अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
( 16 – 20 ) क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विश्लेषण
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः৷৷15.18৷৷
यस्मात्-क्योंकि; क्षरम्-नश्वर; अतीत:-परे; अहम् – मैं हूँ; अक्षरात्-अक्षर से भी; अपि-भी; च-तथा; उत्तमः-परे; अत:-अतएव; अस्मि-मैं हूँ; लोके-संसार में; वेदे-वैदिक ग्रंथों में; च – तथा; प्रथितः – विख्यात; पुरुषोत्तम – पुरुषों में सबसे उत्तम पुरुष
क्योंकि मैं ही नश्वर सांसारिक पदार्थों और अविनाशी आत्मा से भी परे हूँ अर्थात मैं ही क्षर और अक्षर दोनों से परे स्थित सर्वोत्तम हूँ, इसलिए मैं संसार में और वेदों दोनों में ही दिव्य परम पुरूष अर्थात पुरुषोत्तम के रूप में विख्यात हूँ৷৷15.18৷৷
यस्मात्क्षरमतीतोऽहम् – इन पदों में भगवान का यह भाव है कि क्षर (प्रकृति) प्रतिक्षण परिवर्तनशील है और मैं नित्य-निरन्तर निर्विकार रूप से ज्यों का त्यों रहने वाला हूँ। इसलिये मैं क्षर से सर्वथा अतीत हूँ। शरीर से पर (व्यापक , श्रेष्ठ , प्रकाशक , सबल , सूक्ष्म) इन्द्रियाँ हैं , इन्द्रियों से पर मन है और मन से पर बुद्धि है (गीता 3। 42)। इस प्रकार एक-दूसरे से पर होते हुए भी शरीर , इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि एक ही जाति के जड हैं परन्तु परमात्मतत्त्व इनसे भी अत्यन्त पर है क्योंकि वह जड नहीं है प्रत्युत चेतन है। अक्षरादपि चोत्तमः — यद्यपि परमात्मा का अंश होने के कारण जीवात्मा (अक्षर) की परमात्मा से तात्त्विक एकता है तथापि यहाँ भगवान अपने को जीवात्मा से भी उत्तम बताते हैं। इसके कारण ये हैं – (1) परमात्मा का अंश होने पर भी जीवात्मा क्षर (जड प्रकृति) के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है (गीता 15। 7) और प्रकृति के गुणों से मोहित हो जाता है जबकि परमात्मा (प्रकृति से अतीत होने के कारण) कभी मोहित नहीं होते (गीता 7।13)। (2) परमात्मा प्रकृति को अपने अधीन करके लोक में आते , अवतार लेते हैं (गीता 4। 6) जबकि जीवात्मा प्रकृति के वश में होकर लोक में आता है (गीता 8। 19)। (3) परमात्मा सदैव निर्लिप्त रहते हैं (गीता 4। 14 9। 9) जबकि जीवात्मा को निर्लिप्त होने के लिये साधन करना पड़ता है (गीता 4। 18 7। 14)। भगवान द्वारा अपने को क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम बताने से यह भाव भी प्रकट होता है कि क्षर और अक्षर – दोनों में भिन्नता है। यदि उन दोनों में भिन्नता न होती तो भगवान अपने को या तो उन दोनों से ही अतीत बताते या दोनों से ही उत्तम बताते। अतः यह सिद्ध होता है कि जैसे भगवान क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम हैं – ऐसे ही अक्षर भी क्षर से अतीत और उत्तम है। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः – यहाँ ‘लोके’ पद का अर्थ है – पुराण , स्मृति आदि शास्त्र। शास्त्रों में भगवान ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिद्ध हैं। शुद्ध ज्ञान का नाम ‘वेद’ है जो अनादि है। वही ज्ञान आनुपूर्वीरूप से ऋक् , यजुः आदि वेदों के रूप से प्रकट हुआ है। वेदों में भी भगवान पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हैं। पूर्वश्लोक में भगवान ने कहा था कि क्षर और अक्षर – दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है। वह उत्तम पुरुष कौन है ? – इसको बताते हुए भगवान यह रहस्य प्रकट करते हैं कि वह उत्तम पुरुष – ‘पुरुषोत्तम’ मैं ही हूँ। विशेष बात (1) भौतिक सृष्टिमात्र क्षर (नाशवान ) है और परमात्मा का सनातन अंश जीवात्मा अक्षर (अविनाशी) है। क्षर से अतीत और उत्तम होने पर भी अक्षर ने क्षर से अपना सम्बन्ध मान लिया – इससे बढ़कर और कोई दोष , भूल या गलती है ही नहीं। क्षर के साथ यह सम्बन्ध केवल माना हुआ है वास्तव में एक क्षण भी रहने वाला नहीं है। जैसे बाल्यावस्था से अब तक शरीर बिलकुल बदल गया फिर भी हम कहते हैं कि ‘मैं वही हूँ’। यह भी हम नहीं बता सकते कि अमुक दिन बाल्यावस्था खत्म हुई और युवावस्था शुरू हुई। कारण कि नदी के प्रवाह की तरह शरीर निरन्तर ही बहता रहता है जब कि अक्षर (जीवात्मा) नदी में स्थित शिला (चट्टान) की तरह सदा अचल और असङ्ग रहता है। यदि अक्षर भी क्षर की तरह निरन्तर परिवर्तनशील और नाशवान होता तो इसकी आफत मिट जाती परन्तु स्वयं (अक्षर) अपरिवर्तनशील और अविनाशी होते हुए भी निरन्तर परिवर्तनशील और नाशवान क्षर को पकड़ लेता है – उसको अपना मान लेता है। होता यह है कि अक्षर क्षर को छोड़ता नहीं और क्षर एक क्षण भी ठहरता नहीं। इस आफत को मिटाने का सुगम उपाय है – क्षर (शरीरादि) को क्षर (संसार) की ही सेवा में लगा दिया जाय – उसको संसाररूपी वाटिका की खाद बना दी जाय। मनुष्य को शरीरादि नाशवान पदार्थ अधिकार करने अथवा अपना मानने के लिये नहीं मिले हैं प्रत्युत सेवा करने के लिये ही मिले हैं। इन पदार्थों के द्वारा दूसरों की सेवा करने की ही मनुष्य पर जिम्मेवारी है , अपना मानने की बिलकुल जिम्मेवारी नहीं। (2) 15वें अध्याय में भगवान ने पहले क्षर – संसारवृक्ष का वर्णन किया। फिर उसका छेदन करके परम पुरुष परमात्मा के शरण होने अर्थात् संसार से अपनापन हटाकर एकमात्र परमात्मा को अपना मानने की प्रेरणा की। फिर अक्षर – जीवात्मा को अपना सनातन अंश बताते हुए उसके स्वरूप का वर्णन किया। उसके बाद भगवान ने (12वें से 15वें श्लोक तक) अपने प्रभाव का वर्णन करते हुए बताया कि सूर्य , चन्द्र और अग्नि में मेरा ही तेज है , मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से चराचर सब प्राणियों को धारण करता हूँ , मैं ही अमृतमय चन्द्र के रूप से सम्पूर्ण वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ , वैश्वानर अग्नि के रूप में मैं ही प्राणियों के शरीर में स्थित होकर उनके द्वारा खाये हुए अन्न को पचाता हूँ , मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामीरूप से विद्यमान हूँ । मेरे से ही स्मृति , ज्ञान और अपोहन (भ्रम , संशय आदि दोषों का नाश) होता है , वेदादि सब शास्त्रों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ और वेदों के अन्तिम सिद्धान्त का निर्णय करने वाला तथा वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ। इस प्रकार अपना प्रभाव प्रकट करने के बाद इस श्लोक में भगवान यह गुह्यतम रहस्य प्रकट करते हैं कि जिसका यह सब प्रभाव है वह (क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम) पुरुषोत्तम मैं (साक्षात् साकाररूप से प्रकट श्रीकृष्ण) ही हूँ। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन पर बहुत विशेष कृपा करके ही अपने रहस्य की बात अपने मुख से प्रकट की है जैसे – कोई पिता अपने पुत्र के सामने अपनी गुप्त सम्पत्ति प्रकट कर दे अथवा कोई आदमी किसी भूले-भटके मनुष्य को अपना परिचय दे दे कि जिसके लिये तू भटक रहा है वह मैं ही हूँ और तेरे सामने बैठा हूँ । 14वें अध्याय के 26वें श्लोक में भगवान ने जिस अव्यभिचारिणी भक्ति की बात कही थी और जिसको प्राप्त कराने के लिये इस 15 वें अध्यायमें संसार , जीव और परमात्मा का विस्तृत विवेचन किया गया उसका अब आगे के श्लोक में उपसंहार करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी