अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
( 12- 15 ) प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप का वर्णन
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्৷৷15.12৷৷
यत्-जो; आदित्य-गतम्-सूर्य में; तेजः-दीप्ति; जगत्-ब्रह्मांड; भासयते-आलोकित होता है; अखिलम्-सम्पूर्ण; यत्-जो; चन्द्रमसि-चन्द्रमा में; यत्-जो; च-भी; अग्नौ-अग्नि में; तत्-वह; तेजः-तेज; विद्धि-जानो; मामकम्-मुझसे।।
हे अर्जुन! यह जान लो कि मैं सूर्य के तेज के समान हूँ जो पूरे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है। सूर्य का तेज और अग्नि की दीप्ति मुझसे ही उत्पन्न होती है अर्थात जो प्रकाश सूर्य में स्थित है जिससे समस्त संसार प्रकाशित होता है, जो प्रकाश चन्द्रमा में स्थित है और जो प्रकाश अग्नि में स्थित है, उस प्रकाश को तू मुझसे ही उत्पन्न समझ ৷৷15.12৷৷
[प्रभाव और महत्त्व की ओर आकर्षित होना जीव का स्वभाव है। प्राकृत पदार्थों के सम्बन्ध से जीव प्राकृत पदार्थों के प्रभाव से प्रभावित हो जाता है। कारण यह है कि प्रकृति में स्थित होने के कारण जीव को प्राकृत पदार्थों (शरीर , स्त्री , पुत्र , धन आदि) का महत्त्व दिखने लगता है , भगवान का नहीं। अतः जीव पर पड़े प्राकृत पदार्थों का प्रभाव हटाने के लिये भगवान अपने प्रभाव का वर्णन करते हुए यह रहस्य प्रकट करते हैं कि उन प्राकृत पदार्थों में जो प्रभाव और महत्त्व देखने में आता है वह वस्तुतः (मूल में) मेरा ही है , उनका नहीं। सर्वोपरि प्रभावशाली मैं ही हूँ। मेरे ही प्रकाश से सब प्रकाशित हो रहे हैं।] यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् – जैसे भगवान ने (गीता 2। 55में ) कामनाओं को ‘मनोगतान्’ बताया है – ऐसे ही यहाँ तेज को ‘आदित्यगतम्’ बताते हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे मन में स्थित कामनाएँ मन का धर्म या स्वरूप न होकर आगन्तुक हैं – ऐसे ही सूर्य में स्थित तेज सूर्य का धर्म या स्वरूप न होकर आगन्तुक है अर्थात् वह तेज सूर्य का अपना न होकर (भगवान से) आया हुआ है। सूर्य का तेज (प्रकाश) इतना महान है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उससे प्रकाशित होता है। ऐसा वह तेज सूर्य का दिखने पर भी वास्तव में भगवान का ही है। इसलिये सूर्य भगवान को और उनके परमधाम को प्रकाशित नहीं कर सकता। महर्षि पतञ्जलि कहते हैं – पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।।(योगदर्शन 1। 26) ईश्वर सबके पूर्वजों का भी गुरु है क्योंकि उसका काल से अवच्छेद नहीं है। सम्पूर्ण भौतिक जगत में सूर्य के समान प्रत्यक्ष प्रभावशाली पदार्थ कोई नहीं है। चन्द्र , अग्नि , तारे , विद्युत आदि जितने भी प्रकाशमान पदार्थ हैं वे सभी सूर्य से ही प्रकाश पाते हैं। भगवान से मिले हुए तेज के कारण जब सूर्य इतना विलक्षण और प्रभावशाली है तब स्वयं भगवान कितने विलक्षण और प्रभावशाली होंगे । ऐसा विचार करने पर स्वतः भगवान की तरफ आकर्षण होता है। सूर्य नेत्रों का अधिष्ठातृदेवता है। अतः नेत्रों में जो प्रकाश (देखने की शक्ति) है वह भी परम्परा से भगवान से ही आयी हुई समझनी चाहिये। यच्चन्द्रमसि – जैसे सूर्य में स्थित प्रकाशिका शक्ति और दाहिका शक्ति – दोनों ही भगवान से प्राप्त (आगत) हैं – ऐसे ही चन्द्रमा की प्रकाशिका शक्ति और पोषण शक्ति – दोनों (सूर्य द्वारा प्राप्त होने पर भी परम्परा से) भगवत्प्रदत्त ही हैं। जैसे भगवान का तेज आदित्यगत है – ऐसे ही उनका तेज चन्द्रगत भी समझना चाहिये। चन्द्रमा में प्रकाश के साथ शीतलता , मधुरता , पोषणता आदि जो भी गुण हैं वह सब भगवान का ही प्रभाव है। यहाँ चन्द्रमा को तारे , नक्षत्र आदि का भी उपलक्षण समझना चाहिये। चन्द्रमा मन का अधिष्ठातृदेवता है। अतः मन में जो प्रकाश (मनन करने की शक्ति) है वह भी परम्परा से भगवान से ही आयी हुई समझनी चाहिये।यच्चाग्नौ – जैसे भगवान का तेज आदित्यगत है – ऐसे ही उनका तेज अग्निगत भी समझना चाहिये। तात्पर्य यह है कि अग्नि की प्रकाशिका शक्ति और दाहिका शक्ति – दोनों भगवान की ही हैं , अग्नि की नहीं। यहाँ अग्नि को विद्युत् , दीपक , जुगनू आदि का भी उपलक्षण समझना चाहिये। अग्नि वाणी का अधिष्ठातृदेवता है। अतः वाणी में जो प्रकाश (अर्थप्रकाश करने की शक्ति) है वह भी परम्परा से भगवान से ही आयी हुई समझनी चाहिये। तत्तेजो विद्धि मामकम् – जो तेज सूर्य , चन्द्रमा और अग्नि में है और जो तेज इन तीनों के प्रकाश से प्रकाशित अन्य पदार्थों (तारे , नक्षत्र , विद्युत् , जुगनू आदि) में देखने तथा सुनने में आता है उसे भगवान का ही तेज समझना चाहिये।उपर्युक्त पदों से भगवान यह कह रहे हैं कि मनुष्य जिस-जिस तेजस्वी पदार्थ की तरफ आकर्षित होता है उस-उस पदार्थ में उसको मेरा ही प्रभाव देखना चाहिये (गीता 10। 41)। जैसे बूँदी के लड्डू में जो मिठास है वह उसकी अपनी न होकर चीनी की ही है – ऐसे ही सूर्य , चन्द्रमा और अग्नि में जो तेज है वह उनका अपना न होकर भगवान का ही है। भगवान के प्रकाश से ही यह सम्पूर्ण जगत प्रकाशित होता है – तस्य भासा सर्वमिदं विभाति (कठोपनिषद् 2। 2। 15)। वह सम्पूर्ण ज्योतियों की भी ज्योति है – ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः (गीता 13। 17)। सूर्य , चन्द्रमा और अग्नि क्रमशः नेत्र , मन और वाणी के अधिष्ठाता एवं उनको प्रकाशित करने वाले हैं। मनुष्य अपने भावों को प्रकट करने और समझने के लिये नेत्र , मन (अन्तःकरण) और वाणी – इन तीन इन्द्रियों का ही उपयोग करता है। ये तीन इन्द्रियाँ जितना प्रकाश करतीं हैं उतना प्रकाश अन्य इन्द्रियाँ नहीं करतीं। प्रकाश का तात्पर्य है – अलग-अलग ज्ञान कराना। नेत्र और वाणी बाहरी करण हैं तथा मन भीतरी करण है। करणों के द्वारा वस्तु का ज्ञान होता है। ये तीनों ही करण (इन्द्रियाँ) भगवान को प्रकाशित नहीं कर सकते क्योंकि इनमें जो तेज या प्रकाश है वह इनका अपना न होकर भगवान का ही है। दृश्य ( दिखने वाले ) पदार्थों में अपना प्रभाव बताने के बाद अब भगवान आगे के श्लोक में जिस शक्ति से समष्टिजगत में क्रियाएँ हो रही हैं उस समष्टिशक्ति में अपना प्रभाव प्रकट करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी