Shrimad Bhagavad Geeta Chapter 15

 

 

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अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग

पुरुषोत्तमयोग-  पंद्रहवाँ अध्याय

 

( 01-06 )  संसार रूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति का उपाय

 

 

SHrimad Bhagavad Geeta Chapter 15न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्‍गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा৷৷15.3৷৷

 

 

न-नहीं; रूपम्-रूप; अस्य-इसकी; इह-इस संसार में; तथा-जैसे की; उपलभ्यते-बोध किया जा सकता है; न-कभी नहीं; अन्तः-अन्त; न- कभी नहीं; च-भी; आदिः-प्रारम्भ; न – कभी नहीं; च-भी; सम्प्रतिष्ठा-आधार; अश्वत्थम्-पवित्र पीपल वृक्ष का; एनम्-इस; सुविरूढमूलम्-गहरी जड़ों वाले; असंग -शस्त्रेण विरक्ति के शस्त्र से; दृढेन-दृढ; छित्वा-काट देना चाहिए;

 

 

इस संसार रूपी वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत में नहीं किया जा सकता है क्योंकि न तो इसका आदि है और न ही इसका अन्त है और न ही इसका कोई आधार ही है, अत्यन्त दृढ़ता से स्थित इस वृक्ष को केवल वैराग्य रूपी सशक्त शस्त्र के द्वारा ही काटा जा सकता है तभी कोई इसके आधार को जान सकता है ৷৷15.3৷৷

 

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते – इसी अध्याय के पहले श्लोक में संसारवृक्ष के विषय में कहा गया है कि लोग इसको अव्यय (अविनाशी) कहते हैं और शास्त्रों में भी वर्णन आता है कि सकाम अनुष्ठान करने से लोक-परलोक में विशाल भोग प्राप्त होते हैं। ऐसी बातें सुनकर मनुष्यलोक तथा स्वर्गलोक में सुख , रमणीयता और स्थायीपन मालूम देता है। इसी कारण अज्ञानी मनुष्य काम और भोग के परायण होते हैं और इससे बढ़कर कोई सुख नहीं है – ऐसा उनका निश्चय हो जाता है (गीता 2। 42 16। 11)। जब तक संसार से तादात्म्य ममता और कामना का सम्बन्ध है तब तक ऐसा ही प्रतीत होता है परन्तु भगवान कहते हैं कि विवेकवती बुद्धि से , संसार से अलग होकर अर्थात् संसार से सम्बन्धविच्छेद करके देखने से उसका जैसा रूप हमने अभी मान रखा है वैसा उपलब्ध नहीं होता अर्थात् यह नाशवान और दुःखरूप प्रतीत होता है। नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा – किसी वस्तु के आदि , मध्य और अन्त का ज्ञान दो तरह का होता है – देशकृत और कालकृत। इस संसार का कहाँ से आरम्भ है , कहाँ मध्य है और कहाँ इसका अन्त होता है – इस प्रकार से संसार के देशकृत आदि , मध्य , अन्त का पता नहीं और कब से इसका आरम्भ हुआ है , कब तक यह रहेगा और कब इसका अन्त होगा ? इस प्रकार से संसार के कालकृत आदि , मध्य , अन्त का भी पता नहीं। मनुष्य किसी विशाल प्रदर्शनी में तरह-तरह की वस्तुओं को देखकर मुग्ध हुआ घूमता रहे तो वह उस प्रदर्शनी का आदि-अन्त नहीं जान सकता। उस प्रदर्शनी से बाहर निकलने पर ही वह उसके आदि-अन्त को जान सकता है। इसी तरह संसार से सम्बन्ध मानकर भोगों की तरफ वृत्ति रखते हुए इस संसार का आदि-अन्त कभी जानने में नहीं आ सकता। मनुष्य के पास संसार के आदि अन्त का पता लगाने के लिये जो साधन (इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि) हैं वे सब संसार के ही अंश हैं। यह नियम है कि कार्य अपने कारण में विलीन तो हो सकता है पर उसको जान नहीं सकता। जैसे मिट्टी का घड़ा पृथ्वी को अपने भीतर नहीं ला सकता । ऐसे ही व्यष्टि इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि समष्टि संसार और उसके कार्य को अपनी जानकारी में नहीं ला सकते। अतः संसार से (मन , बुद्धि , इन्द्रियों से भी) अलग होने पर संसार का स्वरूप (स्वयं के द्वारा) ठीक-ठीक जाना जा सकता है। वास्तव में संसार की स्वतन्त्र सत्ता (स्थिति) है ही नहीं। केवल उत्पत्ति और विनाश का क्रममात्र है। संसार का यह उत्पत्ति-विनाश का प्रवाह ही स्थितिरूप से प्रतीत होता है। वास्तव में देखा जाय तो उत्पत्ति भी नही है केवल नाश ही नाश है। जिसका स्वरूप एक क्षण भी स्थायी न रहता हो ऐसे संसार की प्रतिष्ठा (स्थिति) कैसी ? संसार से अपना माना हुआ सम्बन्ध छोड़ते ही उसका अपने लिये अन्त हो जाता है और अपने वास्तविक स्वरूप अथवा परमात्मा में स्थिति हो जाती है। विशेष बात – इस संसार के आदि , मध्य और अन्त का पता आज तक कोई वैज्ञानिक नहीं लगा सका और न ही लगा सकता है। संसार से सम्बन्ध रखते हुए अथवा सांसारिक भोगों को भोगते हुए संसार के आदि, मध्य और अन्त को ढूँढ़ना चाहें तो कोल्हू के बैल की तरह उम्र भर रहने पर भी कुछ हाथ आनेका नहीं। वास्तव में इस संसार के आदि , मध्य और अन्त का पता लगाने की जरूरत भी नहीं है। जरूरत संसार से अपने माने हुए सम्बन्ध का विच्छेद करने की ही है। संसार अनादिसान्त है या अनादिअनन्त है अथवा प्रतीतिमात्र है इत्यादि विषयों पर दार्शनिकों में अनेक मतभेद हैं परन्तु संसार के साथ हमारा सम्बन्ध असत् है जिसका विच्छेद करना आवश्यक है – इस विषय पर सभी दार्शनिक एकमत हैं। संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करने का सुगम उपाय है – संसार से प्राप्त (मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ , शरीर , धन , सम्पत्ति आदि) सम्पूर्ण सामग्री को अपनी और अपने लिये न मानते हुए उसको संसार की ही सेवा में लगा देना। सांसारिक स्त्री , पुत्र , मान , बड़ाई , धन , सम्पत्ति , आयु , नीरोगता आदि कितने ही प्राप्त हो जायँ । यहाँ तक कि संसार के समस्त भोग एक ही मनुष्य को मिल जायँ तो भी उनसे मनुष्य को तृप्ति नहीं हो सकती क्योंकि जीव स्वयं अविनाशी है और सांसारिक भोग नाशवान हैं। नाशवान से अविनाशी कैसे तृप्त हो सकता है ? अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलम् – संसार को ‘सुविरूढमूलम्’ कहने का तात्पर्य यह है कि तादात्म्य , ममता और कामना के कारण यह संसार (प्रतिष्ठा रहित होने पर भी) दृढ़ मूलों वाला प्रतीत हो रहा है। व्यक्ति , पदार्थ , क्रिया आदि में राग , ममता होने से सांसारिक बन्धन अधिक से अधिक दृढ़ होता चला जाता है। जिन पदार्थों , व्यक्तियों में राग – ममता का घनिष्ठ सम्बन्ध हो जाता है उनको मनुष्य अपना स्वरूप ही मानने लग जाता है। जैसे धन में ममता होने से उसकी प्राप्ति में मनुष्य को बड़ी प्रसन्नता होती है और मैं बड़ा धनवान हूँ – ऐसा अभिमान हो जाता है। धन के नाश से वह अपना नाश मानने लग जाता है। लोभ बढ़ने से धन की प्राप्ति के लिये वह अन्याय , पाप आदि न करने लायक काम भी कर बैठता है। फिर इतना लोभ बढ़ जाता है कि उसके भीतर यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि झूठ , कपट , बेईमानी आदि के बिना धन कमाया ही नहीं जा सकता। उसे यह विचार ही नहीं होता कि पाप से धन कमाकर मैं यहाँ कितने दिन ठहरूँगा ? पाप से कमाया धन तो शरीर के साथ यहीँ छूट जायगा किंतु धन के लिये किये झूठ , कपट , बेईमानी , चोरी आदि पाप तो मेरे साथ जायँगे (टिप्पणी प0 748) जिससे परलोक में मेरी कितनी दुर्गति होगी आदि। इतना ही नहीं वह दूसरों को भी प्रेरणा करने लग जाता है कि धन कमाने के लिये पाप करने में कोई खराबी नहीं यह तो व्यापार है , इसमें झूठ बोलना , ठगना आदि सब उचित है इत्यादि। इस दुर्भाव का होना ही तादात्म्य , ममता और कामनारूप मूलों का दृढ़ होना है। इस प्रकार के दूषित भावों के दृढ़मूल होने से मनुष्य वैसा ही बन जाता है (गीता 17। 3)। ये तादात्म्य , ममता और कामनारूप मूल अन्तःकरण में इतनी दृढ़ता से जमे हुए हैं कि पढ़ने , सुनने तथा विचार-विवेचन करने पर भी सर्वथा नष्ट नहीं होते। साधक प्रायः कहा करते हैं कि सत्सङ्गचर्चा सुनते समय तो इन दोषों के त्याग की बात अच्छी और सुगम लगती है परन्तु व्यवहार में आने पर ऐसा होता नहीं। इनको छोड़ना तो चाहते हैं पर ये छूटते नहीं। इन दोषों के न छूटने में खास कारण है – सांसारिक सुख लेने की इच्छा। साधक से भूल यह होती है कि वह सांसारिक सुख भी लेना चाहता है और साथ ही दोषों से भी बचना चाहता है। जैसे लोभी व्यक्ति विषयुक्त लड्डुओं की मिठास को भी लेना चाहे और साथ ही विष से भी बचना चाहे ऐसा कभी सम्भव नहीं है। संसार से कभी किञ्चिन्मात्र भी सुख की आशा न रखने पर इसका दृढ़मूल स्वतः नष्ट हो जाता है। दूसरी बात यह है कि तादात्म्य , ममता और कामना का मिटना बहुत कठिन है – साधक की यह मान्यता ही इन दोषों को मिटने नहीं देती। वास्तव में तो ये स्वतः मिट रहे हैं। किसी भी मनुष्य में ये दोष सदा नहीं रहते उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं किंतु अपनी मान्यता के कारण ये स्थायी दिखते हैं। अतः साधक को चाहिये कि वह इन दोषों के मिटने को कभी कठिन न माने। असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा – भगवान कहते हैं कि यद्यपि इस संसारवृक्ष के अवान्तर मूल बहुत दृढ़ हैं फिर भी इनको दृढ़ असङ्गतारूप शस्त्र के द्वारा काटा जा सकता है। किसी भी स्थान , व्यक्ति , वस्तु , परिस्थिति आदि के प्रति मन में आकर्षण सुखबुद्धि का होना और उनके सम्बन्ध से अपने आपको बड़ा तथा सुखी मानना पदार्थों के प्राप्त होने अथवा संग्रह होने पर प्रसन्न होना – यही सङ्ग कहलाता है। इसका न होना ही असङ्गता अर्थात् वैराग्य है। वैराग्य के दो प्रकार हैं – (1) साधारण वैराग्य और (2) दृढ़ वैराग्य। दृढ़ वैराग्य को उपरति अथवा पर वैराग्य भी कहते हैं। वैराग्यसम्बन्धी विशेष बात वैराग्य के अनेक रूप हैं जो इस प्रकार हैं – पहला वैराग्य धन , मकान , जमीन आदि पदार्थों से होता है। इन पदार्थों का स्वरूप से त्याग कर देने पर भी अगर मन में उनका महत्त्व बना हुआ है और मैं त्यागी हूँ – ऐसा अभिमान है तो वास्तव में यह वैराग्य नहीं है। अन्तःकरण में जडपदार्थों का किञ्चिन्मात्र भी महत्त्व और आकर्षण न रहे – यही वैराग्य है। दूसरा वैराग्य अपने कहलाने वाले माता , पिता , स्त्री , पुत्र , भाई ,भौजाई आदि (परिवार) से होता है। उनकी सेवा करने या उनको सुख पहुँचाने के लिये ही उनसे अपना सम्बन्ध मानना चाहिये। अपने सुख के लिये उनसे किञ्चिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध न मानना ही बन्धु-बान्धवों से वैराग्य है। तीसरा और वास्तविक वैराग्य अपने शरीर से होता है। अगर शरीर से सम्बन्ध बना हुआ है तो सम्पूर्ण संसार से सम्बन्ध बना हुआ है क्योंकि शरीर संसार का ही बीज अथवा अंश है। शरीर से तादात्म्य न रहना ही शरीर से वैराग्य है। तादात्म्य (शरीर के साथ मानी हुई एकता अर्थात् अहंता) का नाश करने के लिये साधक को पहले मान , प्रतिष्ठा , पूजा , धन आदि की कामना का त्याग करना चाहिये। इनकी कामना का त्याग करने पर भी (शऱीर के) नाम में ममता रहने के कारण यश , कीर्ति , बड़ाई आदि की कामना रह जाती है। इसके कारण मरने के बाद भी अपने नाम की कीर्ति , अपना स्मारक बनने की चाह आदि सूक्ष्म कामनाएँ रह जाती हैं। इन सब कामनाओं का नाश करना आवश्यक है। कहीं-कहीं साधक के भीतर दूसरों की प्रशंसा सुनकर दूसरे की बड़ाई देखकर ईर्ष्या का भाव जाग्रत हो जाता है। अतः इसका भी नाश करना आवश्यक है। उपर्युक्त कामनाओं का नाश करने के बाद शरीर में ममता रह जाती है। यह ममता का सम्बन्ध मृत्यु के बाद भी बना रहता है। इसी कारण मृत शरीर को जला देने के बाद भी हड्डियों को गङ्गाजी में डालने से जीव (जिसने शरीर में ममता की है) की आगे गति होती है। विवेक (जड-चेतन प्रकृति-पुरुष अथवा शरीर-शरीरी की भिन्नताका ज्ञान) जाग्रत होने पर ममता का नाश हो जाता है। कामना और ममता – दोनों का नाश होने के बाद तादात्म्य (अहंता) नष्टप्राय हो जाता है अर्थात् बहुत सूक्ष्म रह जाता है। तादात्म्य का अत्यन्ताभाव भगवत्प्रेम की प्राप्ति होने पर होता है। जब मनुष्य स्वयं यह अनुभव कर लेता है कि मैं शरीर नहीं हूँ , शरीर मेरा नहीं है तब कामना , ममता और तादात्म्य – तीनों मिट जाते हैं। यही वास्तविक वैराग्य है। जिसके भीतर दृढ़ वैराग्य है उसके अन्तःकरण में सम्पूर्ण वासनाओं का नाश हो जाता है। अपने स्वरूप से विजातीय (जड) पदार्थ – शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि से किञ्चिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध न मानकर – सबका कल्याण हो , सब सुखी हों , सब निरोग हों , कभी किसी को किञ्चिन्मात्र भी दुःख न हो (टिप्पणी प0 750.1) – इस भाव का रहना ही दृढ़ वैराग्य का लक्षण है। यह (इदम् ) रूप से जानने में आने वाले स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीरसहित सम्पूर्ण संसार को जानने वाला मैं (अहम् ) कहलाता है। यह (जानने में आने वाला दृश्य) और मैं (जानने वाला द्रष्टा) कभी एक नहीं हो सकते – यह नियम है। इस प्रकार संसार और शरीर नष्ट होने वाले हैं और मैं (स्वयं) अविनाशी है – इस विवेक का आदर करते हुए अपने आपको संसार और शरीर से सर्वथा अलग अनुभव करना ही असङ्गशस्त्र के द्वारा संसारवृक्ष का छेदन करना है। इस विवेक को महत्त्व न देने के कारण ही संसार दृढ़ मूलों वाला प्रतीत होता है। सांसारिक वस्तुओं का अत्यन्ताभाव अर्थात् सर्वथा नाश तो नहीं हो सकता पर उनमें राग का सर्वथा अभाव हो सकता है। अतः छेदन का तात्पर्य सांसारिक वस्तुओं का नाश करना नहीं प्रत्युत उनसे अपना राग हटा लेना है। संसार से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर संसार का अपने लिये सर्वथा अभाव हो जाता है जिसे आत्यन्तिक प्रलय भी कहते हैं। जो हमारा स्वरूप नहीं है तथा जिसके साथ हमारा वास्तविक सम्बन्ध नहीं है उसी का त्याग (छेदन) होता है। हम स्वरूपतः चेतन और अविनाशी हैं एवं संसार जड और विनाशी है । अतः संसार से हमारा सम्बन्ध अवास्तविक और भूल से माना हुआ है। स्वरूप से हम संसार से असङ्ग ही हैं। पहले से ही जो असङ्ग है वही असङ्ग होता है – यह नियम है। अतः संसार से हमारी असङ्गता स्वतःसिद्ध है – इस वास्तविकता को दृढ़ता से मान लेना चाहिये। संसार कितना ही सुविरूढमूल क्यों न हो? उसके साथ अपना सम्बन्ध न मानने से वह स्वतः कट जाता है क्योंकि संसार के साथ अपना सम्बन्ध है नहीं केवल माना हुआ है। अतः संसार के साथ अपना सम्बन्ध न मानने से उसका छेदन हो जाता है – इसमें साधक को सन्देह नहीं करना चाहिये चाहे (आरम्भ में) व्यवहार में ऐसा दिखायी दे या न दे। जीव ने अपनी भूल से शरीरसंसार से सम्बन्ध माना था। इसलिये इसका छेदन करने की जिम्मेवारी भी जीव पर ही है। अतः भगवान इसे ही छेदन करने के लिये कह रहे हैं। संसार से सम्बन्ध-विच्छेद के कुछ सुगम उपाय (1) कुछ भी लेने की इच्छा न रखकर संसार से प्राप्त सामग्री को संसार की सेवा में ही लगा देना। (2) सांसारिक सुख (भोग और संग्रह) की कामना का सर्वथा त्याग करना। (3) संसार के आश्रय का सर्वथा त्याग करना। (4) शरीरसंसार से मैं और मेरापन को बिलकुल हटा लेना। (5) मैं भगवान का हूँ , भगवान मेरे हैं – इस वास्तविकता पर दृढ़ता से डटे रहेना। (6) मुझे एक परमात्मा की तरफ ही चलना है – ऐसे दृढ़ निश्चय (व्यवसायात्मिका बुद्धि) का होना। (7) शास्त्रविहित अपने-अपने कर्तव्यकर्मों (स्वधर्म) का तत्परतापूर्वक पालन करना (टिप्पणी प0 750.2) (गीता 18। 45)। (8) बचपन में शरीर , पदार्थ , परिस्थिति , विद्या , सामर्थ्य आदि जैसे थे वैसे अब नहीं हैं अर्थात् वे सब के सब बदल गये पर मैं स्वयं वही हूँ बदला नहीं – अपने इस अनुभव को महत्त्व देना। (9) संसार से माने हुए सम्बन्ध का सद्भाव (सत्ताभाव) मिटाना। संसारवृक्ष का छेदन करने के बाद साधक को क्या करना चाहिये ? इसका विवेचन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वमी रामसुखदास जी 

 

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