Shrimad Bhagavad Geeta Chapter 15

 

 

Previous        Menu          Next

 

 

अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग

पुरुषोत्तमयोग-  पंद्रहवाँ अध्याय

 

( 12- 15 )  प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप का वर्णन

 

 

Bhagavad Gita Chapter 15गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।

पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः৷৷15.13৷৷

 

गाम्-पृथ्वीलोक में; आविश्य-व्याप्त; च-भी; भूतानि-जीवों के; धारयामि-धारणा करता हूँ; अहम्-मैं; ओजसा-शक्ति; पुष्णामि-पोषण करता; च-तथा; औषधीः-पेड़ पौधों को; सर्वोः-समस्त; सोमः-चन्द्रमा; भूत्वा-बनकर; रसात्मकः – जीवन रस प्रदान करने वाला।

 

पृथ्वी पर व्याप्त रहकर मैं सभी जीवों को अपनी शक्ति से पोषित करता हूँ। चन्द्रमा के रूप में मैं सभी पेड़-पौधों और वनस्पतियों को जीवन रस प्रदान करता हूँ और उन्हें पोषित करता हूँ अर्थात मैं ही पृथ्वी लोक में प्रवेश करके अपनी शक्ति और ओज से सभी प्राणियों को धारण करता हूँ और मैं ही रसमय  चन्द्रमा के रूप में वनस्पतियों और औषधियों में जीवन-रस बनकर समस्त प्राणियों का पोषण करता हूँ ৷৷15.13৷৷

 

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा – भगवान ही पृथ्वी में प्रवेश करके उस पर स्थित सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गम प्राणियों को धारण करते हैं। तात्पर्य यह है कि पृथ्वी में जो धारणशक्ति देखने में आती है वह पृथ्वी की अपनी न होकर भगवान की ही है (टिप्पणी प0 774.1)। वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि पृथ्वी की अपेक्षा जल का स्तर ऊँचा है और पृथ्वी पर जल का भाग स्थल की अपेक्षा बहुत अधिक है (टिप्पणी प0 774.2)। ऐसा होने पर भी पृथ्वी जलमग्न नहीं होती – यह भगवान की धारणशक्ति का ही प्रभाव है।पृथ्वी के उपलक्षण से यह समझना चाहिये कि पृथ्वी के सिवाय जहाँ भी धारणशक्ति देखने में आती है वह सब भगवान की ही है। पृथ्वी में अन्नादि ओषधियों को उत्पन्न करने की ‘उत्पादिका’ शक्ति एवं गुरुत्वाकर्षण-शक्ति भी भगवान की ही समझनी चाहिये। पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः – चन्द्रमा में दो शक्तियाँ हैं – प्रकाशिकाशक्ति और पोषणशक्ति। प्रकाशिकाशक्ति में अपने प्रभाव का वर्णन पूर्वश्लोक में करने के बाद अब भगवान इस श्लोक में चन्द्रमा की पोषणशक्ति में अपना प्रभाव बताते हैं कि चन्द्रमा के माध्यम से सम्पूर्ण वनस्पतियों को मैं ही पुष्ट करता हूँ। चन्द्रमा शुक्लपक्ष में पोषक और कृष्णपक्ष में शोषक होता है। शुक्लपक्ष में रसमय चन्द्रमा की मधुर किरणों से अमृतवर्षा होने के कारण ही लतावृक्षादि पुष्ट होते हैं और फलते-फूलते हैं। माता के उदर में स्थित शिशु भी शुक्लपक्ष में वृद्धि को प्राप्त होता है। यहाँ ‘सोमः’ पद चन्द्रलोक का वाचक है , चन्द्रमण्डल का नहीं। नेत्रों से हमें जो दिखता है , वह चन्द्रमण्डल है। चन्द्रमण्डल से भी ऊपर (आँखों से न दिखने वाला) चन्द्रलोक है। उपर्युक्त पदों में विशेषरूप से ‘सोमः’ पद देने का अभिप्राय यह है कि चन्द्रमा में प्रकाश के साथ-साथ अमृतवर्षा की शक्ति भी है। वह अमृत पहले चन्द्रलोक से चन्द्रमण्डल में आता है और फिर चन्द्रमण्डल से भूमण्डल पर आता है। यहाँ ‘ओषधीः’ पद के अन्तर्गत गेहूँ , चना आदि सब प्रकार के अन्न समझने चाहिये। चन्द्रमा के द्वारा पुष्ट हुए अन्न का भोजन करने से ही मनुष्य , पशु , पक्षी आदि समस्त प्राणी पुष्टि प्राप्त करते हैं। औषधियों , वनस्पतियों में शरीर को पुष्ट करने की जो शक्ति है वह चन्द्रमा से आती है। चन्द्रमा की वह पोषणशक्ति भी उसकी अपनी न होकर भगवान की ही है। भगवान ही चन्द्रमा को निमित्त बनाकर सबका पोषण करते हैं। समष्टिशक्ति में अपना प्रभाव बताने के बाद अब भगवान जिस शक्ति से व्यष्टि-जगत में क्रियाएँ हो रही हैं उस व्यष्टिशक्ति में अपना प्रभाव बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

       Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!