूटस्थ तथा (8। 4 में) अक्षर कहा गया है ऐसे ही यहाँ (15। 16 में) जीवात्मा को भी ‘कूटस्थ’ और ‘अक्षर’ कहा गया है। जीवात्मा और परमात्मा – दोनों में ही परस्पर तात्त्विक एवं स्वरूपगत एकता है। स्वरूप से जीवात्मा सदा-सर्वदा निर्विकार ही है परन्तु भूल से प्रकृति और उसके कार्य शरीरादि से अपनी एकता मान लेने के कारण उसकी जीव संज्ञा हो जाती है नहीं तो (अद्वैतसिद्धान्त के अनुसार) वह साक्षात् परमात्मतत्त्व ही है – स्वामी रामसुखदास जी