अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
( 12- 15 ) प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप का वर्णन
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्৷৷15.14৷৷
अहम्-मैं; वैश्वानरः-पाचक-अग्नि; भूत्वा-बन कर; प्राणिनाम्-सभी जीवों के; देहम्- शरीर; अश्रित:-स्थित; प्राण-अपान-भीतर और अंदर जाने वाली श्वास; समायुक्तः-संतुलित होना; पचामि-पचाता हूँ; अन्नम्-अन्न को; चतुःविधम्-चार प्रकार के।
मैं ही पाचन-अग्नि के रूप में समस्त जीवों के शरीर में स्थित रहता हूँ, मैं ही प्राण वायु और अपान वायु को संतुलित रखते हुए चार प्रकार के (चबाने वाले, पीने वाले, चाटने वाले और चूसने वाले) अन्नों को पचाता हूँ ৷৷15.14৷৷
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः – बारहवें श्लोक में अग्नि की प्रकाशनशक्ति में अपने प्रभाव का वर्णन करने के बाद भगवान इस श्लोक में वैश्वानररूप अग्नि की पाचनशक्ति में अपने प्रभाव का वर्णन करते हैं (टिप्पणी प0 775.1)। तात्पर्य यह है कि अग्नि के दोनों ही कार्य (प्रकाश करना और पचाना) भगवान की ही शक्ति से होते हैं। प्राणियों के शरीर को पुष्ट करने तथा उनके प्राणों की रक्षा करने के लिये भगवान ही वैश्वानर (जठराग्नि) के रूप से उन प्राणियों के शरीर में रहते हैं। मनुष्यों की तरह लता , वृक्ष आदि स्थावर और पशु , पक्षी आदि जङ्गम प्राणियों में भी वैश्वानर की पाचनशक्ति काम करती है। लता , वृक्ष आदि जो खाद्य , जल ग्रहण करते हैं। पाचनशक्ति के द्वारा उसका पाचन होने के फलस्वरूप ही उन लतावृक्षादि की वृद्धि होती है। प्राणापानसमायुक्तः – शरीर में प्राण , अपान , समान , उदान और व्यान – ये पाँच प्रधान वायु एवं नाग , कूर्म , कृकर , देवदत्त और धनञ्जय – ये पाँच उपप्रधान वायु रहती हैं (टिप्पणी प0 775.2)। इस श्लोक में भगवान दो प्रधान वायु – प्राण और अपान का ही वर्णन करते हैं क्योंकि ये दोनों वायु जठराग्नि को प्रदीप्त करती हैं। जठराग्नि से पचे हुए भोजन के सूक्ष्म अंश या रस को शरीर के प्रत्येक अङ्ग में पहुँचाने का सूक्ष्म कार्य भी मुख्यतः प्राण और अपान वायु का ही है। पचाम्यन्नं चतुर्विधम् – प्राणी चार प्रकार के अन्न का भोजन करते हैं (1) भोज्य – जो अन्न दाँतों से चबाकर खाया जाता है जैसे – रोटी , पुआ आदि। (2) पेय – जो अन्न निगला जाता है जैसे खिचडी , हलवा , दूध , रस आदि। (3) चोष्य – दाँतों से दबाकर जिस खाद्य पदार्थ का रस चूसा जाता है और बचे हुए असार भाग को थूक दिया जाता है जैसे – ऊख , आम आदि। वृक्षादि स्थावर योनियाँ इसी प्रकार से अन्न को ग्रहण करती हैं। (4) लेह्य – जो अन्न जिह्वा से चाटा जाता है जैसे – चटनी , शहद आदि। अन्न के उपर्युक्त चार प्रकारों में भी एक-एक के अनेक भेद हैं। भगवान कहते हैं कि उन चारों प्रकार के अन्नों को वैश्वानर (जठराग्नि) रूप से मैं ही पचाता हूँ। अन्न का ऐसा कोई अंश नहीं है जो मेरी शक्ति के बिना पच सके। पीछे के तीन श्लोकों में अपनी प्रभावयुक्त विभूतियों का वर्णन करके अब उस विषय का उपसंहार करते हुए भगवान सब प्रकार से जानने योग्य तत्त्व स्वयं को बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी