अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
( 07 – 11 ) इश्वरांश जीव, जीव तत्व के ज्ञाता और अज्ञाता
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः৷৷15.11৷৷
यतन्तः-प्रयासरत करता; योगिन:-योगी; च-भी; एनम् – इसे; पश्यनित-देखता है; आत्मनि- शरीर में; अवस्थितम् – प्रतिष्ठित; यतन्तः-प्रयत्न करते हुए; अपि – यद्यपि; अकृत-आत्मानः-जिनका मन शुद्ध नहीं है; न – नहीं; एनम्-इसे; पश्यन्ति-देखते हैं; अचेतसः-अनभिज्ञ रहते हैं।
भगवद्प्राप्ति के लिए प्रयासरत योगी यह जानने में समर्थ हो जाते हैं कि आत्मा शरीर में प्रतिष्ठित है किन्तु जिनका मन शुद्ध नहीं है वे प्रयत्न करने के बावजूद भी इसे जान नहीं सकते अर्थात यत्न करने वाले प्रयासरत योगी अपने-आप में स्थित इस परमात्म तत्त्व का अनुभव करते हैं या अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को देख सकते हैं, किन्तु जिनका मन शुद्ध नहीं है या जिन्होंने अपना अंतःकरण शुद्ध नहीं किया है ऐसे अज्ञानी और अविवेकी मनुष्य यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा या आत्म तत्व को नहीं देख पाते हैं और सदैव इस से अनभिज्ञ रहते हैं ৷৷15.11৷৷
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्ति – यहाँ ‘योगिनः’ पद उन सांख्ययोगी साधकों का वाचक है जिनका एकमात्र उद्देश्य परमात्मतत्त्व को प्राप्त करने का बन चुका है। यहाँ ‘यतन्तः’ पद साधनपरक है। भीतर की लगन जिसे पूर्ण किये बिना चैन से न रहा जाय यत्न कहलाती है।जिन साधकों का एकमात्र उद्देश्य परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना है उनमें असङ्गता , निर्ममता और निष्कामता स्वतः आ जाती है। उद्देश्य की पूर्ति के लिये अनन्यभाव से जो उत्कण्ठा, तत्परता , व्याकुलता , विरहयुक्त चिन्तन , प्रार्थना एवं विचार साधक के हृदय में प्रकट होते हैं उन सबको यहाँ ‘यतन्तः’ पद के अन्तर्गत समझना चाहिये। जिसकी प्राप्ति का उद्देश्य बनाया और जिसकी विमुखता को यत्न के द्वारा दूर किया उसी तत्त्व का योगीजन अपने आप में अनुभव करते हैं। परमात्मा के पूर्ण सम्मुख हो जाने के बाद योगी की परमात्मतत्त्व में सदा सहज स्थिति रहती है। यही ‘पश्यन्ति’ पद का भाव है। जो सांख्ययोगी साधक सत – असत के विचार द्वारा सत्तत्त्व की प्राप्ति और असत् संसार की निवृत्ति करना चाहते हैं , विवेक की सर्वथा जागृति होने पर वे अपने आप में स्थित परमात्मतत्त्व का अनुभव कर लेते हैं। ‘आत्मन्यवस्थितम्’- परमात्मतत्त्व से देशकाल की दूरी नहीं है। वह समानरूप से सर्वत्र एवं सदैव विद्यमान है। वही सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा है – अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः (गीता 10। 20)। इसलिये योगीलोग अपने आप में ही इस तत्त्व का अनुभव कर लेते हैं। सत्ता (अस्तित्व या हैपन) दो प्रकार की होती है – (1) विकारी और (2) स्वतःसिद्ध। जो सत्ता उत्पन्न होने के बाद प्रतीत होती है वह विकारी सत्ता कहलाती है और जो सत्ता कभी उत्पन्न नहीं होती प्रत्युत सदा (अनादिकाल से) ज्यों की त्यों रहती है वह स्वतःसिद्ध सत्ता कहलाती है। इस दृष्टि से संसार एवं शरीर की सत्ता विकारी और परमात्मा एवं आत्मा की सत्ता स्वतःसिद्ध है। विकारी सत्ता को स्वतःसिद्ध सत्ता में मिला देना भूल है (टिप्पणी प0 769)। उत्पन्न हुई विकारी सत्ता से सम्बन्धविच्छेद करके अनुत्पन्न स्वतःसिद्ध सत्ता में स्थित होना ही ‘आत्मनि अवस्थितम्’ पदों का भाव है। जीव (चेतन) ने भगवत्प्रदत्त विवेक का अनादर करके शरीर (जड) को मैं और मेरा मान लिया अर्थात् शरीर से अपना सम्बन्ध मान लिया। जीव के बन्धन का कारण यह माना हुआ सम्बन्ध ही है। यह सम्बन्ध इतना दृढ़ है कि मरने पर भी छूटता नहीं और कच्चा इतना है कि जब चाहे तब छोड़ा जा सकता है। किसी से अपना सम्बन्ध जोड़ने अथवा तोड़ने में जीव सर्वथा स्वतन्त्र है। इसी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके जीव शरीरादि विजातीय पदार्थों से अपना सम्बन्ध मान लेता है। अपने विवेक (शरीर से अपनी भिन्नता का ज्ञान) को महत्त्व न देने से विवेक दब जाता है। विवेक के दबने पर शरी र(जडतत्त्व) की प्रधानता हो जाती है और वह सत्य प्रतीत होने लगता है। सत्सङ्ग , स्वाध्याय आदि से जैसे-जैसे विवेक विकसित होता है वैसे-वैसे शरीर से माना हुआ सम्बन्ध छूटता चला जाता है। विवेक जाग्रत होने पर परमात्मा (चिन्मयतत्त्व) से अपने वास्तविक सम्बन्ध का – उसमें अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव हो जाता है। यही ‘आत्मनि अवस्थितम्’ पदों का भाव है। विकारी सत्ता (संसार)के सम्बन्ध से अहंता (मैंपन) की उत्पत्ति होती है। यह अहंता दो प्रकार से मानी जाती है – (1) श्रवण से मानना जैसे – दूसरों से सुनकर मैं अमुक नाम वाला हूँ , मैं अमुक वर्ण वाला हूँ आदि अहंता मान लेते हैं (2) क्रिया से मानना जैसे – व्याख्यान देना , शिक्षा देना , चिकित्सा करना आदि क्रियाओं से मैं वक्ता हूँ , मैं शिक्षक हूँ , मैं चिकित्सक हूँ आदि अहंता मान लेते हैं। ये दोनों ही प्रकार की अहंता सदा रहने वाली नहीं है । जब कि है रूप स्वतःसिद्ध सत्ता सदा रहने वाली है। मैं रूप में मानी हुई अहंता का त्याग होने पर हूँ रूप विकारी सत्ता का भी स्वतः त्याग हो जाता है और योगी को है रूप स्वतःसिद्ध सत्ता में अपनी स्थिति का अनुभव हो जाता है। यही अपने आप में तत्त्व का अनुभव करना है। मार्मिक बात (1) देशकाल आदि की अपेक्षा से कहे जाने वाले मैं , तू , यह और वह – इन चारों के मूल में है के रूप में एक ही परमात्मतत्त्व समानरूप से विद्यमान है जो इन चारों का प्रकाशक और आधार है। मैं , तू , यह और वह – ये चारों निरन्तर परिवर्तनशील हैं और है नित्य अपरिवर्तनशील है। इनमें तू है , यह है और वह है – ऐसा तो कहा जाता है पर ‘मैं है’ – ऐसा न कहकर ‘मैं हूँ’ कहा जाता है। कारण यह है कि ‘मैं हूँ’ में ‘हूँ’ मैंपन के कारण आया है। जब तक मैंपन है तभी तक ‘हूँ’ के रूप में एकदेशीयता या परिच्छिन्नता है। मैंपन के मिटने पर एक है ही शेष रह जाता है। ‘आत्मनि अवस्थितम्’ तात्पर्य यह है कि ‘हूँ’ में ‘है’ और ‘है’ में ‘हूँ’ स्थित है। दूसरे शब्दों में व्यष्टि में समष्टि और समष्टि में व्यष्टि स्थित है। जिस प्रकार समुद्र और लहरें दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते उसी प्रकार ‘है’ और ‘हूँ’ दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते परन्तु जैसे जलतत्त्व में समुद्र और लहरें – ये दोनों ही नहीं हैं (वास्तव में एक ही जलतत्त्व है) ऐसे ही परमात्मतत्त्व (है) में ‘हूँ’ और ‘है’ – ये दोनों ही नहीं हैं। ऐसा अनुभव करना ही अपने-आप (स्वयं) में स्थित तत्त्व का अनुभव करना है।मैंपन के कारण (संसार में सुखासक्ति तथा परमात्मा से विमुखता होने से) ही परमात्मा का अपने आप में अनुभव नहीं होता। इसलिये परमात्मा को अपने आप से भिन्न में देखने के कारण उससे दूरी या वियोग का अनुभव करना पड़ता है और उसकी प्राप्ति के लिये जगह-जगह भटकना पड़ता है। अपने आप से भिन्न जितने पदार्थ हैं उनसे वियोग होना अवश्यम्भावी है परन्तु अपने आप में परमात्मा का अनुभव करने वाले को उससे अपनी दूरी या वियोग का अनुभव नहीं करना पड़ता ( टिप्पणी प0 770.1)। अपने आप में परमात्मा को देखना भिन्नता (द्वैतभाव) का पोषक नहीं प्रत्युत भिन्नता का नाशक है। वास्तव में ‘मैंपन’ ही भिन्नता का पोषक है। मनुष्य ने भिन्नता के वाचक मैंपन अथवा परिच्छिन्नता , पराधीनता , अभाव , अज्ञान आदि विकारों को भूल से अपने आप में ही मान लिया है। इनको दूर करने के लिये परमात्मा को अपने आप में देखना है। इन विकारों का नाश अपने आप में परमात्मा को देखने पर ही हो सकता है। ये विकार तभी तक हैं जब तक साधक ‘हूँ’ को देखता (मानता) है , ‘है’ को नहीं। इस ‘हूँ’ के स्थान पर ‘है’ को देखने पर कोई विकार नहीं रहता क्योंकि ‘है’ किञ्चिन्मात्र भी विकार नहीं है। संसार बदलने वाला है। संसार का ही अंश होने के कारण मैं भी बदलने वाला है जैसे – मैं बालक हूँ , मैं युवा हूँ , मैं वृद्ध हूँ , मैं रोगी हूँ , मैं निरोग हूँ इत्यादि (टिप्पणी प0 770.2)। संसार की तरह मैं भी उत्पन्न और नष्ट होने वाला है। जैसे संसार नहीं है – ऐसे ही मैं भी नहीं है। है सो सुन्दर है सदा , नहिं सो सुन्दर नाहिं। नहिं सो परगट देखिये , है सो दीखे नाहिं।। ‘है’ सदा है और ‘नहीं’ कभी नहीं है। ‘है’ दिखने में नहीं आता पर ‘नहीं’ दिखने में आता है क्योंकि जिसके द्वारा हम ‘नहीं’ को देखते हैं वे मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ आदि भी ‘नहीं’ के अंश हैं। त्रिपुटी में देखना सजातीयता में ही होता है अर्थात् त्रिपुटी से होने वाले (करणसापेक्ष) ज्ञान में सजातीयता का होना आवश्यक है। अतः ‘नहीं’ के द्वारा ‘नहीं’ को ही देखा जा सकता है ‘है’ को नहीं। ‘है’ का ज्ञान त्रिपुटी से रहित (करणनिरपेक्ष) है। ‘नहीं’ की स्वतन्त्र सत्ता न होने पर भी ‘है’ की सत्ता से ही उसकी सत्ता दिखती है। ‘है’ ही ‘नहीं’ का प्रकाशक और आधार है। जिस प्रकार नेत्र से संसार को तो देख सकते हैं पर नेत्र से नेत्र को नहीं देखते क्योंकि जिससे देखते हैं वह नेत्र है। इसी प्रकार जो सबको जानने वाला है उस परमात्मा को कैसे और किसके द्वारा जाना जा सकता है – विज्ञातारमरे केन विजानीयात्। (बृहदारण्यक0 2। 4। 14) जो ‘है’ से प्रकाशित होता है वह (नहीं) ‘है’ को कैसे प्रकाशित कर सकता है ? अपने आप में स्थित तत्त्व (है ) का अनुभव अपने आप (है) से ही हो सकता है इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि (नहीं) से बिलकुल नहीं। अपने आप से होने वाला ज्ञान स्वाधीन और दूसरों (मन , बुद्धि आदि ) से होने वाला ज्ञान पराधीन होता है। अपने आप में स्थित तत्त्व का अनुभव करने के लिये किसी दूसरे की सहायता लेने की जरूरत भी नहीं है। कानों से सुनने , मन से मनन करने , बुद्धि से विचार करने आदि उपायों से कोई तत्त्व को नहीं जान सकता । (टिप्पणी प0 771.1)। कारण कि इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , देश , काल , वस्तु आदि सब प्रकृति के कार्य हैं। प्रकृति के कार्य से उस तत्त्व को कैसे जाना जा सकता है जो प्रकृति से सर्वथा अतीत है ? अतः प्रकृति के कार्य का त्याग (सम्बन्धविच्छेद) करने पर ही तत्त्व की प्राप्ति होती है और वह अपने आप में ही होती है। साधक से सबसे बड़ी गलती यह होती है कि वह जिस रीति से संसार को जानता है उसी रीति से परमात्मा को भी जानना चाहता है परन्तु संसार और परमात्मा – दोनों को जानने की रीति एक-दूसरे से विरुद्ध है। संसार को इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि के द्वारा जाना जाता है क्योंकि उसकी जानकारी करणसापेक्ष है परन्तु परमात्मा को इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि के द्वारा नहीं जाना जा सकता क्योंकि उसकी जानकारी करणनिरपेक्ष है। जडता के आश्रय से चिन्मयता में स्थिति का अनुभव हो ही नहीं सकता। जडता (स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीर) का आश्रय लेकर जो परमात्मतत्त्व का अनुभव करना चाहते हैं वे पुरुष समाधि लगाकर भी परमात्मतत्त्व का अनुभव नहीं कर पाते क्योंकि समाधि भी कारणशरीर के आश्रित रहती है (टिप्पणी प 771.2)। जो परमात्मा को अपना तथा अपने को परमात्मा का जानते हैं वे ज्ञानरूप नेत्रों वाले योगीलोग शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि से अपने को अलग करके अपने आप में स्थित परमात्मतत्त्व का अनुभव कर लेते हैं परन्तु जो शरीर को अपना और अपने को शरीर का मानते हैं वे विमूढ़ और अकृतात्मा पुरुष शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि के द्वारा यत्न करने पर भी अपने आप में स्थित परमात्मतत्त्व का अनुभव नहीं कर पाते। (2) ‘आत्मनि अवस्थितम्’ पदों में भगवान ने अपने को सम्पूर्ण प्राणियों की आत्मा में स्थित (सर्वव्यापी) बताया है। इसका अनुभव करने के लिये साधक को ये चार बातें दृढ़तापूर्वक मान लेनी चाहिये (1) परमात्मा यहाँ हैं। (2) परमात्मा अभी हैं। (3) परमात्मा अपने में हैं। (4) परमात्मा अपने हैं। परमात्मा सब जगह (सर्वव्यापी) होने से यहाँ भी हैं , सब समय (तीनों कालों में) होने से अभी भी हैं , सब में होने से अपने में भी हैं और सबके होने से अपने भी हैं। इस दृष्टि से परमात्मा यहाँ होने से उनको प्राप्त करने के लिये दूसरी जगह जाने की आवश्यकता नहीं है , अभी होने से उनकी प्राप्ति के लिये भविष्य की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है , अपने में होने से उन्हें बाहर ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है और अपने होने से उनके सिवाय किसी को भी अपना मानने की आवश्यकता नहीं है। अपने होने से वे स्वाभाविक ही अत्यन्त प्रिय लगेंगे । प्रत्येक साधक के लिये उपर्युक्त चारों बातें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और तत्काल लाभदायक हैं। साधक को ये चारों बातें दृढ़ता से मान लेनी चाहिये। समस्त साधनों का यह सार साधन है। इसमें किसी योग्यता , अभ्यास , गुण आदि की भी जरूरत नहीं है। ये बातें स्वतःसिद्ध और वास्तविक हैं इसलिये इसको मानने के लिये सभी योग्य हैं , सभी पात्र हैं , सभी समर्थ हैं। शर्त यही है कि वे एकमात्र परमात्मा को ही चाहते हों।य तन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः – जिन्होंने अपना अन्तःकरण शुद्ध नहीं किया है उन पुरुषों को यहाँ ‘अकृतात्मानः’ कहा गया है। ‘सत्असत’ के ज्ञान (विवेक) को महत्त्व न देने के कारण ऐसे पुरुषों को ‘अचेतसः’ कहा गया है। जिनके अन्तःकरण में संसार के व्यक्ति , पदार्थ आदि का महत्त्व बना हुआ है और जो शरीरादि को अपना मानते हुए उनसे सुखभोग की आशा रखते हैं – ऐसे सभी पुरुष ‘अकृतात्मानः’ और ‘अचेतसः’ हैं। ऐसे पुरुष तत्त्व की प्राप्ति तो चाहते हैं पर वे शरीर , मन , बुद्धि आदि जड (प्राकृत) पदार्थों की सहायता से चेतन परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना चाहते हैं। परमात्मा जड पदार्थों की सहायता से नहीं प्रत्युत जडता के त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) से मिलते हैं। इस श्लोक में ‘यतन्तः’ पद दो बार आया है। भाव यह है कि यत्न करने में समानता होने पर भी एक (ज्ञानी) पुरुष तो तत्त्व का अनुभव कर लेता है दूसरा (मूढ़) नहीं कर पाता। इससे यह सिद्ध होता है कि शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि के द्वारा किया गया यत्न तत्त्वप्राप्ति में सहायक होने पर भी अन्तःकरण (जडता) के साथ सम्बन्ध बने रहने के कारण और अन्तःकरण में सांसारिक पदार्थों का महत्त्व रहने के कारण (यत्न करने पर भी ) तत्त्व को प्राप्त नहीं किया जा सकता। जिनकी दृष्टि असत् (सांसारिक भोग और संग्रह) पर ही जमी हुई है – ऐसे पुरुष सत् (तत्त्व) को कैसे देख सकते हैं ? ‘अकृतात्मा’ और ‘अचेतस’ पुरुष करने में तो ध्यान , स्वाध्याय , जप आदि सब कुछ करते हैं पर अन्तःकरण में जडता (सांसारिक भोग और संग्रह) का महत्त्व रहने के कारण उन्हें तत्त्व का अनुभव नहीं होता। यद्यपि ऐसे पुरुषों के द्वारा किया गया यत्न भी निष्फल नहीं जाता तथापि तत्त्व का अनुभव उन्हें वर्तमान में नहीं होता। वर्तमान में तत्त्व का अनुभव जडता का सर्वथा त्याग होने पर ही हो सकता है। जिसका आश्रय लिया जाय उसका त्याग नहीं हो सकता – यह नियम है। अतः शरीर , मन , बुद्धि आदि जड पदार्थों का आश्रय लेकर साधक जडता का त्याग नहीं कर सकता। इसके सिवाय मन , बुद्धि आदि जड पदार्थों को लेकर साधन करने वाले में सूक्ष्म अहंकार बना रहता है जो जडता का त्याग होने पर ही निवृत्त होता है। जडता का त्याग करने का सुगम उपाय है – एकमात्र भगवान का आश्रय लेना अर्थात् मैं भगवान का हूँ , भगवान मेरे हैं – इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेना , इसपर अटल विश्वास कर लेना। इसके लिये यत्न या अभ्यास करने की भी जरूरत नहीं है। वास्तविक बात को दृढ़तापूर्वक स्वीकारमात्र कर लेने की जरूरत है। 15वें अध्याय में पाँच-पाँच श्लोकों के चार प्रकरण हैं। उनमें से यह तीसरा प्रकरण 12वें से 15वें श्लोक तक का है जिसमें छठा श्लोक भी लेने से पाँच श्लोक पूरे हो जाते हैं। यह तीसरा प्रकरण विशेषरूप से भगवान के प्रभाव और महत्त्व को प्रकट करने वाला है। छठे श्लोक में जो विषय (परमधाम को सूर्य , चन्द्र और अग्नि प्रकाशित नहीं कर सकते ) स्पष्ट नहीं हो पाया था उसी का स्पष्ट विवेचन अब भगवान आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी